Sunday, August 21, 2011

मैथिली नाटक- प्रेमशंकर सिंह

मल्ल राजवंशक द्वारा मैथिल साहित्यतकार लोकनिकेँ प्रोत्साहित कयल गेल जकर फलस्वारूप मैथिलीक प्रारम्भिक नाट्य-साहित्यीक रचना नेपालमे प्रारम्भफ भेल। विद्यापतिक परिपाटीपर रचल गेनिहार स्वितंत्र पदक अतिरिक्ता एहि कालावधिक अधिकांश पद नाटककमे गुम्फित अछि। मैथिली गीतसँ गुम्फित संस्कृलत-प्राकृत नाटकक रचनाक श्रीगणेश ज्योातिरीश्वथर कयने रहथि जकरा उमापति उपाघ्यााय आगॉं बढौ़लनि जे एहि कालावधिमे विशेष प्रचलित भेल। क्रमश: संस्कृतत प्राकृतक व्यंवहार कम होमय लागल आ मैथिलीमे सम्पू।र्ण नाटकक लिखल जाय लागल। पदावली-साहित्यणक समान मघ्य कालीन नाटकक नेपाल आ आसाम धरि व्याापक भ’ गेल। एहि एकारेँ मैथिली नाटकक विकास तीन केन्द्रेमे विभक्त भेल- मिथिला, नेपाल आ आसाम।

नेपालक मैथिली नाटकककार लोकनिक कार्य भूमि भातगाँव, काठमाण्डूे आ ललितपुर पाटनमे रहल। नेपालमे मैथिली नाटकक संस्कृभत नाटकक परम्पकराक स्थापनपर मैथिली नाटकक सूत्रपात भेल। एहि समयमे मुसलमानक प्रभावसँ नेपाल मुक्तु छल जकर फलस्वकरूप सांस्कृ।तिक आ साहित्यिक क्रिया-कलापमे कोनो तरहक व्यलवधान नहि भेल। एहि प्रकारेँ नेपालमे मैथिली नाटकक सूत्रपात भेल जे एक भाग अपन नव-शिल्परक उत्था।नमे लागल रहल आ दोसर भाग प्राचीन संस्कृतत-प्राकृत-मैथिली मिश्रित त्रिभाषिक नाट्य कलाक स्वलरूपकेँ किछु दिन धरि अपन पूर्ववर्त्ती स्वतरूपकेँ सुरक्षित रखलक। नेपालमे मैथिली नाटकक जे श्रृंखला स्थारपित भेल ओकर सब श्रेय मल्लर राजवंशकेँ छैक। भातगाँवमे प्रचुर परिमाणमे नाटकक लिखल गेल आ उल्लेरखनीय नाटकककारमे जगज्योवतिर्मल्लग (1613-1633), जगत्प्रलकाशमल्ल (1637-1672), सुमतिजितामित्रमल्लर (1672-1696), रणजीतमल्ल् (1722-1772),भूपतीन्द्र3मल्ल2 (1696-17क22) आ श्रीनिवासमल्ल (1658-1685) छथि। रणजीतमल्लआ सबसँ बेसी नाटकक रचना कयलनि। काठमाण्डू आ पाटनक उल्लेमखनीय नाटकककारमे वंशमणि आ सिद्ध नरसिंह देव (1622-1657)क नाम लेल जाइत अछि। ई नाटकककार लोकनि प्रचुर परिमाणमे नाटकक रचना कयलनि जाहिमे जगज्योनतिर्मल्लनक हर गौरी विवाह (1970). विश्व्मल्लरक विद्याविलाप (1965) आ जगत्प्रिकाश मल्लकक प्रभावती हरण (1972) नाटकक अद्यापि प्रकाशित भ’ पाओल अछि। शेष अन्यर नाटकककार लोकनिक नाटकक प्रकाशन अद्यापि नहि भ’ पाओल अछि जे नेपाल दरबार लाईब्रेरीमे संरक्षित अछि। शेष अन्यि नाटकादिक प्रकाशनसँ मैथिली नाटकक उदय आ विकासपर नव प्रकाश पड़ि़ सकैछ। एहि नाटकादिमे गीतक प्रधानता अछि, कथानक पौराणिक अछि, नाटकककार क्योि होथु, किन्तुट ओहिमे प्रयुक्तर गीतादि अन्या कवि लोकनिक उपलब्ध होइछ। सभ नाटकक अभिनीयतासँ पूर्ण अछि आ ओकर भाषा मानक मैथिलीक प्रतिमान प्रस्तुशत करैत अछि। महाराज पृथ्वीकनारायण साह (1768-1775) क आक्रमणक फलस्ववरूप मल्ल राजवंश द्वारा स्थारपित परम्प5रा समाप्तम भ’ गेल आ ओकरा स्थाबनपर गोरखा राजवंशक स्थालपना भेल। एकर फलस्विरूप काठमाण्डूल आ पाटनमे नाटकक परम्पाराक समाप्ति भ’ गेल, किन्तु भातगाँवमे अद्यापि ई परम्पीरा सुरक्षित अछि।
नेपालक उपर्युक्त‍ परम्पिराक क्षीण आलोक मिथिलामे सेहो भेटैत अछि। मिथिलामे जे नाटकक लिखल गेल ओकर नामकेँ ल’ कए विद्वान लोकनिमे मतैक्य क अभाव अछि। डा. जयकान्तल मिश्र (1922-2009) एकरा कीर्त्तििनयॉं नाटकक रमानाथ झा (1906-1971) कीर्त्तनियॉं नाच आ डा. प्रेमशंकर सिंह (1942) लीला नाटकक नामसँ अभिहित कयलनि अछि। एहि नाटकककादिमे मूलरूपसँ शिव तथा विष्णुटक लीला प्रस्तुएत कयल गेल अछि। एहि नाटककदिकेँ नाट्य मण्डवली आदि कृष्णु आ शिवसम्बीन्धी् विविध कथादिकेँ आधार बना क’ प्रदर्शन करैत छल। एहि कोटिक नाटककमे उपलब्ध सामग्री सभकेँ तीन काल खण्ड मे बाँटल जा सकैछ, प्रथम उत्थाीन, द्वितीय उत्था न आ तृतीय उत्थाान। प्रथम उत्था नक नाटकककारमे गोविन्दलक नलचरितनाटकक रामदास (1644-1671)क आनन्दह विजय नाटकक, देवानन्द क उषाहरण आ रमापतिक रुक्मिणीहरण इत्या6दिक नामोलेख कयल जा सकैछ। द्वितीय उत्थाानक उल्लेाखनीय नाटकककार लोकनिमे लाल कविक गौरी स्वीयंवर (1960), नन्दीापतिक कृष्णाकेलि माला नाटकक (1960), गोकुलानन्दछ क मानचरित नाटकक, शिवदतक पारिजात हरण, कर्णजयानन्द्क रुक्मागद नाटकक श्रीकान्त गणक श्रीकृष्णर जन्मप रहस्य्, कान्हा रामदासक गौरी स्वुयंवर नाटकक, रत्नपाणिक उषाहरण नाटिका, भानुनाथक प्रभावती हरण आ हर्षनाथ झा (1847-1898)क उषाहरण, माधवानन्दय एवं राधाकृष्ण् मिलन लीला (1962) आदि साहित्यिक दृष्टिसँ उल्ले4खनीय अछि।तृतीय उत्थाननक नाटकककारमे विश्ववनाथ झाक रमेश्व रचन्द्रिका, चन्दा् झाक अहिल्या चरित नाटकक महामहोपाघ्या य परमेश्व र झाक महिषासुर मर्दनी आ राज पण्डित बलदेव मिश्र (1897-1975)क राजराजेश्वशरी एवं रमेशोदय नाटकक उल्लेडखनीय थिक। एहिमे सँ किछु नाटकक अनुसंधाता लोकनिक अथक प्रयाससँ प्रकाशमे आयल अछि, किन्तुछ अधिकांश अद्यापि अप्रकाशित अछि। एहि नाटकककार लोकनिक नाटकादिमे नाटकीयताक अभाव परिलक्षित होइत अछि तथापि एहि कालक नाटकक बुझैत दीपक क्षीण आलोकक अभास भेटैत अछि।
मैथिली नाटकक विकसित आ सुव्य वस्थित स्वसरूप हमरा असममे उपलब्धअ होइत अछि। महाप्रभु चैतन्य्क वैष्णसव धर्मक समस्तर पूर्वाञ्चलक भारतीय साहित्यिपर यथेष्ट परिमाणमे पड़ल जकर परिणाम भेल जे साहित्यब पूर्णत: भक्तिमय भ’ गेल। फलत: साहित्यशमे रसक दृष्टिसँ विशेषत: कृष्णतक अवतार लीला कथाकेँ अधिक प्रश्रय देल गेल। वैष्णहव कवि लोकनिक अभिव्य क्तिक भाषा अन्धवकारमय छल। विद्यापतिक श्रृंगार रसक पदावलीमे राधाकृष्ण क उल्लेेख रहलाक कारणेँ चैतन्यददेव ओकरा भक्तिरसक कविता बुझलनि। ओ वैष्णाव धर्मक प्रचारार्थ विद्यापतिक कविताकेँ माघ्य म बनौलनि। जखन विद्यापतिक भाषा आसाम पहुँचल तखन युगपुरुष शंकरदेव (1449-1568) आ हुनक शिष्यि माधवदेव (1489-1556) विद्यापतिक भाषाक अनुकरण क’ कए ओकरा संग असमियाकेँ मिश्रित क’ कए एक नूतन भाषा व्रजबुलिक जन्मं देलनि। आसमाक व्रजबुलि असमिया साहित्यिक मेरूदण्डा थिक। एकरा माघ्यएमसँ असमिया-साहित्यह रस-समृद्ध भेल अछि। एक दू रूप थिक: वरगीत आ अङ्कीयानाट। युगपुरुष शंकरदेव वैष्णिव धर्मक प्रचारार्थ नाटकककेॅं माघ्य म बनौलनि। अङ्कीयानाटमे गद्य आ पद्यक समविभाग थिक। सबसँ आश्चकर्यक बात थिक जे महापुरुष शंकरदेव विशुद्ध आसमियामे रचना कयलनि, मुदा विद्यापतिक भाषासँ ओ एतेक अधिक प्रभावित भेलाह जे मैथिली-मिश्रित असमियामे वरगीत आ नाटकक रचना कयलनि। असमी साहित्यभमे एकर एहि विशिष्टयतापर प्रकाश दैत अछि। डा. वाणीकान्तस कातकीक कथन छनि, जाहि प्रकारेँ प्रचण्डर वात्या वनमे लागल दावाग्निकेँ प्रज्वीलित करबामे सहायक होइत अछि ओहि प्रकारेँ साहित्यद जातीय एवं महाजातीय आन्दोतलनकेँ प्रेरित करैछ। नाटकक, गीत एवं पद ई तीनू शंकरदेवक वैष्णाव-आन्दोेलनकेँ शाक्तर प्रदेशमे एतेक व्या्पक आ लोकप्रिय बनौलक। जाहि प्रकारे मरुभूमिक ऊँट जलक गन्धँ-सूत्र पकड़ि क’ जलाशयक खोजमे चलि पड़ैछ ओही प्रकारेँ तृषित जनता वरगीतक सौरभसँ आकृष्टश भ’ कए शंकर माधवक शरणापन्नि भेलाह (असमिया साहित्ये, डा. वाणीकान्तआ काकती)।
युगपुरुष शंकरदेव अपन तीर्थ-यात्राक क्रममे विद्यापतिक वैष्णयव-सम्‍प्रदायक गुरु मानि मिथिला अयलाह। ओहि समय मैथिली-काव्य् आ नाट्य-साहित्य् विकासक अपन चरमपर छल। उमापति उपाघ्याैय रचित पारिजातहरण क अभिनय अत्यकधिक भ’ रहल छल। एकर विषय-वस्तुच सेहो राधाकृष्ण छल। पारिजात हरण अभिनीत होइत देखि क’ प्रयोक्तास शंकरदेव अत्योधिक प्रभावित भेलाह। एस. के. भूइयाँक मतानुसार, अङ्कीयानाटकक भाषा मैथिलीक तथा आसमियाक मिश्रणक विलक्षण उदाहरण प्रस्तुलत करैत अछि। (On Ankia Nat, S.K.Bhuyan,Page–288–289) शंकरदेव अपन अद्वितीय प्रतिभा आ अप्रतिम वैदुष्यक बलपर असमिया साहित्य.मे अङ्कीया नाटकक जनकक रूपमे प्रख्या्त छथि। नाटकककार लोकनि पुराणादिसँ उपादानक चयन कयलनि आ एहि सन्द र्भमे भागवत पुराण, हरिवंश पुराण एवं रामायण हुनक प्रधान उपजीव्यि रहल। शंकरदेवक निम्नां्कित नाटकक कालिदमन (1518), पत्नीनप्रसाद (1521), केलिगोपाल (1540), रामविजय (1568), रुक्मिणी हरण (1568) एवं पारिजात हरण (1568) आ माधवदेवक भोजनविहार, भूमि लोटावा, अर्जुन भंजन (1538), पिम्प8रा-गुचोबा, रासझुमरा, चोरधरा, कटोरा-खेलोबा, भूषण हेरोवा एवं ब्रह्मा-मोहन आदि प्रकाशित आछि। एकर अतिरिक्तं गोपाल अता (1533-1688), द्विजराजभूषण (1507-1571), रामचरन ठाकुर (1521-1600) आ दैत्यादरि ठाकुर (1564-1622) आदि नाटकककार उल्लेनखनीय छथि। यद्यपि एहि नाटकक सभक कथा-वस्तु6 पौराणिक रहल, किन्‍तु संस्कृित ओ प्राकृतक स्थाथनपर मैथिली-असमिया-मिश्रित गद्यक प्रयोग भेल। गीतक स्थिति यथावत रहल, किन्तुत संस्कृ्त-प्राकृतक प्रयोग नहि कयल गेल जतय ओ अनिवार्य छल। एहि नाटकादिक उद्देश्य, मनोविनोद नहि, प्रत्यु त वैष्ण।व धर्म प्रचार करब छल। एहि लेल अधिकांश नाटकादिमे कृष्णयक वात्सणल्यरमय आ दासत्वह भावक पूर्ण लीलाक रूपमे वर्णन कयल गेल। रंगमंचक दृष्टिसँ ई अधिक सुव्यअवस्थित अछि।
एहि नाटकादि विषय-वस्तुस, रूप-रचना, भाषा आदि विशिष्ट ताकेँ देखलासँ प्रतिभाषित होइत अछि जे युगपुरुष शंकरदेव असमक लोक मनोरंजनक विधापर मैथिली आ व्रज क्षेत्रमे प्रचलित रंग-शैलीक आरोपन ओहिना कयलनि जेना संस्कृशत नाटकक शास्त्रो क्‍त परम्पंरा छल, कारण नाटकक माघ्यामसँ ओ वैष्ण‍व धर्मक प्रचार-प्रसार करय चाहैत छलाह।
आधुनिक भारतीय भाषादिमे मैथिली नाट्य-सम्पाादक गौरवशाली परम्पइरा आ ओकर विशाल पृष्ठीभूमि एहि साहित्यैक प्रारम्भिकावस्था सँ अविच्छिन्ना रूपसँ चलैत आबि रहल अछि, मुदा बीसम शताब्दीयक आम्भिक चरणमे मैथिली नाटकक, एकांकी आ रंगमंचक दिशामे साहित्यिक अन्यायन्य् विधादिक अपेक्षा अत्यटन्तम तीव्रगतिसँ प्रगतिक पथपर अग्रसर भेल अछि जाहिमे सन्देयह नहि। मैथिली नाटकक प्राचीन परम्पकराक टिमटिमाइत लौकेँ एहि युगमे नव ज्यो ति भेटल। पश्चिमी आदर्शक जाहि दीप वर्तिकाकेँ सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन मिथिला अनने रहथि ओकर क्षीण प्रकाश आधुनिक मैथिली नाटकक आदि प्रवर्त्तक जीवन झा (1848-1912)पर यथेष्टत परिमाणमे पड़ल। जाहि समय ओ नाट्य-निर्माणक दिशामे उन्मु ख भेलाह ओहि समय संस्कृ त नाट्य-परम्प।रा, कीर्ततियॉं नाटकक वा कीर्त्तनिआँ नाच वा लीला नाट्य परम्पलरा आ पारसी थियेटरसँ लोक ऊवि चुकल रहथि। जीवन झाक समक्ष एक चौराहा छल। कोन मार्गक अनुसारण कयल जाय जे एक समस्या् आ परीक्षा दुनू छल। जीवन झा मघ्यनम मार्गक अनुसरण कयलनि। ई सभ प्रवृत्तिकेँ समन्वित क’ कए एह एक नव प्रवृत्तिक जन्मल देलनि जकर आलोक मैथिली नाटकक प्रगतिक दिस उन्‍मुख भेल। ई चारि नाटकक रचना कयलनि जे थिक सुन्दार संयोग, (1904), मैथिली सट्टक (1906), नर्मदा सागर सट्टक (1906) आ सामवती पुनर्जन्मर (1908)। हिनका पश्चाीत् जे नाटकादि लिखल गेल ओकर दू श्रेणी अछि-एकांकी आ अनेकांकी।

