Wednesday, August 24, 2011

डॉ.शंभु कुमार सिंह-आधुनिक मैथिली नाटकमे चित्रित : निर्धनताक समस्या

डॉ.शंभु कुमार सिंह
जन्म : 18 अप्रील 1965 सहरसा जिलाक महिषी प्रखंडक लहुआर गाममे। आरंभिक शिक्षा, गामहिसँ, आइ.ए., बी.ए. (मैथिली सम्मान) एम.ए. मैथिली (स्वर्णपदक प्राप्त) तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार सँ। BET [बिहार पात्रता परीक्षा (NET क समतुल्य) व्याख्याता हेतु उत्तीर्ण, 1995] “मैथिली नाटकक सामाजिक विवर्त्तन” विषय पर पी-एच.डी. वर्ष 2008, तिलका माँ. भा.विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार सँ। मैथिलीक कतोक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिका सभमे कविता, कथा, निबंध आदि समय-समय पर प्रकाशित। वर्तमानमे शैक्षिक सलाहकार (मैथिली) राष्ट्रीय अनुवाद मिशन, केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर-6 मे कार्यरत।


आधुनिक मैथिली नाटकमे चित्रित : निर्धनताक समस्या
भारत गरीबक देश थिक। एतुका अधिकांश जनता नो गाममे रहैत छथि जे कि कृषि कार्य पर निर्भर छथि आ बरखा पर। फलस्वरुप अनियमित बरखा सरकारी उपेक्षा ओ अशिक्षा तथा पिछड़ापनक कारणेँ गामक लोक गरीबीक जीवन बिता रहल छथि। यह गरीब किसान ओ गामक लोक जखन कमबा हेतु शहर जाइत छथि तँ मजदूर वा बोनिहार कहबैत छथि। ओत्तौ हुनका सभकेँ नारकीय जीवन जीवाक लेल बाध्य होमपड़ै छै। भारतक कुल आबादीक पैंतीस प्रतिशतक लगपास लोक एहन छथि जे जीवनोपयोगी न्यूनतम आवश्यकताक पूर्ति करबामे अक्षम छथि।
निर्धनता मनुक्खकेँ बेवस लाचार आ शक्तिहीन बना दैत अछि। निर्धन मनुक्ख पिछड़ल, दीन-हीन बाधाग्रस्त आ सदैव दोसरक दयापर जीब लेल बाध्य भजाइत अछि। मानव जीवनक भयंकर अभिशाप थिक निर्धनता वा गरीबी। ज मनुक्खकेँ दू-साँझक रोटी नै, पहिर लेल शरीर पर वस्त्र नै, है लेल घर नै, बीमार भेलापर दवा-दारूक पाइ नै, ओ जँ आत्माक उच्चताक दावा करत तओ मिथ्याक सिवाय किछु नैसकैत अछि। ओ स्वतंत्र कोना भसकैत अछि? ओ कोनो बड़का काज कोना कसकैत अछि? ओ अपन विचारकेँ स्वतंत्र रूपसँ कोना प्रकट कसकैत अछि? निर्धनताक कारणेँ मनुष्य तंगदिल, तुच्छ, ओछ, कमजोर आ अपन च्छाक मारऽबला बनि जाइत अछि।
मैथिली नाट्य साहित्य मध्य समस्याक विश्लेषण निम्नस्थ नाटकमे भेल अछि। जीवनाथ झाक वीर वीरेन्द्र’ (१९५६), भाग्य नारायण झाक मनोरथ’ (१९६६), बाबूसाहेब चौधरीक कुहेस’ (१९६७), गुणनाथ झाक कनियाँ पुतरा’ (१९६७),  नचिकेताक नायकक नाम जीवन’ (१९७१) अरविन्द कुमार अक्कूआगि धधकि रहल छै’ (१९८१), गोविन्द झाकअन्तिम प्रणाम’ (१९८२), गंगेश गुंजनक बुधिबधिया’ (१९८२) आदि।
