गजेन्द्र ठाकुरक नाटक संकर्षण
मात्र १६ पृष्ठक नाटक,
सुनबामे कनेक अनसोहाँत जकाँ लगैत अछि मुदा जौं तन्मय भऽ कऽ
पढ़ल जाए तँ स्पष्ट भऽ जाइत जे हिन्दी साहित्यमे मात्र किछु कथाक कथाकार
श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जीकेँ कोना आ किए आत्मसात् कऽ लेल गेल?
संकर्षण सन अभिनेता जइ नाटकमे हुअए ओइमे िवशेष भावक उपस्थिति स्वाभाविक अछि। अभिनेताक कोनो गुण नै मुदा गजेन्द्र जी एकरा प्रधान नायक बना देलनि। समाजक कुहरैत अवस्थाक यएह सत्य रूप थिक, एक िदश महीसक चरवाह आ दोसर दिशि कलक्टरक चाटुकार। मिथिलाक समाजिक बिम्बकेँ स्पर्श करैत छोट नाटक संकर्षणमे नुक्कड़ नाटकक रूप अछि। “हौ गोनर! पानि कोना लागए देबैक एकरा। पएरक चमड़ा सड़त तँ फेर नवका आबि जाएत। मुदा ई सड़ि जाएत तखन कतएसँ आएत।” कहबाक तात्पर्य जे जइ व्यक्तिकेँ शरीरसँ बेसी किछु कैंचाक जुत्ता विशेष महत्वपूर्ण लगैत हुअए ओइ व्यक्तिमे जीवनक तादात्म्यक कोन प्रयोजन?
धर्मनीतिसँ अर्थनीति बेसी महत्वपूर्ण अछि। कालक बदलैत स्वरूपक िचन्तन करबाक योग्य संभवत: ऐ नाटकक यएह उद्देश्य थिक, पर्दा उठत आ आधा धंटामे नाटक समाप्त। जीवनक नाटकमंडलीकेँ केन्द्रित करए बला संकर्षण चिन्तन करबाक योग्य लागल। सभटा नाटकमे कोनो ने कोनो रूपेँ हास्य आ श्रंृगारक सम्मिलन होइत अछि मुदा ऐ ठाँ अभाव किएक तँ समाजक मनोवृत्तिकेँ छुबैत ऐ नाटककेँ पढ़ि कोनो कविक एकटा कविताक एक पाँॅति मोन पड़ि गेल-
“ठोप-ठोप चारक चुआठकेँ आंॅगुरसँ उपछैत रहल छी”
गजेन्द्र जीक प्रयास छोट परंच अनुकरणीय लागल।
संकर्षण सन अभिनेता जइ नाटकमे हुअए ओइमे िवशेष भावक उपस्थिति स्वाभाविक अछि। अभिनेताक कोनो गुण नै मुदा गजेन्द्र जी एकरा प्रधान नायक बना देलनि। समाजक कुहरैत अवस्थाक यएह सत्य रूप थिक, एक िदश महीसक चरवाह आ दोसर दिशि कलक्टरक चाटुकार। मिथिलाक समाजिक बिम्बकेँ स्पर्श करैत छोट नाटक संकर्षणमे नुक्कड़ नाटकक रूप अछि। “हौ गोनर! पानि कोना लागए देबैक एकरा। पएरक चमड़ा सड़त तँ फेर नवका आबि जाएत। मुदा ई सड़ि जाएत तखन कतएसँ आएत।” कहबाक तात्पर्य जे जइ व्यक्तिकेँ शरीरसँ बेसी किछु कैंचाक जुत्ता विशेष महत्वपूर्ण लगैत हुअए ओइ व्यक्तिमे जीवनक तादात्म्यक कोन प्रयोजन?
धर्मनीतिसँ अर्थनीति बेसी महत्वपूर्ण अछि। कालक बदलैत स्वरूपक िचन्तन करबाक योग्य संभवत: ऐ नाटकक यएह उद्देश्य थिक, पर्दा उठत आ आधा धंटामे नाटक समाप्त। जीवनक नाटकमंडलीकेँ केन्द्रित करए बला संकर्षण चिन्तन करबाक योग्य लागल। सभटा नाटकमे कोनो ने कोनो रूपेँ हास्य आ श्रंृगारक सम्मिलन होइत अछि मुदा ऐ ठाँ अभाव किएक तँ समाजक मनोवृत्तिकेँ छुबैत ऐ नाटककेँ पढ़ि कोनो कविक एकटा कविताक एक पाँॅति मोन पड़ि गेल-
“ठोप-ठोप चारक चुआठकेँ आंॅगुरसँ उपछैत रहल छी”
गजेन्द्र जीक प्रयास छोट परंच अनुकरणीय लागल।
(साभार विदेह)
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