एहि कालावधिमे जे नाटकक लिखल गेल अछि ओकरा दुइ श्रेणीमे विभाजित क’ सकैत छी- विषय-वस्तुजक दृष्टिसँ आ रचना-शिल्पाक दृष्टिसँ। विषय वस्तु’क दृष्टिसँ पौराणिक, ऐतिहासिक आ सामाजिक। एहि श्रेणीक अन्त र्गत मैथिलीमे प्रचुर परिमाणमे नाटकक लिखल गेल अछि। पौराणिक नाटकादिमे लालदासक सावित्री-सत्यावान (1908), आनन्द झाक सीता स्वथयंवर (1938) महावीर झा वीरक शम्भूर वध (1936), दामोदर झाक गन्धदर्व विवाह (1953) आ जीवनाथ झाक दुर्गाविजय (संवत् 2015) आदि नाटकादिक गणना कयल जा सकैछ। हमर ऐतिहासिक कहल जाय वला नाटकक इतिहाससँ प्राप्त् सामान्या विवरणादि आ सुनल सुनाओल विषयादि एवं जनश्रित आदिपर आधारित अछि। ऐतिहासिक पुरुष विद्यापतिक जीवनसँ सम्वद्ध रहबाक, कारणेँ एकरा ऐतिहासिक नाटकक नहि कहल जा सकैछ। ईशनाथ झा (1907-1965) रचित उगना (1956), विद्यानाथ रायक विद्यापति (1959) आ ब्रजकिशोर बर्माक कण्ठ हार एवं जीवनाथ झा रचित वीरनरेन्द्रत (1956) क चर्चा कयल जाइत अछि।

सामाजिक नाटकक तेसर कोटि सामाजिक नाटकादि थिक। एहि नाटकक सभक कथा सर्वथा वर्त्तमान युगक थिक। एहि श्रेणीक नाटकक दू रूप अछि-प्रतीक नाटकक आ समस्यात नाटकक। प्रतीक नाटकक शशिनाथ झा रचित कलिधर्म प्रकाशिका (1911-12) तथा साहित्यक रत्नाझकर मुंशीधुनन्दपन दास रचित मिथिला नाटकक (1920-22) अबैत अछि। एहि नाटकादिमे वर्त्तमान युगीन कतिपय समस्यािदिपर विचार कयल गेल अछि। सामाजिक नाटकक दोसर रूप थिक समस्याि नाटकक। एहिमे नाटकादिक अन्तकर्गत कतिपय सामाजिक समस्याादिकेँ उठाओल गेल अछि। एहिमे समाजमे फैलल विभिन्नत विरूपता, रूढ़ि, सामाजिक अपराध विषमता, राष्ट्री य चेतना, सत्यारग्रह आन्दो,लन आदिकेँ मुख्यम आधार बनाओल गेल अछि। एहन नाटकादिमे ईशनाथ झाक चीनीक लड्डू (1937-39), शारदानन्द झाक फेरार (1950), गोविन्दभ झाक बसात (शाके 1820), राजा शिव सिंह (1976), अन्तिम प्रणाम (1982) एवं रूक्मिणी हरण (1989), सुधांशु शेेखर चौधरीक भफाइत चाहक जिनगी (1975) ढ़हैत देवाल / लेटाइत ऑंचर (1976), पहिल सॉझ (1982) एवं लगक दूरी (1992), महेन्द्र मलंगियाक लक्ष्म ण रेखा खण्डित (1970), एक कमल नोरमे (1970), जुआयल कनकनी (1972), ओकरा आङन बारहमासा (1980), कमला कातक राम लक्ष्म9ण ओ सीता (1981), काठक लोक (1987), गाम नई सुतैए (1993) एवं ओरिजनल काम (2000), सोमदेवक चरैवेति (1982), उदयनारायण सिंह नचिकेताक नाटकक नाम जीवन (1971), एक छल राजा (1973), नाटकक लेल (1974), रामलीला (1974), प्रर्त्यावर्त्तन (1976) एवं नो इन्ट्रीि मा प्रविश (2008) अरविन्द4 अक्कू क तालमुट्ठी (1982), आगि धधकि रहल छै। (1981) एना कते दिन ? (1985), अन्हाारजंगल (1987), रक्त (1992), आतंक (1994), के ककर ? (1996) पढ़ुआ कक्काक अएला गाम (1998) बाह रे हम आ बाह रे हमर नाटकक (1998), गुलाब छड़ी (1999), राज्याभिषेक (2004), अलख निरंजन (2008), श्री गजेन्द्र ठाकुरजीक कुरूक्षेत्रम् अन्तर्मनक अन्तर्गत संकर्षण (2009), ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्यक झुमकी (1977) एवं तेसर कनियॉं (1986) मन्त्रेपश्व8र झाक प्रायश्चित (1994) एवं सौभाग्य्वती भव (1994), उदयचन्द्र झा विनोदक उदास गाछक वसन्तप (1992) रामभरोस कापड़ि भ्रमरक एकटा आ वसन्तत (2001), रोहिणी रमण झाक अन्तिम गहना (1989) राजा सलहेस (1990), कुमार शैलेन्र्द्क अग्निपथक सामा (2000), वनदेवी पुग्त्रह भवनाथक लीडर (1994), कुमार गगनक शपथग्रहण (2003), कमल मोहल चुन्नूूक नव घर उठे (2002), विनोद कुमार मिश्र वन्धु्क एकटा चिनमा (2006), छात्रानन्‍द सिंह झाक सुनू जानकी (2008) । इत्याुदि आधुनिक कालक चर्चित नाटकककार छथि। एहि कालावधिमे अनेक नाटकककार लोकनि नाट्य-साहित्य6क विकासमे अपन योगदान देलनि।

स्वाततन्त्र्योत्तर कालमे मैथिली-नाट्य-लेखनमे एहन सभ प्रश्नाकेँ नाटकीय रूप देबाक हेतु तत्पचर भ’ उठलाह जकर सम्बगन्धम युगसँ अछि जाहिमे ओ जीव रहल अछि आ एहि लेल आदर्शादिक काल्पतनिक एवं वायवीय जगतसँ सम्ब न्धम विच्छेओद क’ कए वास्तेविकताक धरातलपर पैर जमयबाक लेल मैथिली-नाटकककारकेँ पूर्ण वेगसँ गतिमान हैबामे नवीनता, ताजगी, प्रौढ़ता आ कलात्मदकताक मौलिक व्यतक्तित्व प्राप्त करबाक लेल संघर्ष करय पड़ल। अतएव दासतासँ मुक्तत भ’ कए आधुनिक नाट्य-लेखनक स्व र अपन सम्पूलर्ण सृजन प्रक्रियामे सामूहिक भारतीय मनक नव सन्दआर्भ अछि। सामाजिक यथार्थकेँ अभिव्य।क्ति देनिहार नाट्य–लेखनक क्षेत्रमे एहन औरो नाटकककार छथि जे नाट्य कृतिक सफलताक संगहि रंगमंचपर किछु सर्वथा नव क’ देखयबाक दृष्टिसँ साहित्यिकतासँ अधिक जनरुचिक आकर्षणपर विश्वातस रखैत छथि। आइ जे नाटकक लिखल जा रहल अछि, ओहिमे नाटकक कथ्यच आ शिल्पआक अन्तषर प्राचीन नाटकक तुलनामे व्याकपक भ’ गेल अछि आ एहि लेल ई नाटकक समकालीन सामाजिक यथार्थकेँ जनता धरि ल’ जाय चाहैत अछि, अत: कथा‍हीन नाटकक दर्शककेँ अधिकतम निकट अछि, कारण दर्शके होइछ जकर स्वीककृति रंगमंचीय आलोचनाक मानदण्ड बनैत अछि। दर्शक ओहीा स्थितिक दृश्य‍ रूपमे ग्रहण करैछ जे ओकर रंगमंचीय जीवनक लगपास घटैत अछि आ स्थिति सभक दृश्यृ बनययबामे नाट्यकारक सम्मुहख रंगमंच पूर्णत: परिकल्पित रहैत अछि। कथाहीन नाटकक रंगमंचीय असफलता प्रस्तुजतिकरणक आधुनिकतासँ सम्वद्ध अछि।

मैथिलीमे विशुद्ध एंकाकी-प्रहसन आ रेडियो रूपकक लेखनक सूत्रपात बीसम शताब्दी क चतुर्थ दशकसँ प्रारम्भप होइत अछि। साहित्य रत्नाशकर मुंशी रधुनन्दौनदास दूतांगद व्यादयोग (1933)क रचना क’ कए एकांकी-लेखनक परम्परराक सूत्रपात कयलनि जे आइ एक स्वुतन्त्रय विधाक रूपमे विकसित भेल अछि। वर्त्तमान युग एकर विकासक लेल अधिक उर्वर सिद्ध भेल अछि। मैथिलीमे अनेक एकांकीकार लोकनि एकांकी प्रहसन आ रेडिया रूपकक रचना कए एहि विधाकेँ सम्पुतष्टु करबाक दिशामे सहभागी बनलाह अछि। वस्तुरत: ई नवयुगक उपज थिक, अतएव एहिमे संस्कृ्त एकांकीक विधान कम भेटैत अछि। एकांकी, प्रहसन आ रेडियो रूपकक लोकप्रियताक फलस्व्रूप अधिकाधिक संख्याधमे साहित्यउ-मनीषी एहि विधाक अन्तकर्गत कतिपय संग्रह प्रकाशमे आयल अछि यथा तन्त्रकनाथ झा (1909-1994)क एकांकी चयनिका (1949) परमेश्वछर मिश्रक त्रिवेणी (1950) चन्द्र नाथ मिश्र अमर (1925)क खजबा टोपी (2006), बाल गोविन्दन झा व्य1थित, (1932-2002)क त्रिपथगा (1968), भाग्यटनारायण झा (1937)क सोनक ममता (1969), दिनेश कुमार झा (1941-2004)क सप्तभरश्मि (1971), उदयनारायण सिंह नचिकेताक जनक एवं अन्यद एकांकी (1978), रामदेव झा (1936)क पसिझैत पाथर (1989), रवीन्द्र राकेशक अन्त(र्ज्वाल (1991), सुधांशु शेखर चौधरीक हथटुट्टा कुरसी (1992), महेन्द्र मलंगियाक टूटल तागक एकटा ओर (1983), मन्त्रेुश्वपर झाक समारोह (1991), धूर्त्तनगरी (1993), बहुरूपिया (1993) एवं पराजय (1994) आ ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्यक अनमिल आखर (2000) इत्यावदि।

एकांकी, प्रहसन आ रेडियो रूपकक प्रणेतादिक मानसिक क्षितिजक विस्तायर भेलनि, जनिका नव चेतना भेटलनि, नव दिशामे अग्रसर हैबाक प्रेरणा भेटलनि, नव दृष्टि भेटलनि तनिका हम प्रतिनिधि एकांकीकारक रूपमे उद्घोषित कयलहुँ अछि। एहन रचनाकारक कृतिमे नव प्रवृत्तिक प्रति आग्रह अछि। मैथिलीक साहित्यलकार लोकनिक मानसिक क्षितिजक विस्तािर भेलानि आ हुनक नाट्य-कला सम्बीन्धीँ मान्यकतादिमे क्रा‍न्तिकारी परिवर्त्तन भेल। मैथिलीक ई सौभाग्यी रहल अछि जे अधिकांश साहित्यद चिन्तिक एकहि संग एकांकीकार, रेडियो रूपककार आ प्रहसनकार सेहो छथि। अतएव एहि विधाक अन्तकर्गत प्रतिनिधि रचनाकार भेलहि कुमार गंगानन्दय सिंह (1878-1770) हरिमोहन झा, तन्त्रकनाथ झा, ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्य, सुधांशु शेखर चौधरी, गोविन्दा झा, चन्द्र्नाथ मिश्र अमर, रामदेव झा, मन्त्रेंश्वोर झा आ महेन्द्रद मलंगिया आदि उल्लेनखनीय छथि।

मैथिली एकांकी, रेडियो रूपक आ प्रहसनक उदयकेँ ल’ कए अद्यतन प्रकाशनसँ प्रतीत होइत अछि जे ई विधा अपन उन्नरतिक शिखरपर पहुँचि गेल अछि। रचनाकार सामाजिक, राजनीतिक आ मनोवैज्ञानिक समस्यापदिकेँ ल’ कए सोझरयबाक संगहि-संग नव विचार, समसामयिक जीवनक समस्याक आ ओकर समाधान एवं जीवन-मूल्यवक आलोचना, राष्ट्रा, मातृभूमि तथा मातृभाषाक प्रति सम्मांन आ नव राष्ट्र क निर्माणक प्रेरणा रचनाकार लोकनि देलनि अछि। एहि विधामे वर्त्तमान युगक आशा आकांक्षा, कुंठा-संत्रास, द्वन्द्व एवं जिजीविषाकेँ अभिव्य क्ति देल गेल अछि। वैचारिक आ विषय-वस्तुाक नवीनताक कारणेँ नव-नव शिल्प्क एकांकी, रेडियो रूपक आ प्रहसन दृि‍ष्टगत भ’ रहल अछि।

नाटकक क्षेत्रमे नव आन्दो’लनक फलस्वारूप मैथिली रंगमंचक विकासमे गति आयल अछि। स्वाकतन्त्र्योत्तर युगमे रंगमंचक सम्ब न्धंमे चिन्तयन-मननक नव आभासक स्रोत प्रवाहित होमय लागल अि‍छ। नाटकककेँ मंचोपयोगी बनयबाक लेल रंगमंचीयताक अपेक्षित तत्व जेना दृश्य्-विधानक संक्षिप्तन आ सन्तुंलित स्वमरूप, संक्षिप्त सरल जीवन, स्वावभाविक एवं पात्रोचित संवाद, रंग-संकेत, संगीत एवं काव्यि-तत्वतक संतुलित प्रयोग मैथिली नाटकादिमे भेल अछि। यद्यपि मैथिलीमे व्या-वसायिक रंगमंचक अभाव रहल अछि, तथापि अव्या वसायिक रंगमंचक कलाकार लोकनि एकरा प्राणवन्तअ बना देलनि अछि। एहि दिशामे कोलकाता स्थित संस्थापदिमे मिथिला कला केन्र्छि (1960), मैथिली रंगमंच (1966), अखिल भारतीय मिथिला संघ (1963), कूर्मि-क्षत्रिय-छात्र-वृत्तिकोष (1968), मिथि यात्रिक (1971), आल इण्डिया मैथिल संघ (1973), मिथिला-मित्र-संघ (1974), कर्ण गोष्ठीकक जयन्ति लोक मंच (1983) आ कोकिल मंच (1990) सदृश रंगकर्मी संस्थामदि नव नाट्य आन्दो6लनमे अनेक नाटकककारकेँ एहि दिशामे प्रेरित कयलक। रंगमंचक क्षेत्रमे चेतना समिति पटनाक नाट्यमंच (1972), अरिपन (1987), भंगिमा (1984), आङन, नवतरंग, कला समिति आदि रंगकर्मी लोकनिक सहयोगक फलस्विरूप एकर विकास तेजीसँ भ’ रहल अछि। रंगमंचक क्षेत्रमे एकर विकास मात्र मिथिलांचले धरि सीमित नहि रहल, प्रत्युत पड़ोसी राष्ट्रथ नेपालमे सेहो एकर विकास भेल जाहिमे चित्रगुप्ते सांस्कृलतिक केन्द्रग जनकपुर धाम, मिथिला नाट्य कला परिषद नेपाल, भानु कला केन्द्र विराट नगर इत्या्दि रंगकर्मी संस्थामदिक सहयोग रहल अछि। मिथिलांचलक पड़ोसी प्रदेश झारखण्डगमे सेहो एकर विकसित स्वगरूपक अवलोकन होइत अछि जाहिमे मिथिलाक्षर जमशेदपुर, मैथिली कलामंच बोकारो स्टीवल सिटी. मिथिला सांस्कृदतिक परिषद् बोकारो स्टी ल सिटी इत्याकदि उल्ले खनीय अछि।
लोकनाट्य
जीवनमे लोक आ साहित्यवक सर्वातिशायी महत्व‍ अछि। लोक शब्दम अत्यथन्त् प्राचीन अछि। आधुनिक सभ्य‍तासँ दूर, अपन प्राकृतिक परिवेशमे निवास कयनिहार तथाकथित अशिक्षित एवं असंस्कृ‍त जनताकेँ लोक कहल जाइछ जकर आचार विचार एवं जीवन परम्प रायुक्तक नियमसँ नियंत्रित होइछ। लोक समाजक ओ वर्ग थिक जे अभिजात्यप संस्काुर, शास्त्री यता, पांडित्य्क चेतना आ पांडित्य क अंधकारसँ शून्यय अछि जे एक परम्पृराक प्रवाहमे जीवित अछि। एहन लोकक अभिव्यसक्तिमे जीवनक जे तत्वृ भेटैत अछि ओ हमर साहित्यवक विकासक अवरूद्ध मार्गमे नव गति प्रदान करैत ओकरा संवर्द्धित करबामे अहं भूमिकाक निर्वाह करैत अछि। एहिमे जनजीवनक वर्त्तमान स्व रूपक उपस्थाहपन अत्यहन्तय मूलत: एकर पात्र समकालीन स्थितिक संकेत करैत अछि।
लोकायतनक समस्तक विधा समवेतमे लोक नाट्यक अत्यपन्त‍ महत्वसपूर्ण स्थाडन अछि जे अनेक रूपमे लोकजीवनक स्वास्थल मनोरंजन करैत आयल अछि। मिथिलांचलक लोकनाट्य एहि साहित्य्क अमूल्या निधि थिक जाहिमे हमर सांस्कृचतिक जीवनक आंचलिकता प्रचुर परिणामे उपलब्धम अछि। वस्तुछत: लोकजीवनसँ स्वृत: उद्भाषित लोकनाट्य ओहि क्षेत्रक सांस्कृतिक चेतनाक धरोहरि थिक। एहि सांस्कृवतिक चेतनासँ निष्प न्न मैथिली लोकनाट्य हमर जीवन आ साहित्यिक अविभाज्यत अंग अछि।
लोक जीवनक स्वातभाविक अभिव्यचक्ति लोकनाट्यमे भेल अछि। लोकनाट्यमे गीत, संगीत एवं नृत्यिक त्रिवेणी प्रवाहित भेल अछि। गीतक संग संगीतक योजना अत्यतधिक आनन्दभ प्रदान करैत अछि; किन्तुस एकरा संग नृत्य् सेहो हो तँ आनन्दरक सीमा अनन्तन भ’ जाइछ। कालिदासक अनुसारेँ नाट्य जनमनक अनुरंजनक सर्वोत्कृतष्टद साधन थिक। लोक जीवनमे एहि नाट्यक सर्वातिशायी महत्वं अछि जकरा देखि क’ प्रसन्नथताक अनुभव करैछ। जहिना भोजपुरीक
विदेशिया, गुजरातक गर्वा एवं भवाई, मालवाक माच बंगालक यात्रा एवं गंभीरा, महाराष्टृतक तमाशा आदि लोकनाट्यमे गीत, संगीत एवं नृत्यवक त्रिवेणी प्रवाहित भेल ताहिना मिथिलांचलक लोकनाट्यमे सेहो उपर्युक्ती त्रिवेणीक अद्भूत समन्व्य भेल अछि।

