Wednesday, August 24, 2011

नेना भुटका लेल नाटक -दानवीर दधीची : गजेन्द्र ठाकुर

दानवीर दधीची

मंच सज्जा

अम्र वन, पोखरि आ’ युद्ध स्थल


वेष-भूषा

अधो वस्त्र- आश्रमवासीक हेतु

आश्विनक हेतु वैद्यक श्वेत वस्त्र

आ’ इन्द्रक हेतु योद्धाक वस्त्र

रथ आ’ अस्त्र शस्त्रक चित्र पर्दा पर छायांकित कएल जा’ सकैत अछि।



प्रथम दृश्य


( महर्षि दध्यङ आथर्वन दधीचीक तपोवनक दृश्य। सूर्योदयक स्वर्णिम आभा, फूलक गाछक फूलक संग पवनक प्रभावसँ सूर्य दिशि झुकब। यज्ञक धूँआसँ मलिन भेल गाछक पात। महर्षि सूर्योदयक दृश्यक आनन्द लए रहल छथि। मुदा दृष्टिमे अतृप्त भाव छन्हि। ओहि आश्रमक कुलपति थिकाह महर्षि, दस सहस्र छात्रकेँ विद्यादान करैत छथि, सभक नाम, गाम आ’ कार्यसँ परिचित छथि। से ओ’ तखने प्रवेश करैत एकटा अपरिचित आगंतुकक आगमन सँ साकांक्ष भ’ जाइत छथि।)



दध्यङ आथर्वन दधीची: अहाँ के छी आगंतुक?


अपरिचित: हम एकटा अतिथि छी महर्षि, आ’ कोनो प्रयोजनसँ आयल छी। कृपा कए अतिथिक मनोरथ पूर्ण करबाक आश्वासन देल जाय।

दध्यङ आथर्वन दधीची: एहि आश्रमसँ क्यो बिना मनोरथ पूर्ण कएने अहि गेल अछि आगंतुक। हम अहाँक सभ मनोरथ पूर्ण होयबाक आश्वासन दैत छी।


अपरिचित: हम देवता लोकनिक राजा इन्द्र छी। अहाँसँ परमतत्त्वक उपदेशक हेतु आयल छी।एहिसँ अहाँक कीर्त्ति स्वर्गलोक धरि पहुँचत।


(दध्यङ आथर्वन दधीची सोचमे पड़ल मंच पर एम्हरसँ ओम्हर विचलित होइत घुमय लहैत छथि। ओ’ मंच पर घुमैत मोने- मोन, बिनु इन्द्रकेँ देखने, बजैत छथि, जे दर्शकगणकेँ तँ सुनबामे अबैत अछि, मुदा इन्द्र एहन सन आकृति बनओने रहैत छथि, जे ओ’ किछु सुनिये नहि रहल छथि, आ’ मंचक एक दोगमे ठाढ़ भ’ जाइत छथि।)

दध्यङ आथर्वन दधीची: (मोने-मोन) हम शिक्षा देब तँ गछि लेने छी, मुदा की इन्द्र एकर अधिकारी छथि। बज्र लए घुमए बला, कामवासनामे लिप्त अनधिकारी व्यक्त्तिकेँ परमतत्त्वक शिक्षा? मुदा गछने छी तँ अपन प्रतिज्ञाक रक्षणार्थ मधु-विद्याक शिक्षा इन्द्रकेँ दैत छियन्हि।


इन्द्र: कोन सोचिमे पड़ि गेलहुँ महर्षि।


दध्यङ आथर्वन दधीची: इन्द्र हम अहाँकेँ मधुविद्याक शिक्षा दए रहल छी। भोगसँ दूर रहू। नाना प्रकारक भोगक आ’ भोज्यक पदार्थ सभसँ। ई सभ ओहने अछि, जेना फूल सभक बीचमे साँप। भोगक अछैत स्वर्ग अधिपति इन्द्र आ’ भूतलक निकृष्ट कुकुरमे कोन अंतर रहत तखन?

