उदय नारायण सिंह “नचिकेता” क नाटक नो
एंट्री : मा प्रविश
नाटक अधुनातन अछि। समैक संगे लेखन, विषए-वस्तु,
पात्र काल सभमे परिवर्त्तन होइत अछि। मैथिली साहित्यकेँ
अधुनातन हेबाक चाही, तइ आकांक्षाक ई नाटक पूर्ति करैत अछि।
नाटककारकेँ एकर सम्यक बोध छन्हि तँए मैथिल होएबाक कारणे हम आभार व्यक्त करैत
छी।
समाजमे जे घटित होइत अछि रचनाकार प्राय: ओकरे चित्रण
करैत छथि। नाटककार स्वर्ग-नरकक अवधारणापर नाटक लिखने छथि मुदा नाटकक विषए-वस्तु
प्रासंगिक धरतीक विद्रूपता अछि। ऐ विद्रूपताक माध्यम बनौने छथि, भागम-भाग, क्यू, वर्ण-व्यवस्था समाजसँ उपजल चाेरि, बेरोजगारी आ धूर्तता सन समस्या, जे ऐ नाटकमे
संयोजित अछि।
नाटकमे पात्रक संख्याक अनुकूल विषए-वस्तु जे उठैत
गेल अछि ओकरा नाटककार ऐसँ कमो पात्रमे मंचपर आनि सकैत छलाह। पात्रक आधिक्य मंचपर सफल
िनर्देशककेँ सुलभ हेतनि, मिथिलामे एकर अभाव हएत। भऽ
सकैत अछि हुनकर दृष्टिमे संपूर्ण धरती हुअए।
समस्याकेँ मंचपर आनबे पूर्ण सफलता होइत अछि। ओकरा
तीक्ष्णता संगे राखब जइसँ दर्शकक हृदैपर प्रभाव पड़ए तइमे कमी अनुभव होइत अछि।
कोनो रचना जँ हमरा बान्हि लिअए तकर ऐमे अभाव अछि।
नाटकक संवादमे शब्दक खेल कतौ-कतौ देखएमे अबैत अछि
पृष्ट सं- २०-२१ द्रष्टव्य अछि।
संवादकेँ बान्हल नै जा सकल अछि।
नाटककार अतीतक प्रत्यंचापर भविष्यक वाण चढ़ा
शर-संधान करैत अछि। समाजक स्थितिसँ ओकर विसंगति लक्ष्य छन्हि।
“चोर सिखावय बीमा-महिमा
पाकेटमारो करै बयान!
मार उच्चका झाड़ि लेलक अछि
पाट-कपाट तऽ जय सियाराम।।”
समाजक छद्म, राजनीतिक उलटा-फेर आकर्षक ढंगसँ व्यक्त
अछि। नाटककारकेँ नवीन आकांक्षा छन्हि-
आऊ पुरातन, आऊ हे नूतन।
हे नवयौवन, आऊ सनातन।।
प्राण-परायण, जीर्ण जरायन।
नाटकमे गीतक प्रयोग श्लाध्य अछि। संगीत दर्शककेँ
बान्हि कऽ रखैत अछि तइमे नाटककार सफल छथि। हास्य जइ ढंगे मुखर अछि, करूण तेना मुखर नै
अछि। नाटककारकेँ संस्कृतक नीक ज्ञान छन्हि- नाटकसँ उद्भाषित होइत अछि।
काल-बोध आ वास्तविकतो चित्रणमे जतए उपयोगी अछि ततहिं आम दर्शक लेल बोधगम्यतामे
अशक्त अछि।
ओना श्री गजेन्द्र ठाकुर जी विचार व्यक्त केने छथि।
पाश्चात्य आ भारतीय काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोणसँ हुनकर विचार स्वागत योग्य
अछि।
कोनो रचनामे गुण-अवगुण दुनू होइत अछि। तइ दृष्टिकोणसँ
हम सशक्त भऽ सकैत छी नाटक सफल अछि आ मैथिली साहित्यक एकटा उपलब्धि अछि।
(साभार विदेह)
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