लोकनाट्य लोकजीवनक सारगर्भित भावसँ सम्पिन्नु तत्का्लीन युगक प्रवृत्तिक मौलिक आख्यान करैत अछि। जीवनक कोनो परिस्थितिमे एकर सभक अभावमे क्योक जीवित नहि रहि सकैछ। लोक मानस अपन प्रवृत्तिकेँ मनोरंजकता प्रदान करबाक हेतु एक नव आयामक व्यहवस्था कयलक जे कालान्तकरमे साहित्यब-विधाक रूपमे विकसित भेल। लोक जीवनसँ संबंधित विविध मांगलिक अवसर यथा पावनि-तिहार, धार्मिक, सांस्कृमतिक लोकोत्साव आदिक विशेष परिस्थितिजन्यत प्रक्रियासँ उद्भूत सामाजिक, धार्मिक एवं सास्कृगतिक चेतनाक परिणाम थिक मैथिली लोकनाट्यक लोकधर्मी वैशिष्ट्य ।
लोक महत्वी:
नाट्यशास्त्र क टीकाकार अभिनवगुप्ता चार्य धर्मी शब्दमकें व्या्ख्यापयित करैत अपन मतक स्पसष्टीटकरण कयलनि जे अभिनय लोकधर्म वा लोकमूलक लोकोपयोगी सामयिक तत्वोक अनुकरण करैछ।1 नाट्याचार्य भरतक मान्यकता छनि जे अभिनयमे मात्र अभिनेतेक प्रमुखता नहि रहैछ, प्रत्यु्त श्रोता एवं दर्शककेँ लोकशास्त्रयक ज्ञान अपेक्षित अछि। लोकाचार, लोकभाषा तथा लोक-शिल्प्क ज्ञाता दर्शक नाटकक वा अभिनयक वास्त।विक आनन्दै प्राप्तो क’ सकैछ। एहि प्रकारेँ नाटककमे वेद, आध्याकत्मा, व्यारकरण, शास्त्र एवं छन्दकशास्त्र क समन्वित दर्शन होइत अछि जाहिमे लोक मान्यसताकेँ जीवन एवं साहित्य,सँ अन्यो्न्यांश्रय सम्बतन्ध स्थािपित भ’ जाइत अछि। अतएव नाटकक सफलता वा विफलतामे लोकरुचि अत्य न्तय महत्व्पूर्ण भूमिकाक निर्वाह करैछ।2 एहि प्रसंगमे नाट्याचार्य भरतक मत छनि जे शास्त्रव, धर्म, शिल्पा तथा लोक-क्रिया, लोक धर्म प्रवृत्त रहैछ तकरे नाटकक कहल जाइछ। नाटकक लोकवृत्तिक अनुकरण करैत चलैछ। भरत लोक वृतान्तोक अनुकरण क’ कए नाटकक निर्माण कयलनि।3
लोक सब कार्यक अनुदर्शक अछि। वस्तु।त: लोक जीवनसँ सम्वद्ध नाट्य एवं शास्त्रक सम्मशत नाट्यमे कोनो अन्त:र नहि अछि। आदि आचार्य भरत एवं हुनक व्यातख्या्कार अभिनव गुप्त क कथिन छनि जे लोकातीत अनुभवसँ नाट्य रसक प्राप्ति होइछ। भरत कालीन भारतमे साहित्यअ वा नागरिक नाट्य एवं ग्रामीण नाट्यमे कोनो अन्त।र नहि छल। ई अन्तवर तखन आयल जखन नाटकक राजदरबारमे संरक्षित भेल। नाटकक सर्व संग्रही नाट्य परम्पनराकेँ गतिशील रखबाक हेतु गुप्त कालक पश्चा त् प्रयोक्तां एवं नाट्याचार्यक प्रयाससँ आंचलिक एवं अनौपचारिक नाट्य-शैलीक उद्भावना भेल। एहि प्रकारेँ नाट्य-सिद्धान्तवक प्रतिपादक एवं नाट्य लेखनक एक एहन श्रेणी बनल हैत जाहिमे नाट्याचार्य, निर्देशक तथा प्रयोक्ता्क एक स्वएतन्त्रै वर्ग रहल होयतैक। लोक जनसाधारणक रुचि एवं नाट्यकेँ लोक मानसक प्रतिपादक रहल होयतैक। तत्परश्चाहत लोकनाट्य अपन वास्त्विक रूपमे सोझॉं आयल।4
लोकधर्मी नाट्यक स्रोत एवं क्षेत्र:
लोक जीवनक सहज संस्कातर लोकधर्मी नाट्यक सहस स्रोत थिक। एहिमे आपसी प्रेम भाव, धार्मिक अनुष्ठाधन, मेला-ठेला, व्रत-त्यौकहार तथा विविध सुख देनिहार लोकानुरंजनक मूलभूत विन्दुि थिक। एहीसँ लोकधर्मी नाट्यक अन्तम: सलिला प्रवाहित भेल। एकर स्रोत सामूहिक जीवन, टुटैत-जुटैत आ विकसित होइत अपन रूढ़ि परम्पारा तथा प्रवृत्तिकेँ सुरक्षित रखने अछि तथा ई वाह्य वातावरण क’ कोनो प्रभाव नहि पड़य देलक। एकर सृजन, प्रणयन प्रयोग एवं प्रवर्त्तनमे लोकजीवनक योगदान अछि जे सहित्यिक विशिष्टक अंग अछि। एकर प्रणयनमे प्रकृतिक विशाल कोरासँ अनायासहि एकर उत्पित्ति भेल। मेघक गर्जन, बिजलीक चमकब एवं गर्जब, प्रलयंकारी स्विरूप, मेघ बरसब, मोर नाचब, पतझड़, वसंत, हेमन्तन आदि ऋतु प्रकृतिक अनन्ति असीम लोकनाट्यक उद्गम एवं विकासक मूलाधार अछि जे लोक जीवनसँ नि:सृत भ’ साहित्यसक विशिष्टज अंग बनल।5

लोकनाट्यमे एखनो अवशिष्टस अछि तत्काएलीन परिस्थितिक सुकुमारता एवं सुग्राह्यता। आेहिमे लोक जीवनक महत्वाक प्रतिपादन भेल अछि तेँ एकरा लोकप्रिय होयब सवर्था स्वा‍भाविके। एकर काव्यप भाग एवं प्रयोग भाग लोकधर्माश्रित अछि। लोकनाट्यमे जनसामान्य क अर्थात, लोक मनोरंजनमे हमर जीवनक, प्रतिबिम्ब् भेटैछ जे साहित्य क अविभाज्या अंग अछि। एहि नाट्यक उत्पहत्ति लोक-विश्वा्स, लोक प्रचलन, धार्मिक रूढ़ि, जन परंपरा वीर पूजा, मनोरंजन, उत्स,व, मांगलिक पर्व एवं लोकादि अवसरक धारणाक बीचमे भेल। अतएव लोकनाट्यसँ तात्पार्य नाटकक ओहि स्वअरूपसँ अछि जकर सम्ब न्धा विशिष्ट शिक्षित समाजसँ भिन्नन सर्वसाधारणक जीवनसँ अछि जे परंपरा अपन क्षेत्रक जनसमुदायक मनोरंजनक साधन रहल अछि।6 एहिमे जनसामान्यसक चाहे गामक होथु वा शहरक एतबे विशेषता अछि जे ओ शिक्षा-दीक्षा, पहिरब-ओढ़ब, खान-पान, आचार-विचार, संस्काखर तथा व्यववहारमे ओहि क्षेत्रमे प्रतिनिधि संस्कृयतिक प्रतीक रहथु एवं देशक जनसाधरणक मूर्त्त रूपमे स्प ष्टर अछि।7

लोक-नाट्य कोनो जाति विशेषक संपत्ति नहि, प्रत्युअत एकर क्षेत्र, जाति, समूह, गॉंव, जिला, प्रान्त्व्या पी प्रभाव थिक। एहि प्रकारेँ साहित्यिकेँ परिपोषणक हेतु एहि नाट्य-परम्पिरामे अपन जनपदीय संस्कृकति, अनुश्रुति, प्रचलित परंपरा, रूढ़ि किंवदन्ती , विश्वाीस, मान्यपता एवं धारणाक सांगोपांग रूपमे परिवेष्ठित अछि। अतएव ई एक क्षेत्र अपन जनपद विशेष धरि सीमित रहैत अछि। एहिमे भौगोलिक स्थिति, नृत्यक,संगीत तथा कथा बीज सेहो अपन-अपन क्षेत्रक रहैत अछि। वस्तुमत: लोकनाट्य समाजक सभ्यप एवं सुसंस्कृ त कहोनिहार लोकसँ सर्वथा भिन्ा्है सभ्य:ताकेँ चोरौनिहार वाह्य आडम्बंर एवं उपचारसँ अनभिज्ञ अपन रूढ़ि अर्थमे पूर्ण तथा शिक्षित एवं सुसंस्कृवत होइत अछि।8 लोक जीवनक परंपरा युगक अभीप्साि, अभिरुचि आ मान्यअताक अनुसारेँ ई निरन्तकर प्रवहमान रहल अछि।9

लोकनाट्य हमर परम्प रापक धरोहर थिक। मुसलमानक आक्रमणक फलस्व्रूप एहि परम्पटराक शनै:-शनै: ह्रास होमय लागल। एहना स्थितिमे ग्रामीण परिवेशमे ई परम्पारा सुरक्षित रहल।10 एकर क्षेत्र अत्यकन्तम व्यासपक अछि। लोकधर्मी नाट्य जाति विशेषक संपत्ति थिक जे समुदाय विशेषक प्रतिनिधित्वग करैछ। एहि प्रकारेँ ई नाट्य-विधा हमर गामक संपत्ति थिक जे अपन जनपदीय, संस्कृ।ति, रूढ़ि, विश्वा स, मान्यकता एवं धारणाक सांगोपांग रूपमे परिवेशिष्ठित कयने एकर क्षेत्र जनपदे धरि सीमित रहि गेल।11 भौगोलिक स्थितिमे नृत्यष, संगीत तथा कथा बीज सेहो अपन विशिष्टह क्षेत्रमे प्रचलित अछि।
रचना–विधान:
लोकनाट्यक रचना-विधान शास्त्रीिय नियमानुसार नहि होइछ। एहिमे लोक परंपरा तथा चिर विकसित नाट्य-रूढ़िक सर्वाधिक महत्व अछि। तात्विपक दृष्टिएँ गीत, नृत्यि, पुराण तथा यथार्थ जीवनक प्रसंग लोक-जीवनक कथानक प्रधानता अछि। एहिमे जीवन एवं प्रकृतिक सहज प्रति छवि होइछ। जीवनक विविध आनन्दनदायक तत्वीक सर्वाधिक महत्ता एकर प्रमुख स्ववर थिक।12 एकर वेशभूषा एवं श्रृंगार प्रसाधनमे कोनो प्रकारक तामझामक आयोजन नहि कयल जाइछ।
सामाजिक मान्यंता :
लोकनाट्यक सामाजिक मान्य ता अछि। एहिमे अनेक समस्या।क विविध स्व्रूपक विश्ले्षण कयल गेल अछि। ई हमर सामाजिक इतिहासपर महत्वयपूर्ण प्रकाश दैत अछि, कारण धर्म, नियम एवं सामाजिक परंपराक कठोरताक विरूद्ध नाट्य-कलाक संघर्ष चलि रहल छल।13 लोक स्वंभाव एवं लोक-व्यधवहारक सुख-दु:खक अभिव्य क्ति एहिमे भेल अछि। वस्तुकत: मनुष्याक सहज भावक अभिप्राय विशेषसँ एकर अभिनय प्राणवन्ते भ’ गेल अछि। एहिमे सामाजिक जीवनक सारगर्भित अभ्युभदयक युगानुरूप विकासक यथार्थता प्रस्तुात कयल गेल अछि। एकर सुदीर्घ परम्पभरा आ क्षेत्रीय सरलताक कारणेँ ई जनजीवनक अत्य धिक सन्निकट रहल अछि। ई समाजक जीवन-शैलीमे सामूहिकता तथा लोकानुरंजकताक प्रति पूर्ण प्रतिवद्ध अछि। ई लोकजीवनसँ समूहगत दायित्वनसँ परिपूरित मनोरंजनक उत्सिवकें ल’ कए अबैत अछि जे लोकजीवनक सम्प र्कमे पल्लतवित-पुष्पित भेल अछि। मिथिलांचलक लोकनाट्य समाजशास्त्रीक दृष्टिएँ, अन्तू: संबंधक अध्यंयनक दृष्टिएँ अत्यलधिक महत्वापूर्ण अछि। सामाजिक ओ सांस्कृ्तिक परिप्रेक्ष्यभमे प्रदर्शनक रूपमे ई सभ नाट्य अधिक जनरुचिसँ सम्पोमषित जनकल्या णक भावनाक हेतु पूर्ण प्रतिबद्ध अछि। मानव जातिक विकासक क्रमिकतामे लोकनाट्य रहि नर-नारीक आत्मामनुभूतिकेँ स्पोष्टरतासँ मुखरित करैत रहल अछि।
मिथिलांचलक लोकनाट्य :
सम्पूार्ण मिथिलांचल ग्रामीण क्षेत्र अछि। ग्राम्यम जीवनक प्रमुखताक कारणेँ लोकजीवनक जतेक भव्यम स्वतरूप एहिमे उपलब्ध। अछि ततेक अन्य त्र दुर्लभ अछि। वस्तुवत: मिथिलांचलक ग्रामीण जीवन सभ्य‍तासँ पृथक अछि तकर परिणाम एतबा अवश्यव भेलैक जे ओ अपन प्राचीन स्व्रूपकेँ तद्वत सुरक्षित रखने रहल। एकर, रूप, रंग एवं रसमे अद्यावधि कोनो परिवर्त्तन नहि भेल अछि। भौगोलिक दृष्टिसँ मिथिलाक बनाबटि एहन अछि जे एकर उर्वर भूमि हमर संस्कृततिकेँ यथावत सुरक्षित रखने अछि। एहन बनाबटि लोकनाट्यक हेतु सर्वथा अनुकूल अछि। इएह कारण अछि जे एतय अनेक लोकनाट्य सुरक्षित रहल। एहि भूमिमे लोकनाट्यक विविधताक दर्शन नहि होइछ। एक समान भूमि नाट्य रूपकेँ सीमित एवं संकीर्ण बनबैत अछि। नाट्य विविधता तथा विकासशीलताक हेतु भूमिक विविध रूपता आवश्य क प्रतीत होइछ। हमर लोकनाट्यक विशाल, सुदृढ़ एेतिहासिक परम्पतरा अछि।
लोकमंच आ लोकनृत्यर :
मिथिलांचलक विकास कहिया भेलक ई एक अहं प्रश्नू अछि। मिथिलांचलक ई सौभाग्यआ रहल अछि जे लोकमंचक माध्य्मे पृथक्-पृथक् क्षेत्रमे लोकारंजनक रूपमे ई जीवित रहल। लोक जीवनमे सुरक्षित ई रंगमंच ने तँ मात्र विशाल भूभागमे रंगमंचीय निरन्तीरता बनौने रहल, प्रत्युित संस्कृगत रंगमंच तथा सहज स्वाईभाविक स्थांनीय लोकनाट्य परंपराक एक मिश्रित समन्वित रूपकेँ शताब्दी् धरि अक्षुण्ण राखलक। मैथिली रंगमंचक अध्य यनक ई एक पक्ष अछि जे मैथिलीक प्राचीन महत्व।पूर्ण कला रूपमे पुनरूद्धार एवं पुनरूज्जी वन प्राप्त् कयलक।