( इन्द्र अपन तुलना कुकुरसँ कएल गेल देखि कए तामसे विख-सबिख भ’ गेल। मुदा अपना पर नियंत्रण रखैत मात्र एक गोट वाक्य बजैत मंच परसँ जाइत देखल जाइत अछि।)

इन्द्र: महर्षि अहाँक ई अपमान तँ आइ हम सहि लेलहुँ। मुदा आजुक बाद जौँ अहाँ ई मधु-विद्या ककरो अनका देलहुँ तँ अहाँक गरदनि पर ई मस्तिष्क जकर अहाँकेँ घमण्ड अछि, एहि भूमि पर खसत।



दृश्य 2:


( ऋषिक आश्रम। आश्विन बन्धुक आगमन।महर्षिसँ अभिवादनक उपरान्त वार्त्तालाप। )


आश्विन बन्धु: महर्षि। आब हम सभ अहाँक मधु विद्याक हेतु सर्वथा सुयोग्य भ’ गेल छी। हिंसा आ’ भोगक रस्ता हम सभ छोड़ि देलहुँ। इन्द्र सोमयागमे हमरा लोकनिकेँ सोमपानक हेतु सर्वथा अयोग्य मानलन्हि, मुदा हमरा सभ प्रतिशोध नहि लेलहुँ। कतेक पंगुकेँ पैर, कतेक आन्हरकेँ आँखि हमरा सभ देलहुँ। च्यवन मुनिक बुढ़ापाकेँ दूर कएलहुँ। आ’ तकरे उपकारमे च्यवन हमरा लोकनिकेँ सोमपीथी बना देलन्हि।


दध्यङ आथर्वन दधीची: आश्विनौ। ब्रह्मज्ञानककेँ देब एकटा उपकारमयी कार्य अछि, आ’ अहाँ लोकनि एहि विद्याक सर्वथा योग्य शिक्षार्थी छी। इन्द्र कहने अछि, जे जाहि दिन ई विद्या हम कहियो ककरो देब तँ तहिये ओ’ हमर माथ शरीरसँ काटि खसा देत। मुदा ई शरीरतँ अछि क्षणभंगुर। आइ नहि तँ काल्हि एकरा नष्ट होयबाक छैक। ताहि डरसँ हम ब्रह्म विद्याक लोप नहि होए देबैक।


आश्विनौ: महर्षि अहाँक ई उदारचरित! मुद हमरो सभ शल्यक्रिया जनैत छी आ’ पहिने हमरा सभ घोड़ाक मस्तक अहाँक गरदनि पर लगाए देब। जखन इन्द्र अपन घृणित कार्य करत आ’ अहाँक मस्तककेँ काटत तखन अहाँक अस्ली मस्तक हमरा सभ पुनः अहाँक शरीरमे लगा देब।

(मंच पर आबाजाही शुरू भ’ जाइत अछि, क्यो टेबुल अनैत अछि तँ क्यो चक्कू धिपा रहल अछि, जेना कोनो शल्य चिकित्साक कार्य शुरू भ’ रहल होय। परदा खसए लगैत अछि, आ’ पूरा खसितो नहि अछि, आकि फेर उठब प्रारम्भ भ’ जैत अछि। एहि बेर घोड़ाक गरदनि लगओने महर्षि आश्विन बन्धुकेँ शिक्षा दैत दृष्टिगोचर ओइत छथि।)

दध्यङ आथर्वन दधीची: एहि जगतक सभ पदार्थ एक दोसराक उपकारी अछि। ई जे धरा अछि से सभ पदार्थक हेतु मधु अछि, आ’ सभ पदार्थ ओकरा हेतु मधु। समस्त जन मधुरूपक अछि। तेजोमय आ’ अमृतमय। सत्येक आधार पर सूर्य ज्योति पसारैत अछि एहि विश्वमे, आ’ चन्द्रक धवल प्रकाश दूर भगाबैत अछि रातिक गुमार आ’ आनैत अछि शीतलता। ज्ञानक उदयसँ अन्हारमे बुझाइत साँप देखा पड़ैत अछि रस्सा। विश्वक सूत्रात्माकेँ ओहि परमात्माकेँ अपन बुद्धिसँ पकड़ू। जाहि प्रकारेँ रथक नेमिमे अर रहैत अछि, ताहि प्रकारेँ परमात्मामे ई संपूर्ण विश्व।


( तखने मंचक पाछाँसँ बड्ड बेशी कोलाहल शुरू भ’ जाइत अछि। तखने बज्र लए इन्द्रक आगमन होइत अछि। एक्के प्रहारमे ओ’ महर्षिक गरदनि काटि दैत छथि। फेर इन्द्र चलि जाइत छथि। मंच पर आबाजाही शुरू भ’ जाइत अछि, क्यो टेबुल अनैत अछि तँ क्यो चक्कू धिपा रहल अछि, जेना कोनो शल्य चिकित्साक कार्य शुरू भ’ रहल होय। परदा खसए लगैत अछि, आ’ पूरा खसितो नहि अछि, आकि फेर उठब प्रारम्भ भ’ जैत अछि। एहि बेर महर्षि पुनः अपन स्व-शरीरमे देखल जाइत छथि। ओ’ बैसले छथि आकि इन्द्र अपन मुँह लटकओंने अबैत अछि।)


