भफाइत चाहक जिनगी
समीक्षा
शिव कुमार झा ‘टिल्लू’
भफाइत चाहक जिनगी
सम्पूर्ण मैथिली भाषामे आधुनिक नाटक विधाक
प्रारंभ पंडित जीवन झा कृत नाटक ‘सुन्दर संयोग’सँ सन् १९०४ ई. मे भेल। ऐसँ
पूर्व मैथिलीमे उमापति, रामदास, नन्दीपति आदि सेहो नाटकक रचना कएलनि, मुदा ओ सभ पूर्ण
मैथिलीमे नै लिखल गेल।
सुन्दर संयोगसँ लऽ कऽ श्री नचिकेता रचित ‘नो एन्ट्री मा प्रविश’, श्रीमति विभारानी कृत ‘भाग रौ आ बलचंदा’ आ श्री जगदीश प्रसाद मंडल
कृत ‘मिथिलाक
बेटी’ धरि
मैथिली साहित्यमे विविध विधाक नाटकक ढेर रास संग्रह उपलब्ध अछि। आेइ समग्र
नाटकक मध्य किछु नाटक बड़ लाेकप्रिय भेल अछि ओइमे श्री ईशनाथ झा रचित ‘चीनीक लड्डू’, पंडित गोविन्द झा लिखित
‘बसात’, श्री मणिपद्म रचित “झुमकी”, श्री ललन ठाकुर लिखित ‘लौंगिया मिरचाई’, प्रो. राधा कृष्ण चौधरी
लिखित ‘राज्याभिषेक’, श्री सुरेन्द्र प्र. सिन्हा रचित ‘वीरचक्र’, श्री विन्देश्वरी मंडल
रचित ‘क्षमादान’, श्री उत्तमलाल मंडल रचित
‘इजोत’ आ श्री गौरीकान्त चौधरी ‘कांत’ (मुखिया जी) रचित ‘वरदान’क संग-संग सुधांशु शेखर
चौधरी रचित ‘भफाइत
चाहक जिनगी’ प्रमुख
अछि।
स्व. सुधांशुजी मूलत: मैथिली साहित्यक उपन्यासकारक
रूपमे प्रसिद्ध छथि। अर्थनीतिकेँ आधार बना कऽ लिखबाक शैलीक कारण मैथिलीमे हिनक
एकटा अलग स्थान अछि, एकटा कलाकार जौं अपन कलाक प्रदर्शन नाट्य रूपमे करए तँ कोनो अजगुत नै।
भफाइत चाहक जिनगीमे ओ समाजक सामान्य बिम्बकेँ विलक्षण
रूपसँ बिम्बित कऽ हास्य आ मर्मक सम्यक् तारतम्य स्थापित कएलनि। चाहक जिनगी कतेक
क्षणक होइत अछि, भाफ उपटलासँ एकर अस्तित्व लुप्त भऽ जाइछ, मुदा जौं भनसियामे आत्म विश्वास हुअए तँ
आेइ अस्तित्वविहीन चाहमे नीर-क्षीर मिश्रित कऽ ओकरा फेरसँ सुस्वादु बनाओल जा सकैत अछि। नाटकक नायक महेशक जिनगी भफाइत
चाहक जिनगी जकाँ अछि। एकटा सुशिक्षित व्यक्ति कर्मक प्रतिस्पर्धाक गतिमे
सफल नै भेलापर समाजक अधलाह मानल गेल कर्मकेँ अपन जीवनक डोरि बना कऽ ततेक आत्मबलसँ
जीवैत अछि जे दीर्घसूत्री दृष्टिकोणक लोक सेहो ओकरा लग
नतमस्तक भऽ गेल।
नाटकक कथा चेतना समिति पटनाक कार्यक्रमक मध्य घुरैत अछि। महेश
चाहक स्थायी विक्रेता छथि, मुदा अधिक बिक्रीक आशक संग मिथिला-मैथिलीसँ सिनेहक दुआरे त्रिदिवसीय
कार्यक्रममे अपन दोकान लगौलनि। हुनक दोकानक पांजड़िमे गेना जीक पानक दोकान,
मात्र मैथिलीक पावनि धरिक लेल। सम्पूर्ण नाटक ऐ दू दोकानक
दृश्यमे बिम्बित अछि। चेतना समितिक कार्यक्रमक प्रदर्शन मात्र नेपथ्यसँ कएल
गेल।
महेश-गेनाक शीत बसंतक बसातक संयोग
जकाँ वार्तालापक क्रममे कार्यक्रमक कार्यकर्त्ता गोपालक प्रवेश होइए। हिनक उद्देश्य चाह पीबाक संग कार्यक्रममे
चाह पहुँचएबाक सेहो अछि। पान मंचपर अवश्य चाही, किएक तँ ई मैथिल संस्कृतिक प्रतीक अछि। गोपालक संग दिगम्बरक गप्प-सप्पमे अनसोहाँत कटाक्ष शैलीक विवेचन
नीक बुझना जाइत अछि। अध्ययन सम्पन्न कऽ लेलाक पश्चात्
दिगम्बर बाबूकेँ नौकरी नै भेटलनि। पटनामे ओ दस दुआरि बनि
पेट पोसि रहल छथि परंच महेशक चाह बेचबासँ ओ संतुष्ट नै, हुनका गामक महेश चाहक दोकान खोलि गामक नाक कटा रहल अछि। वाह-रे मैथिल!