लोक मंचक दृष्टिएँ मिथिलांचक प्रचलित लोकनृत्यवक महत्व‍पूर्ण स्थाोन अछि। लोकनृत्य वस्तुरत: प्राकृतिक नृत्यत थिक। लोक जीवनमे जतय कतहु भावुकताक क्षण अबैछ ततय ओकर अनुकूल कोनो–ने–कोनो नृत्ययक रूप प्रकट होमय लगैछ।14 लोकनृत्योमे मिथिलांचलक सांस्कृयतिक अन्तलरात्माभक प्रतिध्वननि गुंजित होइत अछि तथा एकरा माध्यतमे लोक जीवनक दृश्यत हमरा समक्ष अबैत रहल। एहन नृत्य4क कथानकमे नैसर्गिक सुन्‍दरता एवं उल्लारस एवं जीवनमे परिव्याुप्तध व्यानपक दरिद्रतापर आधारित होयबाक कारणेँ अत्यरधिक मर्मस्पमर्शी, भाव-पूर्ण आकर्षक अछि। वस्तुदत: लोकनृत्या हमर दुखमय जीवनकेँ सुखमय बनयबाक प्रयास करैछ। विशेषत: मिथिलांचलक लोकनृत्यन एतेक प्राणवन्तज अछि जे सतत हमर जीवनकेँ सुखमय बनौने रहल अछि।

अति प्राचीन कालहिसँ मिथिलांचलमे एहन लोकनाट्यक प्रचलन रहल जे समय-समयपर ओहिमे परिवर्त्तन, परिवर्द्धन आ परिमार्जन होइत रहलैक। एहि नाट्य प्रदर्शनमे वेशभूषा एवं श्रृंगार प्रसाधनक कोनो प्रयोजनक नहि पड़ैछ। पमरिया एवं नटुआक नाचमे घघरा अचकन एवं मुलतानी पगड़ीक प्रयोग कयल गेल अछि वर्त्तमान शताब्दीअमे।15

यद्यपि मैथिली लोकमंचक स्वारूपक प्रसंगमे कोनो ठोस प्रमाणक अभाव अछि, किन्तु एतबा निर्विवाद अछि जे मिथिलामे गीत काव्यपक उद्भव मनुष्युक वाणीक संगहि भेल। एतदर्थ मनुष्यव जीवनसँ संबद्ध जीवनक प्रत्ये्क सुख दु:खक अवसर पर एकरा माध्यदमे जीवनक चरम उद्देश्यंक पूर्त्तिक प्रयास कयल गेल जकर दिग्दरर्शन मिथिलांचल गोसाउनिक एवं पितरक गीतमे उपलब्ध् अछि। मिथिलाक लोकजीवनमे रागात्माक प्रवृत्तिक व्यामपक संबंध मात्र उपनयन, विवाह आदिमे नहि रहि, कन्या्क विदागरी कालक रागात्म‍क रूदन एवं मृत्यूरपरान्ति क्रन्दिनमे सेहो परिलक्षित होइछ।
मैथिली लोकनाट्यक प्रकार :
मिथिलामे निम्न।स्‍थ लोक नाट्यक अनुष्ठापनगत परंपरा प्रचालित अछि जहिमे लोकमंचक स्वमरूपक दिग्द र्शन होइछ यथा दसौत, सामा-चकेवा, झिझिया, जट-जटिन, झुम्िरूपर, रमखेलिया, डोमकछ, लोरिक, सलहेस, गोपीचन्द-, विदापत, हरिलता एवं बिहुला आदिक उल्लेरख लोकनाट्यान्त,र्गत कयल जाइछ। एतदिरिक्तो एतय अन्यह प्रचलित लोकनाट्य अछि यथा चौपहरा, नारदी, नयना-योगिन, भाव, झड़नी, पमरिया आदिक उल्लेअख सेहो भेल अछि जाहि दिशामे अनुसंधानक प्रयोजन अछि।
दसौत :
दसौतमे वर-कनियाकेँ लोक-जीवनसँ सम्वद्ध माया, मोह, आदिसँ अवगत करबाक हेतु एकर नाट्यायोजन कयल जाइछ। मानव जीवनक कटु दिग्द्र्शन एवं लोक जीवनसँ सम्वद्ध ज्ञानक अर्जन एहि नाट्यक उद्देश्यं अछि जकर स्‍वरूप लोकगीतमे सुरक्षित अछि।
सामा-चकेवा :
सामा चकेवा-लोक नाट्यक संबंध्‍ा मूलत: कृषिसँ अछि। एहि लोक नाट्याभिनयक द्वारा बहिन अपन भायक धनक अभ्युमदयक कामना एवं हुनका घरमे धनधान्यछक कल्परनाकेँ साकार करैत लक्ष्मीुक आह्वान करैत अछि। आनुभाविक बुद्धिक आकुल चेष्टा सँ सामाजिक अंकुश दग्धम होइछ। यौवनमे सौन्द र्यक पूर्ण विकास होइछ, आत्मााक चिरन्तिनक ध्वमनि बनि जाइछ जे पतिहीना नारीक हेतु अभिशाप थिक। एकर कथोपकथनमे नारीक वास्तनविक रूपक दिग्द र्शन होइछ।बहिनिक प्रति भायक अवलम्ब न तँ रहि‍तहि छैक, मुदा नारीक त्यादगक भावना, पिताक सम्पटत्तिमे भातीजक अधिकार तथा मात्र मोटरीक अंशपर संतोषमे आसक्तिक विरोध तथा विरिक्त् भोगक विशिष्टा विचारक अभिव्य क्ति सिनुर केर आसमे सन्निहित अछि।17 एहि नाट्याभिनयक परिपाटी मिथिलांचलक प्रत्ये क वर्गमे प्रचालित अछि जे एकर सर्वव्यानपकताक द्योतक थिक। एकर स्व रूप गीतात्मअक अछि।
झिझिया :
झिझिया लोक नाट्याभिनयक रूप आन लोकनाट्याभिनयसँ सर्वथा भिन्नर अछि। एहि लोक नाट्याभिनय द्वारा डााइन-योगिनक साधनामे व्यनवधान उपस्थित कयल जाइछ। एकर स्व्रूप सेहो गीतात्म क अछि।
जटजटिन :
जट-जटिन पद्यबद्य लोकनाट्य थिक। एहि लोक नाट्यक कथानक लो‍कजीवनक वैवाहिक जीवनक विविध समस्याय, सुख-दु:ख पुरुषक पाशविक बलात्का-री प्रवृत्तिक बर्बरता, यौवनक विषम समस्यााक अन्त,र्ध्वननि एवं जीवनक विविध अनु‍भूति एहिमे स्वारभविक रूपेँ चित्रित भेल अछि। एहि लोकनाट्यमे अन्तरर्द्वन्द्व क प्रमुखता अछि।18 एकर प्रस्तािवनामे सहगान एवं नृत्यि सहित संवाद गीत द्वारा उत्सीवक उल्ला सक हेतु उद्दीपनक भावक प्रमुखता अछि। एहिमे उत्सयवक लालसाक संग जीवनक अन्त क आशंकाक शाश्वकत संयोगक मार्मिक उल्लेहख अछि जे दाम्प त्यत जीवनसँ सम्वद्ध घटनाक क्रमिक परिचय भेटैछ। एकर कथानक विवाहसँ प्रारंभ होइछ। एहिमे नारी स्वाटन्त्रचताक ध्वमनि अनुगुंजित होइत अछि। लोक मानसक माध्यआमे एहि लोकनाट्यमे हमर जीवनक झाँकी भेटैत अछि।

एहि लोक नाट्याभिनयोपरान्त। महिला द्वारा हर जोतबाक परम्पआरा अछि। अनावृष्टि भेलापर नग्न् स्त्री द्वारा हर जोतबाक तथा बेंग कूटिक अपन पड़ोसिक आंगनमे फेकबाक परम्पोरा सेहो अछि।19 वर्षाक अभावमे अकालक सांगोपांग चित्रण एहिमे उपलब्ध अछि। स्त्रीछ द्वारा हर जोतब, ब्राहमण द्वारा दैनिक कर्मक अवहेलना तथा सामन्त वादक विरोधी प्रवृत्तिक मार्मिक चित्रण एहिमे भेल अछि। एहिमे पतिक प्रति पत्नीतक शिष्टोता, व्य्वहार कुशलता एवं नम्रताक शिक्षा भेटैछ; किन्तु मुक्ता, स्व्तंत्र स्वाीवलंविनी तथा श्रमशीला सहचरीक चित्रांकन सेहो भेल अछि। अतएव जटिनक व्याीवहारिक जीवन वेसी स्वाचधीनता तथा समानाधिकार प्रिय अछि।20 जट स्वाीभावत: पत्नी पर अधिकार जमायब चाहैछ तथा पत्नीवकेँ मनोनुकूल बनाबय चाहैछ जे मुग्धाबक आचरणक सर्वथा प्रतिकूल अछि। एकर नाट्याभिनयकेँ अत्यँन्तन मनोरंजक बनयबाक हेतु रोहिदास एवं खोेदपाड़नीक गीत गाओल जाइछ। एहि लोक नाट्याभिनयक आयोजन हमर जीवनकेँ मुखमय एवं समृद्धिमय बनयाबाक निमित्त कयल जाइछ।एहि प्रकार नाट्याभिनय मात्र मिथिलांचलेमे सीमित नहि, प्रत्यु्त तमिलनाडु एवं मध्य प्रदेशक संगहि विदेशमे ब्रिटिश को‍लम्बियाक डॉमसन इन्डियनक बीच यूरोपमे सेहो प्रचालित अछि जकर चर्चा प्रेजर द गोल्डेिन वाउ मे कयने छथि।21
झुम्ि थिर :
मिथिलांचलमे झुम्मपरि लोकनाट्याभिनय प्रचलित अछि जे लोकजीवनक माध्य मे भाय-बहिनक उमड़ल स्नेलहमे परलक्षित होइछ। एहिमे नि:स्वातर्थ वात्साल्यय रस पूरित हृदयक, जे अपन बाल गोपालक मंगल कामनाक हेतु पैघसँ पैघ प्रलोभनकेँ लात मारि सकैछ। एहिमे बहु विवाहक धमकी, खाद्यान्न क अभाव, अनमेल विवाह, श्रृंगार प्रसाधन, मनोरंजन, आभूषण आदि विविध पक्षपर प्रकाश देल गेल अछि जे मानव जीवनमे स्थाएयी महत्वर रखैछ जाहिसँ स्प ष्टप होइछ जे प्राचीन का‍लहिसँ अद्यावधि एहि लोकनाट्याभिनयक महत्व् अछि। वर्त्तमान परिप्रेक्ष्यटमे एहि लोकनाट्यमे कतिपय परिवर्त्तन भेल अछि। एकर भाषा, भाव, शैली आ विषय समसामयिकताक कोमल साँचामे परिष्कृलत एवं परिवर्द्धित भेल जा रहल अछि।
रमखेलिया :
नेपाल तराई थारू एवं अहीरमे रमखेलिया सर्वाधिक प्रचालित लोकनाट्य अछि। एहि लोकनाट्यपर बंगलाक कृतिवासक रामायणक अधिक प्रभाव अछि। नेपालक उपत्योकामे देवीनाथ, ज्वापूनाच, महाकाली नाच आदिक अतिरिक्तक सराय केलाक छाउ नाचमे सेहो मुखौटाक प्रयोग होइत अछि। रमखेलियामे सेहो मुखौटा ओ अनेक उपकरणादिक प्रयोगसँ एकर प्राचीनता एवं समृद्धि परंपरा प्रतिभाषित होइत अछि। एकर संवाद गीतात्माक ओ गद्यात्मपक अछि।
डोमकछ :
डोमकछक शाब्दिक अर्थ होइछ डोमक स्वांतग। एकर अभिनय महिलाक द्वारा कयल जाइछ। एहिमे पुरुषक प्रवेश निषेध रहैछ। पुत्र विवाहक अवसरपर जखन घरक पुरुष वर्ग वरियात चल जाइत छथि तखन ओहि राति घर आंगनक ओ अड़ोस-पड़ोसक स्त्री गण राति भरि खेल-खेल (डोमकछ)मे जागि जाइछ तथा चोरीक भयसँ समाजक रक्षा करैछ। डोमकछमे विवाहक सामाजिक आवश्यंकतापर बल देल जाइछ। एकर कथोपकथन गीतात्माक ओ गद्यात्मबक दुनू संवाद मैथिलीमे उपलब्ध अछि। एहिमे विवाहक सामाजिक आवश्य कताक संकेत भेटैत अछि।
लोरिक :
लोरिक वा लोरिकायन मैथिली लोक कंठक अनमोल रत्नय थिक। एकर कथा पूर्वमे पूर्णियाँ उत्तरमे हिमपर्वत, दक्षिणमे गंगा तथा पश्चिमतमे ओदन्तकपुर बिहारमे चर्चित अछि। एहि लोक नाट्यक चर्चा वर्णरत्नाकरमे सेहो उपलब्धक होइछ।
सलहेस :
मिथिलांचल एवं पूर्वी नेपाल तराइक जनजीवनमे ई नाट्य अत्योन्त‍ प्रिय अछि। किन्तुह मो‍रंगिया सलहेस एवं मिथिलांचल परिसरमे प्रचलित सलहेसमे किछु भिन्न ता अछि। एकरो कथानक गद्य ओ पद्य दुनूमे उपलब्धस अछि। कतहु-कतहु कथोपकथन ओ दृश्य विधान मिश्रित गेल अछि। एहि लोकनाट्यमे विदूषकक चर्चा भेल अछि। सलहेसक संग सूरमा शब्दछक प्रयोग भेल अछि जे ओकर वीरताक थिक।
गोपीचन्दे :
प्रस्तु।त लोकनाट्य भारतक विभिन्न भूभागमे प्रचलित अछि, किन्तुक एकर उद्गमक श्रेय बंगालकेँ छैक। एकर कथानायक गोपीचन्द छथि। एहिमे मैनावतीक कार्यक्षमता ओ दीक्षित जीवनक प्रवाहपूर्ण वर्णन भेटैत अछि। एकर कथानकक सम्बथन्धि नाथ सम्प्रषदायसँ अछि जे सर्वशून्यैकेँ परम तत्वम मानैत छथि। एकर कथानक मिथिलांचल धरि सीमित नहि अछि, प्रत्यु।त आसामी, पंजाबी, गुजराती, मराठी एवं नेपालीमे सेहो उपलब्ा्ि होइछ जाहिपर बंगालक स्पाष्टव प्रभाव अछि। मिथिलांचलमे एहि लोकनाट्यक प्रस्तोहता रूपमे गुदरिया बाबाजी जानल जाइछ।
विदापत :
पूर्णियँा जिलामे विदापद नाट्यक आंचलिक परम्परा अछि। एकर प्रदर्शन मुक्तम रंगभूमिमे नृत्यत, संगीत ओ अभिनयक माध्य‍मे होइत अछि जकर मूलाधार अछि लोकधर्मिता जे पूर्वांचल समाजमे अपन अस्तित्वि अक्षुण्णत रखने अछि। कृष्णभ लीलाक साभिनय प्रदर्शनक कारणेँ विदापतमे एखनो अपूर्व भाव सौन्दजर्य, श्रुति माधुर्य, लोकानुरंजन एवं प्रभावोत्पाणदकता अद्यावधि सुरक्षित अछि। एहि लोकनाट्यमे शास्त्री य एवं लोक परंपराक अद्भूत सामंजस्यर भेल अछि। एहिमे लोकधर्म, लोकाचार तथा लोक आदर्शक प्रमुखता अछि।
हरिलता :
एहि लोकनाट्यमे चित्रसेन, बुद्धसेन ओ धर्माविलोकक प्रेम कथाकेँ अभिनय द्वारा प्रस्तुनत कयल जाइछ। लोकधर्मी नाट्यक सभ तत्वक एहिमे मुखर अछि। एकर संवाद पद्यमय ओ गद्यमय दुनू अछि। एकर भाषामे प्रवाह, शैलीमे सरलता तथा कथोपकथनमे सशक्त ता अछि। प्रेम गाथाक समायोजन तथा प्रस्तु तीकरणक उत्सल जेना लगैछ जे ओ संभवत: मध्येकालीन प्रेम कथाक विश्रृंखलित कड़ीक संकेत करैछ जे कालान्तओरमे लोकनाट्यक रूपमे प्रसिद्ध भेल।
बिहुला :
बिहुला महादेवक बेटी छलीह जे बारह वर्षक अवस्थाकमे वासुकी नागसँ परिणीता भेलीह। ओ गौरीकेँ काटैत छलीह आ पुन: मृत्युर मुक्तसक दैत छलीह। एहिसँ महादेव प्रसन्ने भ’ हुनका वरदान देलथिन जे चान्दो‍ बनियॉं द्वारा अहॉंक पूजा हैत। किन्तु चान्दोल बिहुलाक पूजामे अपन असमर्थता प्रगट कयलक जकर परिणाम भेलैक जे विषहरी चान्दोअकेँ चेतावनी देलथिन तथा ओकर पुत्र सर्प दंशसँ मरि गेल। अन्तरमे बाला कुमरक विहुलाक संग विवाहल गेल जे सर्प दंशसँ मृत प्राय छल; बिहुला अपन पतिव्रत धर्मसँ अपन पतिकेँ बचा लेलनि। विषहरी बिहुलाक पतिकेँ दंशक हेतु तैयार नहि भेल। विषहरी शेषनागक आराधना कयलक। ओ जादू-टोना, जड़ी-बुटीसँ बिज्जीआक द्वारा ओकरा गंभीर निद्रामे राखलनि। किन्तुक बिहुला आ बालाकुमार सुतल छलाह ओतय ओ गेल आ बाला कुमारकें दंश मारि देलक। बिहुला अपन मृत पतिकेँ जीवित करबाक हेतु इन्द्री, सूर्य आदि देवताक सान्निध्यमे गेल तथा ओकर पति पुन: जीवित भ’ गेल। राय बहादुर दिनेश चन्द्र सेन बंगालमे जखन बिहुलाक कथा लिखलनि तत्पतश्चाित् एकर प्रचार अत्यशधिक भेलैक। भागलपुर परिसरमे ई कथा एवं पूजाक विधान सेहो प्रचलित अछि। एक कथानक सोद्देश्यमतासँ भरल नारीक आदर्श ओ पतिव्रताक अभिनयक रूपमे प्रख्या्त अछि।
सीमांकन :
उपर्युक्तक विश्ले‍षणसँ स्पकष्टप भ’ जाइछ जे प्रागैतिहासिक एवं ऐतिहासिक एहि कृतिमे लोक जीवनक चित्रांकन भेल अछि जे मैथिली साहित्यदक अमूल्य् निधिक चित्रांकन भेल अछि जे मैथिली साहित्येक अमूल्यद निधि थिक। एहिमे लोक जीवनक परम्पनरा, लोक विश्वा स एवं अनुश्रुति रूपमे सुरक्षित रहल जे समयक गतिमे शनै:- शनै: हमर साहित्य्केँ प्रभावित कयलक। ई परम्पहरा चिरन्त नसँ विकसित होइत रहल तथा ओकर मान्याता ओकर प्रतिमान युगक अभिरुचिक अनुकूल परिवर्त्तित होइत गेल। एहि परंपराक चित्र, संगीत एवं अभिनयक वास्तहविक विश्लेशषण कयल जाय तँ ओहिमे लोक जीवनक स्परष्टत छाप परिलक्षित हैत। उपर्युक्तन परम्पयराक पृष्ठएभूमिमे भरत, धनंजय, अभिनवगुप्तछ, नन्दिकेश्व र तथा रामचन्द्र गुणचन्द्रर आदि नाट्याचार्य लोक जीवनसँ प्रेरणा ग्रहण क’ कए नाट्यधर्मी नाटकक रचना करबाक प्रेरणा देलनि।

