Wednesday, August 24, 2011

नाटककार मणिपद्म- प्रेमशंकर सिंह

नाटकक-एकांकी :
विगत शताब्दी मैथिली नाटकक-एकांकीक हेतु एक क्रान्तिकारी युगक रूपमे प्रस्तुत भेल। आधुनिक मैथिली नाट्य जगत जखन अन्धकारमे टापर-टोइया द’ रहल छल तखन युगपुरुष जीवन झा गद्यक नव-ज्योतिसँ सम्पूर्ण मैथिली नाट्य-साहित्यकेँ आलोकित कयलनि। आधुनिक मैथिली नाटकक जन्म एही शताब्दीमे भेल जकरा प्रवर्त्तन कयलनि कीर्त्तिपुरुष जीवन झा। ई मैथिली गद्यक महान उन्नायक रहथि। ओ गद्यकेँ नवीन स्वरूप प्रदान कयलनि। अपन नाट्यादिक माध्यमे मैथिली गद्यक मंगल द्वारकेँ खोललनि तथा भविष्यक नाटकककारकेँ एक नव प्रेरणा देलनि। मैथिलीमे उच्च कोटिक नाट्य-साहित्यक निर्माण कार्य विगत शताब्दीक अनुपम उपहार एहि साहित्यकेँ भेटलैक। विगत शताब्दीक नाटकककार जीवनक विभिन्न क्षेत्रसँ सामग्री ग्रहण क’ कए सामाजिक, धार्मिक, विशुद्ध साहित्यिक, पौराणिक आ राष्ट्रीय एवं राजनीतिक नाटकक परम्पराकेँ जन्म देलनि आ भारतीय नवोत्थानकालीन भावनाक प्रचार कयलनि। जीवन झाक पश्चात् मैथिलीक दोसर नाटकककार साहित्यरत्नाकर मुंशी रघुनन्दन दास आ पण्डित लालदास आ हुनका सभक पश्चातो नाटकक क्षेत्रमे एहि परम्पराक निर्वाह होइत रहल। देशक आवश्यकतानुसार विगत शताब्दीमे ऐतिहासिक नाटकक रचना भेल। पौराणिक कथाकेँ नव-ढ़ंगे प्रतिपादित कयल जाय लागल। मैथिलीक किछु नाटकककार प्रतीकात्मक नाटकक रचना कयलनि, किन्तु ई परम्परा अधिक पुष्ट नहि भ’ सकल। यद्यपि गीति-नाट्यक रचना सेहो विगत शताब्दीमे भेल तथापि मैथिलीमे सुन्दर गीति-नाट्यक रूपमे सोमदेव (1934) क चरैवेति (1982) एक प्रतिमान प्रस्तुत करैछ। विवेच्य कालावधिमे समस्या नाटकक रचना भेल अछि। यूरोपीय प्रभावक अन्तर्गत समस्या नाटककमे बुद्धिवादक आधारपर सामाजिक, व्यक्तिगत तथा जीवनक अन्य क्षेत्रमे व्यर्थक आडम्बर आ वाह्याचार तथा परम्परा पालनक विरोध कयल गेल अछि। किन्तु मैथिलीक समस्या नाटकक बुद्धिवाद कुंठित आ ओकर क्षेत्र सीमित अछि, जाहिमे जार्ज बर्नाड शॉ आ हेनरिक इब्सनक तीक्ष्ण दृष्टिक अभाव अछि। ओहुना ई परम्परा मैथिलीमे विकसित नहि भेल।

आलोच्यकालमे रंगमंचक अभावक कारणेँ एकर प्रगतिमे बाधक सिद्ध भेल अछि। मैथिलीमे एक साधु अभिनयशाला नहि भेलासँ पाठ्य साहित्यक विकासक गति एक विशेष दिशामे झुकि गेल अर्थात् एहन नाटकक निर्माण होइत रहल जे साहित्यिक आनन्दक दृष्टिएँ सुन्दर रचना थिक, किन्तु रंगमंचीय विधानक दृष्टिएँ दोषपूर्ण अछि। विगत शताब्दीक नाट्य-साहित्यपर विवेचन करबाकाल मात्र रंगमंचपर ध्यान नहि देबाक चाही। जँ रंगमंचकेँ नाटकक कसौटी मानि लेल जाए तँ विश्वक अनेक प्रसिद्ध नाटकादिकेँ नाटकक श्रेणीसँ निष्कासित करए पड़त। शैलीक दृष्टिसँ मैथिली नाट्य साहित्य पूर्व आ पश्चिमकेँ ल’ कए चलल छल, किन्तु शनैः-शनैः ओ पश्चिमाभिमुख अधिक भ’ गेल अछि आ भारतीय तत्व नगण्य भेल जा रहल अछि।

विगत शताब्दीक चतुर्थ दशकमे साहित्य रत्नाकर मुंशी रघुनन्दन दासकेँ श्रेय आ प्रेय दुनू छनि जे मैथिलीमे एकांकी रचनाक शुभारम्भ कयलनि जे पश्चात् जा क’ एक सबल प्राणवन्त विधाक रूपमे पल्लवित भेल। वर्त्तमान समयमे एकांकी लिखल जा रहल अछि अवश्य, किन्तु किछु अपवादकेँ छोड़ि क’ एकांकीक वास्तविक कलाक कसौटीपर खरा रहनिहार एकांकीक अनुसंधान करबाकाल निराश होमय पड़ैछ। पृष्ठभूमि, वातावरण आ कार्य व्यापारक अभाव प्रायः सभ एकांकीमे भेटैछ। एकर उद्देश्यक परिधि विस्तृत अछि। ओ सामाजिक, ऐतिहासिक, राष्ट्रीय, मनोवैज्ञानिक, हास्य-व्यंग्यपूर्ण आदि अनेक उद्देश्यकेँ ल’ कए लिखल गेल अछि। वैश्वीकरणक फलस्वरूप आधुनिक जीवनक विडम्बनापर गम्भीर प्रहार करब एकांकी कारक कर्त्तव्य भ’ गेलनि अछि। रेडियो आ टेलीभीजनक कारणेँ नाटकक नवीनतम रूप ध्वनि रूपकमे भेटैछ, जकर टेकनिक एकांकीक टेकनिकसँ भिन्न होइछ। रंगमंचीय कलाक दृष्टिसँ एकांकीक ध्वनि रूपककेँ आघात पहुँचबाक पूर्ण सम्भावना अछि, ओहिना जेना फिल्मक प्रचारसँ नाट्यकलाकेँ क्षति पहुँचल अछि।
(साभार विदेह)

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