इन्द्र: क्षमा करब महर्षि हमर अपराध। आइ आश्विन-बन्धु हमरा नव-रस्ता देखओलन्हि। गुरूसँ एको अक्षर सिखनहार ओकर आदर करैत छथि मुदा हम की कएलहुँ। असल शिष्य तँ छथि आश्विन बन्धु।


दध्यङ आथर्वन दधीची: इन्द्र। अहाँकेँ ताहि द्वारे हम शिक्षा देबामे पराङमुख भए रहल छलहुँ। मुदा अहाँक दृढ़निश्चय आ’ सत्यक प्रति निष्ठाक द्वारे हम अहाँकेँ शिक्षा देल। हमरा मोनमे अहाँक प्रति कोनो मलिनता नहि अछि।

इन्द्र: धन्य छी अहाँ आ’ धन्य छय्हि आश्विनौ। आब हम ओ’ इन्द्र नहि रहलहुँ। हमर अभिमानकेँ आश्विनौ खतम कए देलन्हि।


(इन्द्र मंचसँ जाइत अछि। परदा खसैत अछि।)



दृश्य 3:


( स्वर्गलोकक दृश्य। चारू दिशि वृत्र आ’ शम्बरक नामक चर्चा करैत लोक आबाजाही कए रहल छथि। ओ’ दुनू गोटे आक्रमण कए देने अछि भारतक स्वर्गभूमि पर। इन्द्र सहायताक हेतु महर्षिक आश्रम अबैत छथि।)


इन्द्र: वृत्र आ’ शम्बरक आक्रमण तँ एहि बेर बड्ड प्रचंड अछि। अहाँक विचार आ’ मार्गदर्शनक हेतु आयल छी महर्षि।


दध्यङ आथर्वन दधीची: इन्द्र। कुरुक्षेत्र लग एकटा जलाशय अछि, जकर नाम अछि, शर्यणा। अहाँ ओतए जाऊ, ओतय घोड़ाक मूड़ी राखल अछि, जाहिसँ हम आश्विनौकेँ उपदेश देने छलहुँ। ब्रह्मविद्या ओहि मुँहसँ बहरायल आ’ ताहि द्वारे ओ’ अत्यंत कठोर आ’ दृढ़ भ’ गेल अछि। ओहिसँ नाना-प्रकारक शस्त्र बनाऊ, अग्नि आश्रित विध्वंसकक प्रयोग करू, त्रिसंधि व्रज, धनुष, इषु-बाण-अयोमुख-लोहाक सूचीमुख सुइयाबला आ’ विकंकतीमुख- कठोर कन्ह सन एहि तरह्क शस्त्रक प्रयोग करू, कवच आ’ शिरस्त्राणक प्रयोग करू, अंधकार पसारयबला आ’ जड़ैत रस्सी द्वारा दुर्गंधयुक्त्त धुँआ निकलएबला शस्त्रक सेहो प्रयोग करू आ’ युद्ध कए विजयी बनू।


इन्द्र: जे आज्ञा महर्षि।


( परदा खसैत अछि, आ’ जखन उठैत अछि, तँ पोखडिक कातमे घोड़ाक मूड़ीसँ इन्द्र द्वारा वज्र आ’ विभिन्न हथियार बनाओल जा’ रहल अछि, फेर परदा खसि क’ जखन उठैत अछि तँ अग्नियुक्त शस्त्र, जे फटक्काक द्वारा उत्पन्न कएल जा’ सकैत अछि, देखबामे अबैत अछि आ’ मंच धुँआसँ भरि जाइत अछि। फेर परदा खसैत अछि आ’ मंचक पाछाँसँ सूत्रधारक स्वर सुनबामे अबैत अछि।)


सूत्रधार: इन्द्रक विजय भेलन्हि आ’ दुष्ट सभ गुफामे भागि गेल। ईएह छल वैदिक नाटक बादमे एहि अर्थकेँ अनर्थ कए देलन्हि पौराणिक लोकनि, जाहि कथामे दधीचीक हड्डीसँ इन्द्रक वज्र बनएबाक चर्च कएल गेल अछि।


(पर्दा ओ’ ई असल बात अछि केर फुसफुसाहटिक संग खसले रहैत अछि, आ’ लाइट क्षणिक ऑफ भेलाक बाद ऑन भए जाइत अछि।)(साभार विदेह)

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