उपर्युक्तँ परम्प राक परिप्रेक्ष्यएमे मिथिलांचलक लोकमंच विभिन्नक आख्यादनपर आधारित भ’ विकसित भेल जकर दिग्दपर्शन उपलब्धम होइछ जाहिमे मिथिलांचलक लोकजीवनक विभिन्नि समस्यापकेँ प्रतिपादित कयल गेल जे हमर साहित्याक अक्षय भंडार थिक। सभ्यमता एवं विकासक नामपर नागरिक जीवन लोक जीवनकेँ अनेक क्षेत्रमे प्रभावित कयने जा रहल अछि। एहना स्थितिमे प्रयोजन अछि मैथिली लोक अनुरंजक साधनकेँ यथावत संग्रहीसत कयल जाय। मैथिली लोकनाट्यक अध्यियन मात्र मौलिक एवं ज्ञान विस्ताहरकेँ नहि, प्रत्युयत लोक जीवनक सांस्कृातिक स्वदरूपक संरक्षणक दृष्टिएँ हमर साहित्य क हेतु उपयोगी हैत।

आलोच्यम नाट्य सभक अतिरिक्तो मिथिलांचलमे अनेक एहन लोकनाट्य अछि जे जीवन्तम कथा तत्वकसँ भरल, प्रदर्शन सार्वभौम सत्ताक अनुकूल अछि। एहिमे अल्लाजह रुदल, रायरणपाल, गुगली घटवार, दुलरादयाल, दीनाभदरी, भगता, लुखेसरी, ढ़ोला कुँवर, काली विलास, विषहारा, अघोरी आदि विशिष्टद अछि जकर कथानक, कथोपकथन, अभिनय परम्पलरा, रंगमंच, रूप-योजना, भाषा-शैली लोकानुरंजन आदि हमर साहित्य क अति महत्व,पूर्ण अंग अछि। मिथिलांचलक उपर्युक्तर नाट्य रूप सभमे आधारभूत तत्वयक अतिरिक्तक स्था।नीय विशिष्टकता उपलब्धय होइत अछि जाहिमे हमर जीवनक अभिव्यतक्ति भेल अछि जे साहित्यतक अविभाज्यि अंग थिक। ई लोकनाट्य लोकोनुरंजनक संगहि्-संग लोकाभिव्यकक्तिक सरल माध्यगमक रूपमे प्रचलित अछि, तकरा आजुक परिस्थितिमे आवश्याकतानुसार उपयोगी बनाओल जा सकैछ। आधुनिक परिवेशमे संदेश प्रचारक हेतु मिथिलाक लोकमंच सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध भ’ सकैछ। मिथिलामे उपलब्धं कतिपय लोकनाट्यक गतिशील परम्पीराकेँ विश्लेैषण गवेषणा ओ अनुशीलन सौविध्योक दृष्टिएँ उपयोगी अछि।

मैथिली लोकनाट्य हमर प्राचीन जीवन, जीवन प्रकृति ओ प्रवृत्तिक साक्षात स्वररूपकेँ स्थिर करबामे सहायक भेल आ तत्कावलीन युगक लोक मानसक दशा-दिशाक अभिज्ञान अद्यावधि करबैत अपन युगधर्मक प्रति प्रतिवद्ध अछि। एहि संदर्भमे अद्यावधि प्रकाशित एवं विवेचित लोकनाट्यक सर्वेक्षणसँ ई तथ्यए स्प्ष्टअ भ’ जाइत अछि जे सभक मूल आत्माा आ उद्देश्यस समाने छैक जकरा नगरीय मंचपर समुचित रीतिएँ उपस्थावपनसँ एकर भविष्यद आ विकासमय, उज्व्ित लमय प्रमाणित भ’ सकैछ। लोकनाट्य लोकजीवनक प्रागैतिहासिक जीवनक मौलिक दस्तादवेज सदृश विश्ले्षणक निष्कैर्षपर गवेषणाक प्रयोजन अछि। ई हमर सांस्कृातिक जीवनक धरोहर थिक। वर्त्तमान परिप्रेक्ष्यईमे आवश्यककता अछि जे एहि दिशामे अनुसंधान क’ कए एकर समुचित प्रकाशनक योजना बनाओल जाय जे हमर संस्कृ्ति सभ्यमता, जीवनक लौकिक पक्ष साहित्यो जगतक समक्ष आओत जे हमर जीवनकेँ प्रकाशित क’ नवरश्मिसँ आलोकित क’ सकत। मिथिलांचलक लोकनाट्य जनजीवनक दृष्टिसँ अलि‍क्षत भ’ रहल अछि तकरा सभक समक्ष अनबाक आवश्यनकता अछि जाहिसँ ओकर नवीनीकरणक प्रक्रिया द्वारा वैज्ञानिक आधार प्रदान कयल जा सकैछ।
संदर्भ :
1. हिन्दी् अभिनव भारती, संपादक एवं भाष्य कार आचार्य विश्वेवश्वेर सिद्धान्तक शिरोमणि, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्व‍विद्यालय, दिल्ली , 1960, पृष्ठ -435
2. मैथिली नाटकक ओ रंगमंच, डॉ. प्रेमशंकर सिंह, मैथिली अकादमी, पटना, 1978 पृष्ठ्-102
3. यानि शास्त्रा णि ये धर्मायानि शिल्पालनिया: क्रिया:। लोक धर्म प्रवृत्तान तानि नाट्ये प्रकीर्तितम्। नाट्यशास्त्रट, संपादन - डॉ. मनमोहन घोष, मनीषा ग्रंथालय प्रा. लि., 4/3 बंकिम चटर्जी स्ट्रीयट, कलकत्ता, 1967, अध्याषय-26, श्लो.क-124-125, पृष्ठ .221
4. मैथिली नाटकक ओ रंगमंच, डॉ. प्रेमशंकर सिंह, पृष्ठन-103
5. परम्पीराशील नाट्य, जगदीशचन्द्रत माथुर, बिहार राष्ट्ररभाषा परिषद् पटना, 1969
6. लोक धर्मी नाट्य परंपरा, डॉ. श्यामम परमार, हिन्दीर प्रचारक पुस्तटकालय, वाराणसी, 1958, पृष्ठ -30
7. भारतीय लोक नृत्य, एवं सैद्धान्तिक अध्यरयन, देवीलाल सामर, भारतीय लोक कला मंडल उदयपुर, 1976, पृष्ठ्-1
8. लोक-नाट्य-परंपरा और प्रवृत्तियाँ, डॉ. महेन्द्र भावना, बाफना प्रकाशन जयपुर, 1971 पृष्ठय-4
9. मैथिली नाटकक ओ रंगमंच, डॉ. प्रेमशंकर सिंह, पृष्ठा-109
10. आधुनिक हिन्दी9 साहित्यप, डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णे‍य, हिन्दीफ परिषद्, इलाहाबाद युनिवर्सिटी, संशोधित आ परिवर्द्धित संस्कतरण 1948, पृष्ठग-224
11. मैथिली नाटकक ओ रंगमंच, डॉ. प्रेमशंकर सिंह, पृष्ठ2-114
12. तथैव, पृष्ठी-114-115
13. तथैव, पृष्ठी-117
14. हिन्दी साहित्य कोष भाग-1. प्रधान संपादक-धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डील लिमिटेड, वाराणसी, द्वितीय संस्कहरण वसंत पंचमी 2020 पृष्ठ -751
15. मैथिली नाटकक ओ रंगमंच, डॉ. प्रेमशंकर सिंह, पृष्ठ्-127
16. तथैव, पृष्ठय-131
17. मैथिली नाटकक परिचय, डॉ. प्रेमशंकर सिंह, मैथिली अकादमी पटना, 1981, पृ-131
18. जट-जटिन, राजेश्व्र झा, मैथिली साहित्यद संस्थाीन पटना, 1971, पृष्ठ -4
19. मैथिली नाटकक परिचय, डॉ. प्रेमशंकर सिंह, पृष्ठ -47
20. Golden Bough, J. E. Frazer, Abridged Edition, 1960, Page-96
21. पूर्वांचलीय लोक साहित्यA, चेतना समिति पटना, 1974, पृष्ठ -7

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नाटकक-एकांकी :
विगत शताब्दी मैथिली नाटकक-एकांकीक हेतु एक क्रान्तिकारी युगक रूपमे प्रस्तुत भेल। आधुनिक मैथिली नाट्य जगत जखन अन्धकारमे टापर-टोइया द’ रहल छल तखन युगपुरुष जीवन झा गद्यक नव-ज्योतिसँ सम्पूर्ण मैथिली नाट्य-साहित्यकेँ आलोकित कयलनि। आधुनिक मैथिली नाटकक जन्म एही शताब्दीमे भेल जकरा प्रवर्त्तन कयलनि कीर्त्तिपुरुष जीवन झा। ई मैथिली गद्यक महान उन्नायक रहथि। ओ गद्यकेँ नवीन स्वरूप प्रदान कयलनि। अपन नाट्यादिक माध्यमे मैथिली गद्यक मंगल द्वारकेँ खोललनि तथा भविष्यक नाटकककारकेँ एक नव प्रेरणा देलनि। मैथिलीमे उच्च कोटिक नाट्य-साहित्यक निर्माण कार्य विगत शताब्दीक अनुपम उपहार एहि साहित्यकेँ भेटलैक। विगत शताब्दीक नाटकककार जीवनक विभिन्न क्षेत्रसँ सामग्री ग्रहण क’ कए सामाजिक, धार्मिक, विशुद्ध साहित्यिक, पौराणिक आ राष्ट्रीय एवं राजनीतिक नाटकक परम्पराकेँ जन्म देलनि आ भारतीय नवोत्थानकालीन भावनाक प्रचार कयलनि। जीवन झाक पश्चात् मैथिलीक दोसर नाटकककार साहित्यरत्नाकर मुंशी रघुनन्दन दास आ पण्डित लालदास आ हुनका सभक पश्चातो नाटकक क्षेत्रमे एहि परम्पराक निर्वाह होइत रहल। देशक आवश्यकतानुसार विगत शताब्दीमे ऐतिहासिक नाटकक रचना भेल। पौराणिक कथाकेँ नव-ढ़ंगे प्रतिपादित कयल जाय लागल। मैथिलीक किछु नाटकककार प्रतीकात्मक नाटकक रचना कयलनि, किन्तु ई परम्परा अधिक पुष्ट नहि भ’ सकल। यद्यपि गीति-नाट्यक रचना सेहो विगत शताब्दीमे भेल तथापि मैथिलीमे सुन्दर गीति-नाट्यक रूपमे सोमदेव (1934) क चरैवेति (1982) एक प्रतिमान प्रस्तुत करैछ। विवेच्य कालावधिमे समस्या नाटकक रचना भेल अछि। यूरोपीय प्रभावक अन्तर्गत समस्या नाटककमे बुद्धिवादक आधारपर सामाजिक, व्यक्तिगत तथा जीवनक अन्य क्षेत्रमे व्यर्थक आडम्बर आ वाह्याचार तथा परम्परा पालनक विरोध कयल गेल अछि। किन्तु मैथिलीक समस्या नाटकक बुद्धिवाद कुंठित आ ओकर क्षेत्र सीमित अछि, जाहिमे जार्ज बर्नाड शॉ आ हेनरिक इब्सनक तीक्ष्ण दृष्टिक अभाव अछि। ओहुना ई परम्परा मैथिलीमे विकसित नहि भेल।

आलोच्यकालमे रंगमंचक अभावक कारणेँ एकर प्रगतिमे बाधक सिद्ध भेल अछि। मैथिलीमे एक साधु अभिनयशाला नहि भेलासँ पाठ्य साहित्यक विकासक गति एक विशेष दिशामे झुकि गेल अर्थात् एहन नाटकक निर्माण होइत रहल जे साहित्यिक आनन्दक दृष्टिएँ सुन्दर रचना थिक, किन्तु रंगमंचीय विधानक दृष्टिएँ दोषपूर्ण अछि। विगत शताब्दीक नाट्य-साहित्यपर विवेचन करबाकाल मात्र रंगमंचपर ध्यान नहि देबाक चाही। जँ रंगमंचकेँ नाटकक कसौटी मानि लेल जाए तँ विश्वक अनेक प्रसिद्ध नाटकादिकेँ नाटकक श्रेणीसँ निष्कासित करए पड़त। शैलीक दृष्टिसँ मैथिली नाट्य साहित्य पूर्व आ पश्चिमकेँ ल’ कए चलल छल, किन्तु शनैः-शनैः ओ पश्चिमाभिमुख अधिक भ’ गेल अछि आ भारतीय तत्व नगण्य भेल जा रहल अछि।

विगत शताब्दीक चतुर्थ दशकमे साहित्य रत्नाकर मुंशी रघुनन्दन दासकेँ श्रेय आ प्रेय दुनू छनि जे मैथिलीमे एकांकी रचनाक शुभारम्भ कयलनि जे पश्चात् जा क’ एक सबल प्राणवन्त विधाक रूपमे पल्लवित भेल। वर्त्तमान समयमे एकांकी लिखल जा रहल अछि अवश्य, किन्तु किछु अपवादकेँ छोड़ि क’ एकांकीक वास्तविक कलाक कसौटीपर खरा रहनिहार एकांकीक अनुसंधान करबाकाल निराश होमय पड़ैछ। पृष्ठभूमि, वातावरण आ कार्य व्यापारक अभाव प्रायः सभ एकांकीमे भेटैछ। एकर उद्देश्यक परिधि विस्तृत अछि। ओ सामाजिक, ऐतिहासिक, राष्ट्रीय, मनोवैज्ञानिक, हास्य-व्यंग्यपूर्ण आदि अनेक उद्देश्यकेँ ल’ कए लिखल गेल अछि। वैश्वीकरणक फलस्वरूप आधुनिक जीवनक विडम्बनापर गम्भीर प्रहार करब एकांकी कारक कर्त्तव्य भ’ गेलनि अछि। रेडियो आ टेलीभीजनक कारणेँ नाटकक नवीनतम रूप ध्वनि रूपकमे भेटैछ, जकर टेकनिक एकांकीक टेकनिकसँ भिन्न होइछ। रंगमंचीय कलाक दृष्टिसँ एकांकीक ध्वनि रूपककेँ आघात पहुँचबाक पूर्ण सम्भावना अछि, ओहिना जेना फिल्मक प्रचारसँ नाट्यकलाकेँ क्षति पहुँचल अछि।
पारंपरिक नाटकक