मनोरथ मे लक्ष्मीनाथ अपन निर्घनताकेँ कोसैत छथि। ओ कहैत छथि- हमर नाम तँ दरिद्रनाथ होमक चाही ने कि लक्ष्मीनाथ। एकठाम नाट्यकार गरीबक धीया-पुताक संबधमे कहने छथि जे ओ कोनो काज सोचि समझि क करैत अछि ओ अपन सुख-सुविधाकेँ त्यागि दैत अछि। परिप्रेक्ष्यमे मैथिली नाट्यालोचक डॉ. प्रेम शंकर सिंहक कथन छनि- आर्थिक दशाक क्षीणताक कारणेँ मनुष्यकेँ केहन संकटापन्न समस्याक सामना कर पड़ैछ तकरे दिग्दर्शन नाटकमे होइत अछि।
गरीबीक ई पराकाष्ठा छै जे क्यो खाइत-खाइत मरैत अछि तँ क्यो कमाइत-कमाइत। एत समुचित व्यवस्थाक भाव अछि। एत अधिकांश नेनाक स्थिति एहने अछि जे जन्मोपरान्त रोजी-रोटीक जोगाड़मे लागि जाइत अछि। नाटकक लेलमे समस्याकेँ उजागर कल गेल अछि- कतेको लोक एक किनारमे पड़ल कूड़ाक ढेरसँ की सने बीछि रहल छल, क्यो दू एकटा रोगाल बच्चाकेँ डेंगा रहल छल२ आर तँ आर आइ समाजमे एहन गरीबी व्याप्त छै जे गरीबकेँ मुइलाक उपरान्त कफन किनबाक लेल टका नै रहैत छै। अंतिम प्रणाममे समाजक एहन दुर्दैन्य स्थितिक चित्रण द्रष्टव्य थिक--- ठीके तकहै छिऐ। हमरा आरू गरीब छी मुदा आनि पर दस गोटय मिलि जाय तँ की ने कसकैत छी।”३
बुधिबधियामे सेहो गरीबीक दृष्टान्त भेटैत अछि। देश मे कतेको व्यक्तिक स्थिति सोचनीच अछि। किछु व्यक्ति अपन जीवन-यापन विलासितापूर्वक ढगसँ व्यतीत करैत छथि, मुदा सरकारक ध्यान गरीब लोकक दिस नै जाइ छै। जँ सरकार द्वारा किछु व्यवस्था कलो जाइछ तँ ओकर लाभ गरीब लोक घरि नै पहुँचि सकैत अछि-एकरा देह पर एक बीत वस्त्र नै, एकर अंग-अंग उघार अछि।”४
समाजक अधिकांश लोक गरीबी रेखाक नीचाँ अछि। महगी अकाश छुबि रहल अछि। सामान्य लोक अपन परिवारक हेतु भोजन, वस्त्र आवास जुटएबामे परेशान अछि। अंतिम प्रणाममे मुरारीक कथन अछि--- तीन-तीन टा बच्चोकेँ भुखले सुतैत देखैत रहैत छी- घरवालीकेँ फाटल वस्त्रमे देखैत छी- अहूसँ बेसी किछु अशुभ भसकैत अछि।

वर्तमान युगमे सामाजिक चेतनाक निरन्तर बढ़ैत गतिशीलता ओ परंपरागत रूढ़ि व्यवस्थाक जड़ताक बीच एकटा भयंकर संघर्ष आ तनावक स्थिति बनल अछि। आधुनिक सामाजिक मैथिली नाटकक मूल-स्वर प्रकारक विभिन्न संघर्ष, तनाव आ अनेक सामाजिक समस्या आदिसँ भरल अछि। सामाजिक जीवनक यथार्थक अभिव्यक्ति नाटककारक सामाजिक दृष्टि आ रचना दृष्टि पर आधारित होइत अछि। मिथिलांचलक समाजमे आर्थिक विपन्न जीवनक अस्तव्यस्तता स्वाभाविकतामे परिवर्तित भए गेल अछि।
संदर्भ

. मैथिली नाटक परिचय, डॉ. प्रेम शंकर सिंह, पृष्ठ९६
. नाटकक लेल, नचिकेता, पृष्ठ५४
. अंतिम प्रणाम, गोविन्द झा,
४. बुधिबधिया, डॉ. गंगेश गुंजन




(साभार विदेह)

No comments:

Post a Comment