भीख मांगि कऽ खाएब नीक, ठकि कऽ जीअब नीक मुदा छोट कर्म
नै करब। महेश तँ चाह बेच कऽ अपन परिवारक प्रतिपाल करैत छथि, दू गोट बारह बरखक नेनाकेँ रोजगार देने छथि,
मुदा दिगम्बर बाबूकेँ अपन यायावरी जीवन नीक लगैत छन्हि।
मुँहगर जे स्वयं अकर्मण्य हुअए ओ गोंग कर्मक पुरूषकेँ
दूसए तँ की कहल जाए? महेश चुप्प नै रहलाह, अपन कर्मक गतिक
आड़िमे दिगमबरकेँ सत्यसँ परिचए करा देलनि। ओना ई दोसर गप्प जे महेशो अपन पितासँ
असत्य बजने छथि। हुनक पिताकेँ ई बुझल छन्हि जे महेश पटनामे नौकरी करैत अछि। महेश
मिथ्या बजलनि मात्र अपन पिताक मानसिक संतुष्टिक लेल, किएक तँ पुरना सोचक लोक अपन ठोप-चाननेटा पर विश्वास करैत छथि,
बरू भुक्खे मरि जाएब मुदा विजातीय ओछ कर्म नै करब।
नाटकक दोसर प्रमुख पात्र छथि उमानाथ आ चन्द्रमा, एकटा अकाश आ दोसर
धरित्री। उमानाथ अभियंता छथि, नाअों टा लेल मैिथल,
कार्यक्रम देखबाक लेल नै अएला, मात्र
अपन संगी सभसँ भेँट करबाक दुआरे चेतना समितिक दर्शक दीर्घामे अशोकर्य लऽ कऽ पैसला। अपन कनियाँ चन्द्रमाटा सँ मैथिलीमे गप्प करैत छथि। की मजाल
केयो दोसर हुनका संग मैिथलीमे गप्प करबाक दु:साहस करए, ओकरा
अपन सामर्थ्य देखा देताह। दुनू परानी चाह पीबाक क्रममे महेशक दोकानपर अबैत छथि, चाह बनल नै कि उमानाथ जीकेँ कोनो संगीपर
नजरि पड़ि गेलनि। कनियाकेँ महेशक दोकानपर छोड़ि ठामे पड़ा गेलाह। यथाक्रममे
मंचसँ महेश जीकेँ कविता पाठ करबाक आग्रह आएल। चन्द्रमा जीकेँ बिनु दामे दोकानक
ओगरबाहि दऽ ओ मंचस्थ भऽ गेलाह। चन्द्रमा अजगुतमे पड़ि
गेलीह, चाहक विक्रेता आ कवि? कालक लीला विचित्र
लगलनि। दोकानपर गाहकि सभ आबए लागल, चन्द्रमा भावावेशमे पड़ि चाह बनाबए
लगलीह। गंगानाथ आ दयानंद सन गाहकिकेँ चाह विक्रेता कवि पचि नै रहल छल। समितिक
मंच हुनका लोकनिक मंच, तँए गनहा गेल। हरिकान्त बाबूकेँ
आधुनिक रूपक कार्यक्रम नीक नै लागि रहल छन्हि तँ शिवानंदकेँ पुरातन संस्कृतिसँ
कोनो मोह वा छोह नै। ऐ मध्य उमानाथ बाबू चन्द्रमाकेँ तकैत दोकानपर अएलाह। अपन
कनियाकेँ चाह बनबैत देखिते माहुर भऽ गेलथि। छोड़बाक जिद्द कएलनि मुदा मैथिल
नारी अपन उतरदायित्वसँ कोना भटकि सकैत अछि? एक खीरा तीन फाँक! बिगड़ि कऽ फेर
पड़ा गेलाह। मोने-मोन महेशपर अगिनवान बरिसबैत छलथि। चन्द्रमा सेहो संकटक आवाहनक सशंकित, मुदा
की करतीह? एक दिस भाव आ दोसर दिस कर्त्तव्य बोध, “आँखिक तीरक बीख पानि नोर
बनि झहड़ल हृदए झमान भेल।”
कथाक अंतिम वनिता सरिताक कंठ चाहक लेल सुखए लागल, तँए अपन नोकर आ