साहित्यकक अन्य विधाक तुलनामे भारतक विभिन्न2 जन–जनपदमे सर्वाधिक नाट्य रचना मिथिलाचंलमे भेल; इएह कारण अछि जे एकर इतिहास अति प्राचीन एवं प्रौढ़ अछि। शिष्टभवर्ग ओ निरक्षर समाजमे साहित्यिक अभिरुचि उत्पान्नर करबाक हेतु मैथिलीक साहित्य‍–मनीषी नाट्य रचना दिस अत्युधिक उन्मु्ख भेलाह। देश कालक आधारपर मानव-मूल्य परिवर्त्तित होइत गेल, युगीन दड़ारिमे जतय ओकर जर्जर परम्प रावादी सिद्ध्ान्तप अटतकि गेलैक ओतय साहित्य सेहो समयक मांगक अनुसारेँ करोट फेरलक। मै‍थिली नाटकक अपन अत्यगन्तह पैघ यात्रा–पार क’ आइ एक चौबटिया पर ठाढ़ दृष्टिगोचर होइत अछि। आधुनिक नाटकककार परम्पनरावादी मान्यबतादिकेँ घ्विस्तछ नहि कयलनि, प्रत्यु्त नाटकककेँ रंगमंचक दिशामे अभियान कयलनि। कथा-साहित्यच सदृश अपन निश्चित कलेवरमे ओ अपनाकेँ चमका देबाक संकल्प कयलनि। नवीन मूल्योक अन्वेिषणमे पारंपरिक नाट्कारक कथ्य एवं शिल्पन दुनूमे युगान्तककारी परिवर्त्तनक श्रीगणेश कयलनि। मघ्यषकालकेँ छोडि क’ परंपरावादी नाट्ककार स्वनच्छिन्दरतावादी कम यथार्थवादी एवं बौद्धि‍क छथि। नाट्य-शिल्प मे भेल परिवर्त्तन नाटकककेँ पठनक सीमित क्षेत्रसँद बहार क’ कए रगंमंचक अत्यथधिक समीप आनि देलक अछि।

वस्तुआत: नाटकक एक एहन विधा थिक जे अपन परंपराक विरासतसँ अधिक लाभान्वित भेल अछि। कथा-विस्ता रकेँ नाटकीय सौष्ठिव प्रदान करबाक हेतु विषकंभक, प्रवेशक, अंकास्यक, अंकावतार आदि जे परंपरागत मैथिली नाटकक शैली छल तथा नाट्य-शास्त्रक प्रणालीक सम्मित आधुनिक नाटकककारक प्रवृत्ति भेलनि। वस्तुन-विधान, पात्र-परिकल्पिना, चरित्र-चित्रण एवं संवाद योजनामे नव दृ‍ष्टिकेँ स्वी-कारलनि। नाटकक रसोद्रेकक साधन नहि रहि क’ देशक नव-निर्माणक प्रेरक शक्ति बनि गेल अछि। नैराश्यिक अंधकारमे आशाक दीप जरयबाक प्रेरणा पारंपरिक नाटकककार देलनि अछि। पारंपरिक मैथिली नाटकक बहिरंग संरचनाक संदर्भमे नाटकककार समन्व कारी छथि अर्थात् भारतीय एवं पाश्चारत्यक रूढ़ि क’ समाकलन ओ नाटकान्तगर्गत कयलनि अछि। मैथिली नाटकक आधुनीकरण वा अंग्रेजीकरणक प्रवृत्ति स्प्ष्टअ अछि। पाश्चातत्यक नाट्य-शैलीमे जे संघर्ष, द्वन्द्व , मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रणकेँ नाटकककार अपन उद्देश्यय बुझलयनि। अनुकरणक ई प्रवृत्ति मैथिली भाषी क्षेत्रक नाटकककारकेँ यथार्थोन्मु्ख एवं बौद्विक हैबाक हेतु बाध्यत कयलक।

मैथिलीक पारंपरिक नाटकक किछुु एहन अछि जकर सूचनामात्र साहित्येतिहासिक ग्रंथमे उपलब्धि होइत अछि; किन्तुस दुर्योगक विषय थिक जे अद्यावधि ओकर प्रकाशनक दिशामे तँ ने कोनो अनुसंधाता आ ने कोनो संस्थान एहि दिशामे प्रयास कयलक अछि। यद्यपि विभिन्नन विश्वनविद्यालयादिमे नाटकक पर अधिकाधिक संख्याछमे प्रबंध प्रस्तुंत कयल जा रहल अछि तथापि अनुसंधित्सुक ओही सूचना मात्रकेँ दोहरेबाक प्रयत्न् कयलनि, किन्तुप अप्रकाशित पारंपरिक मैथिली नाटकक प्रकाशनक दिशामे कोनो सक्रिय प्रयास नहि कयलनि। एहि संदर्भमे डॉo जयकान्ति मिश्र विश्वशनाथ झाक रमेश्व र चन्द्रिका आधुनिक मैथिली साहित्य्क जनक कवीश्व र चन्दा झाक (1831-1907) अहिल्यान चारित नाटकक एवं बलदेव मिश्रक (1887-1946) राज राजेश्वशर नाटकक (1920) एवं रमेशोदय नाटकक परंपरागत नाटकक सूचना देलनि जे अद्यावधि अप्रकाशित अछि।1 एहि दिशामे प्रयासक प्रयोजन अछि जे उपर्युक्तअ नाटकादि मैथिली पाठकक सम्मुएख आबय जाहिसँ नव ढ़ंगे मैथिलीक परंपरागत नाट्य–शैलीक आलोचना भ’ सकय।

मैथिली नाटकक अतिप्राचीन रहितहुँ ओ सतत अनुसंधेय अछि, कारण श्रृंखलाव्‍ाद्ध रूपेँ ओकर अन्वे षण अद्यावधि सुव्यतवस्थित रूपसँ नहि भ’ सकल अछि। जहिना-जहिना अनुसंधित्सु् एहि दिशामे सचेष्टवता देखौलनि तहिना-तहिना मैथिली नाट्य साहित्यनपर प्रकाशक नव ज्योमति पड़ि रहल अछि जे एकर आलोकमय भविष्य क सूचक कहल जा सवैछ। गहन अनुसंधानक फलस्व रूप एहि श्रृंखलान्तअर्गत एक परंपरागत नाट्यकारक नाट्यकृति प्रकाशमे आयल अछि ओ छथि तेजनाथ झा (1854-1934) जनिक सुरराज विजय नाटकक (1919), किन्तु एहि नाटकक संबंधमे ने कोनो इतिहासकार वा ने कोनो अनुसंधता अद्यावधि सूचना देलनि जे अत्यएधिक खेदक विषय थिक।2 ई श्रेय छैक जिज्ञासा (1995) क’ विद्वान संपादक वृन्दतकेँ जे संपूर्ण नाटकककेँ अपन प्रवेशांकमे प्रकाशित कयलनि अछि। जहिना जीवन झा (1848-1912) परंपरागत नाट्य–शैलीक अनुकरण क’ कए पारंपरिक नाटकक रचना श्रीगणेश कयलनि तहिना तेजनाथ झा रचित सुरराज विजय नाटकक सेहो ओही शैलीकेँ आगॉं बढ़यबाक दिशामे एक अभिनव प्रयासक कयलनि। वस्तुनत: सुरराजविजय नाटकक मैथिलीक पारंपरिक नाट्य–साहित्योक इतिहासमे एक सेतुक काज करैछ जे जीवन झा एवं साहित्यिरत्नााकर मुंशीरघुनन्दुन दासक (1860-1945) बीच एक नव नाटकककारक सूचना मैथिली नाट्यालोचककेँ भेटलनि अछि। जतय जीवन झा, लालदास (1856-1921) एवं साहित्यदरत्ना6कर मुंशी रघुनन्देन दासक नाटकादिमे स्थ ल-स्थमल पर पारंपरिक नेपाल, मिथिला, एवं आसामक अंकीया नाट सदृश धड़ल्लासँ संस्कृलत श्लो1कक माध्यपमे मैथिली पदक भावकेँ व्यमक्तए कयल गेल ततय तेजनाथ झाक विशिष्टलता छनि जे ओ सुरराजविजय नाटककमे कतहु संस्कृात श्लोटकक प्रयोग नहि कयलरनि। विशुद्व मैथिली गद्यक अनुकरण ओ जीवन झासँ अवश्यक ग्रहण कयलनि आ पारसी थियेरिकल कम्प नीक प्रभावक कारणेँ ओ मैथिली पद्यक प्रयोग नाटककमे कयलनि।

मैथिली नाटकक परिदृश्यममे किछु नाटकक निश्चित रूपेँ उपलब्ध होइत अछि जे विशुद्व रूपेँ मध्यपकालक शैलीपर आधुनिक कालमे लिखल गेल अछि। हमरा लोकनिकेँ महामहोपाध्यािय हर्षनाथ झाक (1844-1899) जतेक नाटकक उपलब्धद होइत अछि जकर प्रकाशन हर्षनाथ काव्यर–ग्रंथावली 3 मे भेल ओ तँ विशुद्ध रूपेँ पारंपरिक नाटकक थिक जाहिमे मैथिलीक प्रांरभिक नाट्ककेँ मध्य4कालीन नाटकक वंशज कहबामे कोनो तारतम्यथ नहि। मध्यपकालनीन नाटकक त्रैभाविषक छल, कथोपकथन संस्कृत प्राकृत तथा ओहिमे मात्र मैथिली गीतक समावेशक कारणेँ ओकरा मैथिली नाटकक कहल गेल। अतएव हर्षनाथ द्वारा लिखित जे नाटकक उपलब्धै अछि तकरा पारंपरिक परिप्रेक्ष्य विशलेषण कयल जायत। एहिसँ स्व,त: स्पबष्टि भ’ जाइछ जे मध्यकालकेँ छोड़ि क’ जे पारंपरिक नाटकक उपलब्ध अछि तकरा दुइ श्रेणीमे विभाजित कयल जा सकैछ। एक ओहन पारम्परिक नाटकक अछि जे मूलत: मध्यलकालक पृष्ठाभूमिमे लिखल गेल अछि आ दोसर ओ अछि जे आधुनिकताक परिप्रेक्ष्यजमे लिखित पारं‍परिक नाटकक थिक।

जतय परंपरागत मैि‍थली नाटककमे मैथिली गद्यक अभाव, पद्यक प्राचूर्य, संस्कृलत श्लोपकादिक अधिकताक संगहि कथोपकथन सेहो संस्कृयत वा प्राकृतमे हाेइत छल ततय जीवन झा तेजनाथ झा लालदास एवं मुंशी रघुनन्द न दास नाटकक अनुशीलनसँ स्पेष्टल भ’ जाइछ जे वर्त्तमान युगमे परंपरागत मैथिली नाटककमे एक क्रान्तिकारी परिवर्त्तन भेल जे ओ मैथिली गीत एवं संस्कृेतक श्लोकक सर्वथा परित्यािग नहि क’ कए विशुद्ध रूपेँ मैथिली गद्यकेँ कथोपकथनक साधन मानि ओकरा अपन अभिव्य क्तिक माध्यिम बनौलनि। इएह प्रमुख कारण थिक जे मध्य कालकेँ छोड़ि क’ जतेक पारं‍परिक नाटकक उपलब्धम अछि गद्यक प्रचुरता परिलक्षित होइत अछि।

जीवन झाक प्रखर प्रतिभा–किरण मैथिली नाट्य–साहित्य क क्षितिजपर एक अद्भूत आलोकक संग प्रस्फुरटित भेल। जीवन झा जखन नाट्य रचना आरंभ कयलनि तखन आधुनिक गद्यक न्योँड़ राखल जा चुकल छल; किन्तुन ओकर कानो निश्चित एवं व्य वस्थित स्विरूप नहि निर्धारित भेल छलैक। मौलिक रूपसँ मैथिली नाट्य साहित्यनक वास्तिुवक विकास हिनकहिसँ होइत अछि। परंपरावादी आ नवीन विचारधाराक एहन संधर्ष कालमे जीवन झा सत्यरत: मातृभूमि प्रेमी तथा भाषाप्रेमी कोना मौन रहि सकैत छलाह? अतएव ओ मातृभाषाक सेवाक हेतु दृढ़ संकल्प् कयलनि ओ गद्यक विधामे नाटकककेँ पहिने एहि हेतु चयन कयलनि जे ओकरा माध्य मे जनसामान्यामे श्रेष्ठह आ साधारण व्यरक्ति धरि अपन उद्भावनाकेँ सुगमतापूर्वक पहुँचा सकथि। ओ मौलिक पारंपरिक नाटकक सृजनक मैथिली नाट्य भंडारकेँ समृद्व करबाक प्रयास कयलनि। जीवन झासँ प्रेरणा प्राप्तृ क’ कए हुनक समकालीन अनेक लेखक नाटकक रचना कयलरनि। जीवन झा कालीन लेखक लोकनि विविध भावनाक व्यानपक प्रचार करबाक हेतु लगन एवं निष्ठासँ पारम्परिक मैथिली नाट्य साहित्यक रचनामे पर्याप्त योगदान देलनि। यद्यपि हिनक समकालीन मैथिली नाट्य साहित्य उपदेशात्मक छल तथा ओहिमे नाट्य कलात्ममकता गौण छलैक। तत्कायलीन परिस्थिति एवं समस्यााकेँ ओ यथार्थ रीतिऍं प्रतिविम्बित कयलनि। परम्प‍रागत मैथिली नाट्य साहित्ये एवं संस्कृीत नाटकक शास्त्री यतासँ ओ प्रभावित भेलाह; किन्तुा शनै:-शनै: हुनकापर तत्कागलीन रुचिक प्रभाव सेहो यथेष्ट मात्रामे पड़लनि। नाट्य रचनाकेँ समयानुकूल बनयबाक दृष्टिएँ अग्रसर परंपरागत संस्कृमत नाट्य शास्त्रँकेँ ओ अपन आधार अवश्य् बनौलनि; किन्तुस यथासंभव आधुनिकताक प्रवेश करयबाक दिशामे यथेष्ट् प्रयास कयलनि। तत्कारलीन अभिनय व्यनवस्था आ पारसी कम्पटनीक क्रिया-कलापक प्रभाव एहि युगक नाटकककार लोकनिपर पर्याप्त पड़लनि। पारसी कंपनीक अभिनयमे उत्तेजना, भावोद्रवेग, प्रेमोद्गार आदि तथ्य।क प्रभाव हुनक समकालीन नाट्य-साहित्यवपर अवश्य् पड़लनि। नाटकक वस्तुक-विन्या समे परंपरागत नाट्य प्रस्तुसतिक सर्वथा परित्या‍ग नहि कयल गेल। नाट्य रचनामे स्वारभाविकताक भूमिपर कथानकक विन्याास कयल गेल। यद्यपि एहि नाटकक भाषा अशास्त्रीिय रहल तथापि ओकर प्रयोग पात्रक अनुकूलताक अनुसारेँ भेल तेँ भाषामे उन्मु्तता तथा सरलताक दिग्दरर्शन अनेक स्थकलपर भेल जकर फलस्वारूप ओहिमे कृत्रिमताक समावेश भ’ गेलैक।

जीवन झा मैथिली नाट्य गद्यक संस्थापके नहि छलाह; प्रत्युयत विभिन्नल नाट्य-शैलीक जनमदाता सेहो रहथि। हिनक भाषा-शैलीमे लोक प्रचालित शब्द्, मुहावरा एवं लाकोक्तिक प्रयोग भेल जकर फलस्वथरूप हिनक भाषामे एक अद्भूत सौन्द‍र्य आबि गेल संगहि स्वाोभाविकताक रक्षा सेहो भेल। हिनक नाटकादिमे सरसता, सरलता, स्पगष्टाता एवं चित्रमयताक दिग्दार्शन होइत अछि। हिनक प्रत्येटक नाटकक पद्य-गद्य मिश्रित नाटकक थिक। हिनक नाटकादिमे गद्यक प्रधानता रहितहुँ पद्यक प्रचुर प्रयोग भेटैछ। पद्य प्रयोगक अतिरिक्ति ई गीतक अवतारणा सेहो कयलनि। काव्यर-वैभवक दृष्टिएँ हिनक एक-एक पद्य अमूल्ये निधिक समान अछि। पद्य एवं गीतक प्रयोग नीरवताक परिहार क’ रसोत्पाकदन करबामे, वातावरणक सृष्टि करबामे तथा पात्रक मनोभाव एवं चरित्रगत विशेषताकेँ प्रगट करबामे सहायक भेल अछि। हिनक नाटकादिमे भावक अनुरूप विविध छन्दाक विधान उपलब्धक होइछ।

अतएव प्रतिपाद्य प्रबन्धाून्तार्गत हम मध्य्कालकेँ छोडि क’ मै‍थिलीक पारंपरिक नाटकक परिप्रेक्ष्यूमे एहि आलेखकेँ केन्द्रित करबाक उपक्रम कयलहुँ अछि। प्रतिपाद्य प्रबंधकेँ विश्लेवषणक क्रममे हम एकरा दुइ भागमे विभाजित करैत छी - मौलिक एवं अनूदित। मैथिलीमे वर्त्तमान कालमे किछु एहन नाटकक अवश्यी उपलब्धए हाइछ जे वस्तुवत: मध्यए-कालक शै‍लीक अनुकरणपर लिखल गेल अछि आ अनूदित नाटकान्तार्गत ओहन नाटकक चर्चा कयल जायत जे संस्कृयत वा अंग्रजी वा फ्रेंच वा बाङला वा हिन्दीत नाटकक यथावत् मैथिलीमे गद्य-पद्यानुवाद वा गद्यानुवाद कयल गेल अछि। मैथिलीक पारंपरिक नाटकककार विविध प्रवृत्तिक नाटकक रचना कयलनि। अतएव अहम विश्लेिषणक सुविधाक दृष्टिएँ पारंपरिक नाटकककेँ विभिन्नल वर्गमे विभाजित क’ कए विश्ले्षण करब।4 विषय-वस्तुंक आधारपर पारंपरिक नाटकक तीन प्रकार भ’ सकैछ - पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक। सामाजिक नाटकककेँ हम पुन: दुइ खण्ड-मे विभाजित करैत छी - प्रतीक नाटकक एवं समस्यान नाटकक। उपर्युक्तड परिप्रेक्ष्यैमे मैथिलीक पारंपरिक नाटककपर विचार कयल जा रहल अछि।
परंपरागत पौराणिक नाटकक :
मैथिलीक पारंपरिक पौ‍राणिक नाटकक क्षेत्रमे हर्थनाथ झाक उषाहरण 5(1962) माधावानन्द 6(1962) राधाकृष्ण् मिलन लीला 7(1962) जीवन झाक सामवती पुनर्जन्मप 8(1908), तेजनाथ झाक सुरराज विजय नाटकक 9(1995), लालदासक सावित्री-सत्य(वान 10(1909), त्रिलोकनाथ मिश्रक (1889-1960) जीमूतवाहन चरित 11(1352 साल), आनन्दह झाक (1913) सीता स्व यंवर 12(1995 संवत्) ठाकुरप्रसाद झाक सीता परिणय 13(1960) दामोदर झाक गन्ध र्व विवाह 14(1210 संवत्), जीवनाथ झाक दुर्गा विजय 15 (2015 साल), शंभुनाथ झाक पुत्रदान 16(1982) एवं शिवाकान्तथ ठाकुरक कृष्णज विनु राधा 17(1984) आदिक गणना कयल जाइछ। उपर्युक्त6 नाटकादिक कथानकष पुराणाश्रित एवं महाभारताश्रित अछि, अत: तदयुगीन वातावरण, आकस्मिता आदिक पूर्ण समावेश अछि। एहि नाटकक पात्र सभ अलौकिक गुणसँ युक्तय छथि। उपर्युक्तस नाटकक पौराणिक परिवेशमे संस्कृभत नाटकक गुणसँ अलंकृत अछि तँ ई सभ मैथिलीक पारंपरिक नाटकक थिक।

मध्यककालीन पारंपरिक नाटकक अन्तिम नक्षत्र छथि महामहोपाध्या य हर्षनाथ झा। हिनक उषाहरण, माधवानन्द नाटकक एवं राधाकृष्ण मिलन लीला थिक। एहि नाटकादिमे कथोपकथनक अपेक्षा गीतक प्रधानता अछि। गीतहिक माध्यंमे कथा-विकास होइछ। संवादमे संस्कृ त एवं प्राकृत तथा गीतमे मैथिलीक प्रयोग भेटैछ। उषाहरण नाट्यशास्त्री्य लक्षणसँ युक्त अछि। एहिमे प्रख्याैत पौराणिक कथा-वस्तुं, धीरोदात्त अनिरुद्ध नायक अंगीरस श्रृंगार, अन्य रस अंग, पॉंचो संधि ओ पॉंच अंक अछि। एकर कथानक हरिवंश पुराणसँ लेल गेल अछि। एहिमे प्रयुक्त गीत संस्कृकतनिष्ठश मैथिली आ संस्कृित एवं विद्यापतिक शैलीपर उपमा तथा उत्प्रे क्षा अलंकारक सरस एवं कौशलपूर्ण वर्णनक अति‍रिक्तप एहिमे नाटकीय विशेषताक अभाव अछि। ई नाटकक नाटकीयतासँ पूर्ण अछि। एहिमे नाट्यकारक कवित्विपूर्ण अभिव्यछक्ति भेल अछि। एकर कलापक्ष अत्य न्तय सबल अछि जे नाट्यकारक कलात्मछक दृष्टिकोणक परिचायक थिक। ई संस्कृह‍तनिष्ठअ सुललित शब्दाक प्रयोगक कए नाटकककेँ अत्यकधिक प्राणवंत बनौलनि।18

माधवानन्दा नाटकक (1962)मे नान्दीकक पश्चा त् सूत्रधार रंगमंचपर उपस्थित भ’ कए नाट्यक अभिनयक प्रस्तानव प्रस्ता2वनामे करैत छथि। संपूर्ण नाटकक पाँच अंकमे विभाजित अछि। एकर कथा अत्य ल्पत एवं गीतक बाहुल्य् अछि। एकहि भावकेँ व्यजक्तक करबाक हेतु अनेक गीतक प्रयोग भेल अछि। एहिमे संवाद नगण्यि अछि। एहि नाटककमे प्रयुक्तर गीतपर विद्यापतिक प्रभाव अछि तथापि कविक निजी मौलिकता सन्निहित अछि। ई नाटकक मध्यतकालीन पारंपरिक नाटकक अनुकूल थिक। एकर कथोपकथन संस्कृयत एवं प्राकृतमे तथा गीत मैथिलीमे अछि। गीतक भाषा संस्कृनतनिष्ठ अछि। हिनक वैशिष्ट्य अछि जे जाहि रसक गीत ई लि‍खलनि ओकरे व्यंकजक वर्णक प्रयोग कयलनि। कलापक्ष एवं भावपक्षक सुन्द र समन्वखय एहिमे भेल अछि। पात्रक मनोवैज्ञानिक विश्लेकषण करबामे ई असफल रहलाह अछि। गीतक अ‍ाधिक्यैक कारणेँ हिनक कवित्वक शक्ति प्रकाशित भेल अछि। प्रांजल भाषा, वर्णन सौष्ठकव, विभिन्न अलंकारक प्रयोग अति कुशलताक संग भेल अछि।19

राधाकृष्ण। मिलना लीला (1962)मे मात्र गीत तत्वक प्रधानता अछि। एहि नाटककमे कथोपकथन एवं दृश्य -विधानक सर्वथा अभाव अछि। पात्रक प्रवेश एवं निष्क्रिमण तथा रंग-निर्देश आदिक सूचना संस्कृ्त श्लोअक माध्यशमे देल गेल अछि। एहि नाटकक प्रसंगमे डॉ. जयकान्ति मिश्रक कथन छनि जे व्रजक रासधारीक सुविधाक हेतु कालान्तपरमे एहिमे व्रजभाषाक समावेश कयल गेल।20 उपर्युक्तध तीनू नाटककमे नाटकककार मध्य कालीन पारंपरिक नाटकक प्रवृत्तिकेँ यथावत अनुकरण कयलनि। जे एहि सभ नाटकककार रचना आधुनिक कालमे भेल अछि तैं एकर चर्चा एतय अपेक्षित अछि।‍

विशुद्ध मैथिलीमे पौराणिक नाटकक रचनाक श्रीगणेश कयलनि जीवन झा सामवती पुनर्जन्मअ (1908)क रचना क’ कए। प्रतिपाद्य नाटककमे शास्त्रीकय परम्पयरा समीपवर्त्ती युगसँ प्रचलित विभिन्नी नाट्य रूपक समन्व य दृष्टिगत होइत अदि। कथा-प्रवाह द्रुतगतिएँ अग्रसर हाेइछ; किन्तुम नाटकककारक कुशलताक फलस्वमरूप तारतम्या एवं रोचकता कतहु बाधित नहि भेल अछि। कथोपकथन गठित तथा प्रसंगानुकूल अछि। नाटकक संवादक प्रत्येपक वाक्य्मे नाटकीय गतिशीलता अछि आ एको अंश एहन नहि अछि जे अनावश्यवक एवं शिथिल हो। बीच-बीचमे स्वयगत भाषणक आयोजन अछि, जनान्तिकक अवश्यशकतानुसार प्रयोग भेल अछि। एकर आरंभमे नान्दीअ पाठमे मैथिलीक आश्रयण अछि, ओहि प्रकारेँ भरतवाक्यनमे नहि कयल गेल अछि। एहि प्रसंगमे नाट्यालोचक डॉ. प्रेमशंकर सिंहक कथन छनि, एकर कथानक पौराणिक प़ृष्ठपभूमिमे अछि, किन्तुर ई अस्वानभाविक प्रतीकत हाेइछ। एकर कथामे रसक आभास मात्र होइछ जे नाटकीय समीक्षाक दृष्टिएँ दोषपूर्ण अछि। वैवाहिक प्रसंगमे अनेक स्थसलपर असंगतिपूर्ण विषयक उल्ले‍ख भेल अछि। नाट्यकार अपन प्रतिभाक बलपर अस्वागभाविक कथानककेँ स्वाभाविक बनयबाक प्रयास कयलनि अछि। मंगलाचरण, प्रस्ता वना, भरत वाक्ये, चामत्काारकि कथन, श्रृंगारिक कथन, श्रृंगारिक गीत, गजल, ठुमरी, पौराणिक कथानकमे समाजिकताक समावेश कथा- प्रवाहकेँ द्रुत गतिएँ आगाँ बढ़बैछ। एकर कथानक संस्कृात नाट्य परम्पजराक समान परंपरागत अछि जे इतिहास एवं अनुरूप अछि।21

मैथिलीक पारांपरिक नाट्य साहित्य क अन्तछर्गत एक नव आयामक श्रीगणेश करैछ तेजनाथ झाक सद्यः प्रकाशित सुरराज विजय नाटकक। एहि नाटकक रचना काल थिक(1919), किन्तुज एकर प्रकाशन भेल अछि (1995)मे। एहि नाटकक मंचन महाराजाधिराज रमेश्वःर सिंहक समक्ष इन्द्र पूजाक अवसरपर भेल छल। नाटकक मुख्यतः इन्द्रम एवं वृत्रासुरक घटनापर आधृत अछि जाहिमे शचीक संयोग एवं वियोग तथा परंपरागत नाटकक विदूषकक हास-परिहासक रोचक वर्णन कयल गेल अछि। एहि नाटकक विशिष्टकता अछि जे एहिमे लीला वा कीर्त्तनियाँ एवं पाससी थियेटरक शैलीक मिश्रित स्विरूपक परिचय भेटैत अछि। नाटकक परंपरागत नाटकक सदृश पाँच अंकमे विभाजित अछि। नाटकान्त मे भरत-वाक्याक परम्पँरापर आशीर्वादी गीतक नव प्रयोग कयलनि जे नाटकककारक मौलिकता छनि।

नाटकक भाषा अत्यनन्तय स्वाकभाविक, जीवनपूर्ण, प्रवाहमयी एवं प्रभावोत्पासदक अछि। भाषा-शैलीमे भावाचित शब्दत-निर्माण एवं शब्दव चयनमे नाटकककारकेँ अत्यवधिक सफलता भेटलनि अछि। हिनक नाटककमे भाषा-प्रयोग प्राय: पात्रक प्रकृति एवं योग्य तानुरूप एवं विषयानुरूप आ परिस्थितिक अनुकूल भेल अछि। हिनक नाटकक भाषा विषयानुरूप सेहो परिवर्त्तित होइत अछि। भावाभिव्यकक्तिक अनुरूप कोमल पुरुष भाषाक प्रयोग हिनक नाटकक वैशिष्ट्यव थिक। प्रेमक प्रसंगमे भाषा मधुर आ रसपूर्ण दर्शकक हृदयकेँ स्प्र्श करबामे समर्थ अछि। हिनक नाट्य-रचनामे विषयानुसार भाषाक‍ विभिन्नश शैली भावात्माक, व्यंुग्यायत्मक एवं विश्लेोषणात्म‍क रूपक दर्शन होइत अछि। नाटकककार व्यं ग्या त्माक रेखाचित्र अपन नाटककमे विदूषकक माध्य मे उतारलनि अछि। एहन स्थ लपर व्यं।ग्यपक गरिमा तथा लक्षण-व्यंकजना आदि शब्दय-शक्तिक प्रयोग स्पकष्ट ध्वंनित होइत अछि। हिनक गद्य ओ पद्य दुनू समान रूपेँ उच्च कोटिक थिक।22

पारंपरिक मैथिली नाटकक मजत्वकपूर्ण कृति थिक लालदासक सावित्री-सत्य वान (1979) एकर रचना ओ कहिया कयलनि तकर निश्चित समय अद्यावधि अनुसंधेय अछि; किन्तुर एकर किछु अंश मिथिला मिहिर (1909)क अंकमे प्रकाशित भेल छल जकर सूचना विविध साहित्येततिहासिक ग्रंथमे उपलब्धम होइछ। संस्कृ त लक्षण ग्रन्थाननुरूप प्रतिपाद्य नाटकक पारंपरिक शैलीक अनुकरणपर लिखल गेल अछि। एकर मंगल श्लोाक संस्कृ तमे अछि। नान्दीरमे मंगल गीत, महाराजाधिराज रमेश्वथर सिहंक विरूदावली गीत गाओल जाइछ तत्पयश्चा।त प्रस्ताेवनान्त,र्गत वीर, श्रृंगार, अद्भूत, करुण रस सम्मिलित संयुक्ता शास्त्रोाक्तत नाटककमे सावित्री सत्यंवान नाटकककेँ अभिनीत करबाक उद्देश्यलपर प्रकाश देल गेल अछि। नाटकक सम्पू र्ण कथावस्तुक एक अंकसँ दस अंक धरि चलैत अछि। प्रथम अंकसँ पंचम अंक धरि नाटकक पूर्वार्द्ध थिक तथा षष्ठिसँ दशम अंक धरि उत्तरार्द्ध। नाटकक कथानक पौराणक अछि तथा एहिमे नाटकारक अद्भूत कवित्वष शक्तिक संगहि-संग मैथिलीक विलक्षण प्रौढ़ गद्यक प्रारूप उपलब्ध‍ होइछ। मंचनक दृष्टिएँ ई नाटकक अभिनयोपयोगी नहि अछि; कारण संवाद एतेक पैघ-पैघ एवं पात्रक बाहुल्यट अछि जे मंचोपयोगिताक हनन करैछ।23 अन्तपमे भरत वाक्या अछि जाहिमे सर्वेभवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तुी निरामयाक पावन उपदेश देल अछि।

भाषाक कसौटीपर जखन प्रतिपाद्य नाटकक विश्ले षण करैत छी तखन एहिमे दुइ संस्कृकतक श्लोतक प्रयोग भेल अछि प्रथम नाटकक आदिमे आ दाेसर नाटकक अन्तकमे। मैथिली गीतक प्रचुर प्रयोग एहिमे भेल अछि जे स्पमष्टह करैछ जे हिनका संगीतमे विशेष अभिरुचि छलनि। राग-रागिणीक नीक ज्ञान तथा छन्देपर हुनका अद्भूत अधिकार छलनि। इएह कारण अछि जे अधिकांश गीतक संग ओकर रागक निर्देश कयलनि तथा ओकर स्वारक आरोह-अवरोहक विधिक सेहो उल्लेथख कयलनि। एहि नाटककमे भाषागत दोष, शब्दिक अधिकता, वाक्युविन्यािसमे शिथिलता, व्याककरण सम्बशन्धीब कतिपय दोष दृष्टिगत होइछ जे मैथिलीक प्रारंभिक परम्पतरागत नाटकक हेबाक कारणेँ महधत्वत नहि रखैछ।

जीमूतवाहन चरित (1952) पौराणिक परिवेशमे रचित नाटकक थिक। इहो नाटकक पारंपरिक पृ‍ष्ठाभूमिमे लिखल गेल अछि संगहि नाटकीयताक दृष्टिसँ उपयुक्ति प्राय: सभ तत्वकक समावेश अछि। एहि नाटकक विचार - विन्दुउमे सुरेन्द्रय झा सुमनक शब्देँब स्पतष्टव अछि पुरान प्रसिद्व धीरोदात्त चारित जीमूतवाहन नायक छथि। कथावस्तुस गन्धर्व - विद्याधर युगक आख्यावन रहितहुँ आधुनिक रीति नीतिसँ अनुस्यूत रहने रोचिष्णु‍ अदि। कवि अपन समयक संस्कावर द्वारा पुराण युगहुकेँ अद्यतन ओ सजीव बनौने छधि। भाषामे यथायोग्य पात्र मुखे मैथिलीक केन्द्री य ओ प्रान्तीरय प्रयोग प्रचुर अछि जे रूपक रचनाक स्वेभाविक स्रोत अछि।24 किन्तुक कखनहु अति भ’ जयबासँ अस्वारभाविक भ’ गेल अछि। जीमूतवाहनक सासुरक लोक सुनन्दन द्वारा ओझा जीमूतवाहन कहा क’ लेखक अति उत्सािहमे आबि क’ जेना पौराणिकताकेँ खंडित क’ देने छथि।