छोट नेनाक संग महेशक दोकानपर अबैत छथि। कविकाठी महेश कविता पाठ कऽ फेर अपन
जीवनकेँ गुनि रहल छथि। सरिताकेँ देखिते स्वयंमे नुकएबाक असहज प्रयास करए लगला। वएह सरिता जे कहियो
महेशक सहपाठिनी छलीह, आब एकटा आइ.ए.एस. अधिकारीक
अर्द्धांगिनी छथि। सरिता महेशसँ साक्षात्कार करबाक प्रयास कऽ रहलीहेँ। महेश
अपन भूतकालकेँ झाँपए चाहैत छथि मुदा सरिता घोघट कालक वर
जकाँ ओकरा उघारि रहल छलीह। हुनक उद्देश्य सिनेहिल अछि तँए महेश टूटि गेलाह। सरिता अश्रुधारसँ सिचिंत,
जकर नोट्स पढ़ि अध्ययन पथपर बढ़ैत रहलीह ओ एहेन दशामे पहुँचि गेल। चन्द्रमा सरिताक मोहमे विचरण करए लगलीह। ऐ मर्मस्पर्शी
क्षणक अंत भेल नै कि उमानाथ आबि महेशक गट्टा पकड़ि
वास्तविक जीवनक दर्शन कराबए लगलाह। चन्द्रमा ऐ क्षण महेशक संग दऽ रहल छलीह।
मैथिली साहित्यक लेल सभसँ विलग नूतन विषय वस्तुक
मार्मिक विश्लेषणमे शेखर जीक अतुल्य प्रतिभाक झलक अनमोल अछि। पूर्ण रूपसँ
एकरा नाटक नै कहल जा सकैछ, किएक तँ ई दीर्घ एकांकीक रूपमे लिखल गेल अछि। कथाक चित्रण मात्र दू दोकानक परिधिमे
भेल अछि तँए दृश्य समायोजनमे कोनो प्रकारक विध्नक स्थिति नै, सरिपहुँ एकरा शेखरजी नाटकक रूपमे प्रदर्शित कएलनि। महेश सन चरित्र
हमरा सबहक समाजमे छथि, मुदा कर्त्तव्यबोधक एहेन पुरूष
जौं मिथिलामे सभठाम होथि तँ हम सभ साधन विहीन रहितो सम्यक जीवनक रचना कऽ सकैत छी। चन्द्रमा सन दीर्घसोची नारीक विवरणमे
वास्तविकतासँ बेसी कल्पनाक आभास होइत अछि। नाटकक आत्मकथ्यमे शेखर जीक आत्मविश्वाससँ
बेसी अहंकारक दर्शन भेल। ‘नाटकक क्षेत्रमे हमर किछु मोजर अछि’ सन उक्तिक संग बटुक भाय
आ गजेन्द्र नारायण चौधरीक प्रति कृतज्ञता ज्ञापनमे महिमा मंडनक भान श्ोखर जीक संस्कारपर बुझना जाइछ। कियो ककरो प्रेरणासँ रचनाकार नै भऽ
सकैत अछि, ई तँ नैसर्गिक प्रतिभाक परिणाम थिक। मुदा ऐसँ
‘भफाइत
चाहक जिनगी’क
मर्यादाकेँ क्षीण नै बुझल जा सकैत अछि। मात्र छोट-छोट ३९ पृष्ठक नाटक (ओहुमे सँ आठ पृष्ठ विषय वस्तुसँ बाहरक) मैथिली साहित्यक लेल
मरूभूमिमे नीरक सदृश बनल दृष्टिकोणकेँ परिलक्षित करैत अछि। ऐ प्रकारक बिम्बक
सृजन शेखरजी सन माँजल रचनाकारेसँ संभव भऽ सकैछ। निष्कर्षत:
मिथिलाक संस्कृतिक मध्य कर्म प्रधान युगक आचमनिसँ नाटक ओत-प्रोत अछि। मात्र
साहित्यक नै, मंचनक लेल सेहो ई नाटक पूर्णत: उपयुक्त लागल।
नाटक- भफाइत चाहक िजनगी
रचनाकार- पं. सुधांशु शेखर चौधरी
प्रथम संस्करण- नवम्वर १९७५
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