संस्कृकत लक्षण ग्रंथक प्रणालीपर नाटकक लिखलनि आनन्दक झा सीता स्वयंवर (1995 सं.) क अन्त र्गत जाहिमे नान्‍दी, प्रस्ताववना नान्दीन एवं सूत्रधार पाचँ अंकमे - रामक वैवाहिक प्रसंगक कथानककेँ यथारीतिएँ अनुस्यूगत कयलनि अछि। नाटकक कथानक पौराणिकतासँ ओतप्रोत अछि संगहि विविध भाषाक प्रयोग नाटकककार पात्रक योग्यसतानुरूप क’ कए एहिमे विशेष रोचकता अनबाक उपक्रम कयलनि अछि। खास क’ परशुराम एवं लक्ष्मगणक वार्त्तालाप अत्यबन्तय रोचक अछि। भारत वाक्यखक रूपमे समदाउन गाओल गेल अछि। नाटकककार युगक बुद्धिवादसँ प्रभावित छथि तैं कथोपकथन चमत्काररक नहि भेल अछि। एहिमे पात्रोचित भाषाक प्रयोग स्वातभाविकताक उद्घाटनमे सहायक नहि होइछ, प्रत्यु त मैथिलीक कतिपय उपभाषाक परिचय दैछ। नाटकक पारंपरिक शैलीक अनुरूप रहितहुँ स्थ्ल-स्थँलपर आधुनिकताक छाप नेने अछि। एहि नाटककमे पारंपरिक नाटकक सदृश संस्कृित श्लोिकक प्रयोग नहि भेल अछि। जनकक शासन व्यकवस्थार, आचार-विचार, रहन-सहन एवं रीति-नीतिक वर्णन मिथिलाक अनुरूप भेल अछि जे सीता स्व यंवरक पृष्ठवभूमिमे उचित प्रतीत होइछ।25

ठाकुरप्रसाद झाक सीता परिणय (1960) पाँच अंकमे विभक्त अछि। एहिमे नाटकीकय लक्षणक यथासाध्य निवेश भेल अछि। नान्दी0, प्रस्ता्वना एवं अंक-विभाजन एकर उपयुक्तय अछि। एहि संबंधमे नाटककारक कथन छनि - एहिमे प्राचीन नाटकक छायासँ सूत्रधार, नटी कंचुकी आदि पात्रक प्रवेश कयल गेल अछि तथा मिथिलाक भावपूर्ण रीति, व्यसवहार, सभ्यरता तथा शक्तिक प्रधानता देखाओल गेल अछि।26 एहि नाटककमे डेग-डेगपर गीतक प्रयोग भेल अछि। एकर पात्र कपोल-कल्पित अछि। सीता स्वंेयवर एवं सीता परिणयक कथानकमे समानता अछि।

दामोदर झाक गन्धवर्व विवाह (2010 संवत्)क कथानक यद्यपि महाभारताश्रित अि‍छ तथापि एहिमे सबसँ पैघ बात जे ध्याधनकेँ आकर्षित करैत अछि ओ थिक आधुनिक मैथिल समाजक आचार-व्य वहारक निदर्शन। यद्यपि प्राचीन परम्पुराक परिप्रेक्ष्यामे ई नाटकक लिखल गेल अछि तथापि नवीनताक निदर्शन अनेक स्थरलपर भेटैछ। विवाहोपरान्तल चतुर्थीक भोज, दुर्वाक्षत तथा एतेक दूर धरि जे संबोधन पर्यन्त्मे छोटकी भौजी, करिया भाई, छोटकी दाइ आदिक प्रयोग क’ पूर्णतया मैथिल वातावरण उपस्थित कयल गेल अछि। प्रतिपाद्य नाटकक नाट्य शास्त्रारनुकूल अछि जाहिमे नाटकककारक कौशलक परिचय भेटैछ। एहि प्रसंगमे ित्रलोकनाथ मिश्रक कथन छनि, विद्वान युवक कविक लेखनीक कृति स्वतरूप ई नाटकक नवीन रहितहुँ प्राचीनताक ताहि रूपेँ अक्षुण्णव रक्षा कएने छथि जाहिसँ वर्त्तमान युगक कतोक स्वाच्छन्दे मैथिली कविक निरंकुश काव्यहक हेतु एकरा तीक्ष्णक अंकुश कहि सकैत छी।27

एकर नाट्य-शैली पारंपरिक अछि; कल्पशनामे नवीनतामे नाटकककारक प्रतिभाक निदर्शन होइत अछि। नाटककमे ऐतिहासिक एवं देशकालक तथ्येक अभाव, पात्रक आधिक्यन, शि‍थिल, गति‍हीन एवं नाटकीयतासँ रहित कथोपकथन, पारम्परिक नाट्य सदृश गीतक बाहुल्य , पात्रोचित भाषाक अभाव रहलाक कारणेँ एकर नाटकीयता समाप्ती भ’ जाइत अछि। एहि नाटककमे गद्यक संगहि-संग पद्यक प्रचुर प्रयोग भेल अछि। एहि संदर्भ विष्णुालाल शास्त्रीचक कथन छनि, - एहिमे प्राचीन नाट्य शास्त्रहक नियमक परिपालन करैत नवीनताक समावेश ताहि तरहेँ कयल गेल अछि जे ओहिसँ दुनू दृष्टिक पाठकक रुचिक पूर्ति होएत तथा एहिसँ मैथिलीक नाटकक विषयक अभावक पूर्तिक संग निर्दिष्टच मनोरंजन होएत।28 एहि प्रसंगमे डाॅ. प्रेमशंकर सिंहक कथन छनि यद्यपि प्राचीन परंपराक परिप्रेक्ष्य मे ई नाटकक लिखल गेल अछि तथापि नवीनता अनेक स्थचलपर भेटैछ। ई नाटकक अभिनयोपयोगी नहि अछि। नाटककमे देशकालक तथ्यक अभाव, पात्रक अ‍ाधिक्यन, शिथिल, गतिहीन एवं नाटकीयतासँ रहित कथोपकथन, गीतक बहुलता, पात्रानुकूल भाषाक सर्वत्र निर्वाह नहि इत्यािदि विभिन्नव तथ्याक पर्यालोचसँ सपष्ट भ’ जाइछ जे नाट्यकार असफल छथि।29

जीवनाथ झा दुर्गा विजय (2015 सं.)मे सेहो पारंपरिक नाट्य-शैलीक अनुकरण क’ कए पौराणिकताक परिवेशमे एकर रचना कयलनि। यद्यपि एहि नाटकेँ पारंपरिक नाटकक क्षेत्रमे राखल जाइत अछि, किन्तुे एहिमे ने तँ प्रस्तारवना अछि आ ने विषकंभके। एकर मुख्यम रस वीर, अंगरस हास्यर, करुण, भयानक एवं श्रृंगार अछि। नाटकक अतिशय सरल एवं रोचक अछि। अनुप्रासयुक्त् छोट-छोट कथोपकथन नाटकक वैशिष्ट्य कहल जा सकैछ। आधुनिक मंच विधिक अनुकरण क’ कए नाट्यकार एकरा रंगमंचोपयुक्तय बनयबाक प्रयास कयलनि अछि।

पुत्रदान (1992)मे शंभुनाथ झा अर्जुन-चित्रांगदक पौराणिक आख्याकनकेँ आधार बनौलनि जाहिमे हिनक कवित्व)क संगहि भविष्णुय नाटकीय प्रतिभाक परिचय भेटैछ। एहिमे जनरुचिक रक्षा कयल गेल अछि। नाटकीय रोचकता एंव मंचोपयोगिता एकर वैशिष्ट्यु अछि।

डाॅ. शिवाकान्ते ठाकुर परम्पारागत संस्कृकत नाट्य-शैलीक अनुकरण क’ कए कृष्ण विनु राधा (1984) नाटकक रचना कयलनि जाहिमे राधाक विरह वैशिष्ट्य केँ नाट्य रूप प्रदान कयल गेल अछि। यद्यपि एकर कथानकमे कोनो नवीनता नहि; प्रत्युवत परिपाटीपर आधृत अछि तथापि एहिमे नाट्यकारक मौलिकताक आभास स्थसल-स्थपलपर भैटैछ।

उपर्युक्त नाटकादि पौराणिक परिवेशमे संस्कृ त नाटकक अनुसरण करैत अछि। एहि नाटकादिमे चरित्र-चित्रण विषयक उपस्थापन तथा विकासक चरम परिणति संस्कृतक पारम्परिक नाटकक अनुरूप अछि। एहि नाटकादिमे कोनो प्रकारक नवीनता नहि भेटैछ। जँ नवीनता भेटितो अछि तँ दुइ बातपर - पौराणिक कथानकक भंडारसँ योग्य कथानकक चयन एवं ओकर रूपायतनमे यथासंभव मैथिलत्व दिस झुकाब। अतः नाटकक साहित्यंमे पहिल बेर अंगद, जीमूतवाहन आदि नायकक रूपमे अवतरित कयल गेल छथि। जतय नाटकककार एहन स्थ लक सर्जन हेतु साकांक्ष रहलाह अछि ततय ओ मिथिलांचलक रीति-नीतिक चित्रण कयलनि अछि।
परंपरागत सामजिक नाटक :
पारंपारिक नाट्य-शैलीक अनुकरण क’ कए सामाजिक नाटकक रचना मैथिलीमे सेहो भेल अछि। मैथिलीक सामाजिक परंपरागत नाट्य-शैलीक पुराेधा युगपुरुष जीवन झाक छथि जनिक सुन्दकर-संयोग 30(1904), ईशनाथ झाक (1907-1965) चीनीक लड्डू 31(1960) उल्ले खनीय परम्प3रागत मैथिली नाटकक थिक जकर विश्लेलषण कयल जा रहल अछि।

सामाजिक विषय-वस्तुहक परिप्रेक्ष्येमे पारंपरिक नाटकक लिखनिहारमे जीवन झा सर्वप्रथम छथि जे शास्त्री य परम्पपराक संगहि संग आधुनिकताक समन्वाय कयलनि अछि सुन्द र संयोग मे। एहिमे नाटकीय कौतुहलताकेँ एहि प्रकारेँ समाविष्ट कयल गेल अछि जे पाठकक जिज्ञासाक तुष्टि आद्योपान्तक पढ़ने बिनु नहि होइत अछि।32 सुन्दछर सबकेँ चिन्ह जाइत छथि आ हुनक हाथक लिखल पत्र पढि क’ सरलाक मामा सेहो चिन्हस जाइत छथि; परन्तुौ नाटकककार एहन कौशलसँ दुनू पात्रक संभाषण प्रस्तुहत करैत छथि जे ककरो परिचय करबाक अवसरे नहि भेटैत छनि। यद्यपि कादम्बुरी मस्त कपर लागल तिलक चिन्हनकेँ देखि संदेह करैछ, किन्तुर मिथ्या वाद एवं सरस्वततीक माँक भये ओ प्रत्यहक्ष रूपसँ एकरा प्रकट नहि क’ पबैछ। वास्त्विकताक रहस्योेद्घाटन गाम पहुँचलापर होइछ तखन विस्मरय मिश्रित आनंदक अनु‍भूति होइछ। पाठककेँ पहिनेसँ जागृत जिज्ञासाक तुष्टि एहि प्रसंगपर अनायासे भ’ जाइछ। एहि प्रकारेँ नाटकीय कौतुहलक निर्वाह नाटककारक कुशलता एवं सिद्धहस्तजताक परिचायक अछि।33

यद्यपि एकर कथांश अत्यतल्प अछि। किन्तुल प्रस्तुरतीकरण एवं वर्णन सौष्ठछवमे नाटकककारक प्रतिभा एवं निपुणता प्रदार्शित होइत अछि।34 कथानकक विकास एहन मोड़ उपस्थित करैछ जे ओहिमे अनायासे नाटकीय व्यतग्ंकय एवं उत्सुकताक वृद्धि होइत अछि। कथोपकथछन छोट, चुस्त , सरस, हृदयस्पर्शी एवं नाटकीयतासँ परिपूर्ण अछि। भाषा संस्कृनतनिष्ठ , प्रांजल एवं माधुर्य्य गुणसँ संयुक्तय अछि। एकहि सामाजिक स्तारक पात्रक सन्निवेशक कारणे भाषाक एकरूपता दृष्टिगत होइत अछि। भावावेशक स्थालपर अवश्येस ओहिमे भाव-भार-वहनक अद्भूत शक्ति देखबामे अबैछ।

चरित्र-चित्रणक दृष्टिएँ नाटकककार असफल छथि। एहि छोट नाटककमे पात्रक बाहुल्यव अछि जाहिसँ पात्रक वैशिष्ट्या नहि प्रकाशित भ’ पबैछ। किन्तुे नाटककारक वैशिष्ट्यज अछि जे एहन संवाद योजना कयलिनि अछि जे प्रत्ये क पात्रक मनोवृत्तिक संकेत भेटि जाइत अछि।35 तीर्थस्थाेनमे अनावश्याक लज्जाम एवं औपचारिकताक कारणेँ ओ अपन परिचय नहि दैत छथि। ई हुनक शालीनता एवं धीरप्रशान्तकक द्योतक थिक। सरलाक हृदयमे प्रेम वियोगक ज्वाीला प्रज्‍जवलित अछि प्रमाणमन्तः कारण प्रतृत्तयः क’ आधारपर ओ आपन प्रेमी दिस आकअर्षित होइत भाव प्रगट नहि करैत छथि; किन्तुत व्रीहावश नहि कहि पबैत छथि। अपन अन्त र्द्वन्द्व केँ ओ अपन सखी पर्यन्ततकेँ नहि कहैत छथि। सरोजक कथनसँ स्परष्टज अछि जे ओ सहृदया, चचंल एवं प्रौढ़ छथि। मनोवैज्ञानिकताक अभावमे नाटकककार चरित्र-चित्रणमे निपुणता नहि प्राप्तो क’ सकलाह।36

एहिमे पचीस मैथिलीक एवं चारि संस्कृनतक गीत प्रयुक्त भेल अछि जाहिमे पन्द्र्ह मात्र चतुर्थ अंकमे अछि। एहि गीतक भावादि स्पकष्ट करैछ जै नाटकककारकेँ साहित्यिक एवं लोकजीवनक परंपराक अनुभव छलनि तँ दूनूक समन्यातत्माक स्विरूपक परिचय देलनि। गीतक बाहुल्युक कारणेँ कथा-प्रवाहमे गतिरोध आबि गेल अछि। एहिमे प्रयुक्तर गीतसँ हमरा प्रतीत होइछ जे हिनकापर मिथिलाक कीर्त्तनिया वा लीला एवं पारसी थियेट्रिकल कम्पसनीक शैलीक प्रभाव अछि।37

मैथिली नाट्य-साहित्यलक इतिहासमे असंदिग्धव रूपें ईशनथ झाक चीनीक लड्डू (1937-39)सर्वश्रेष्ठइ पारंपारिक सामाजिक नाटकक थिक। एहिमे पारिवारिक वातावरणक जीवन्तस चित्र उपस्थित कयल गेल संगहि दुष्ट एवं धूर्त्तसँ साकांक्ष रहबाक संकेत भेटैत अछि। एक सुखी-सम्पगन्नष परिवार कुचक्र एवं कलहक कारणेँ कोना मरूभूमि बनि जाइछ तकर हृदयस्पसर्शी चित्र नाट्यकार प्रस्तुकत कयलनि अछि। परिवारक रेखाचित्रकेँ नाट्यकार अत्यपन्ती सतयर्कताक संगहि पारिवारिक विषम स्थिति, कलह एवं ओकर दुष्पमरिणाम दुष्टतक सरलता तथा वैमनस्यरसँ अनुचित लाभ उठौनिहार आ अन्त मे कुकृत्यदक फलभाग आदि तथ्यवसँ समाजकेँ साकांक्ष रहबाक संकेत देलनि अछि।38

एहिमे नाटकककारक प्रतिभा सजीव भ’ गेल अछि जे ओ पारंपरिक भारतीय एवं पाश्चा्त्यक नाट्यकलाकेँ सहज समन्वित रूपमे प्रस्तुओत करबामे हिनक वै‍शिष्ट्या छनि। नाटकककार शेक्सपियरक ऑथेलोसँ खलनायक, संघर्ष आदिसँ प्रेरणा ग्रहण क’ कए ओहि विषय-वस्तुलपर भारतीय नाट्य-कलाक अवतारणा कयलनि। ऑथेलोक खलनायक इयागोसँ प्रेरणा ग्रहण क’ नाटकक खलनायक बटुआदास, प्रेमकान्ता एवं हुनक पत्नीरक सरलताक अनुचित लाभ उठबैछ।

एहिमे पाश्चा‍त्यक शैलीक अनुकरणपर भारतीय शैलीक आवरणक कारणेँ ई नाटकक सहज रूपमे आकर्षक एवं गतिशील भ’ गेल अछि। एहिमे कथा एवं चरित्र वैचित्र्यक पूर्ण विधान अछि। कथा प्रवाह सहज गतिसँ अग्रसर होइत अकस्मा्त् अपन धारामे एहि वेगसँ एक आवर्त्त उत्पान्न करैछ जे छल, प्रवंचना विश्वा सघात आ तज्जधन्ये निराशा - अंधकारक संघर्षक कारणेँ सुधाकान्तच ओहिसँ ग्रस्त भ’ कए अकालहि कालक ग्रास बनि जाइत छथि। एकर संघर्षक कारणेँ कथानकक धारा कखनो वेगवती भ’ जाइछ तँ कखनो सर्प गतिवाली। घटना क्रममे कतहु निर्मल आ स्वा भाविक प्रेम, औदार्य, मातृ वत्सहलता, शांति तथा संतोष अछि तँ कतहु ईर्ष्याह, द्वेष, हत्या् संकीर्णता आ लोभ। एहि प्रकारेँ नाटकक पाश्चानत्य शैलीक अनुसारेँ विरोधक चरम सीमा आ नियतिक आधारपर कथा‍नकक सृष्टि कयल गेल अछि।39

भा‍रतीय पद्धतिक अनुसारेँ गर्भ-संधिक आधार पर एकर नामकरण चीनीक लड्डू कयल गेल अछि। एहि लक्ष्यकक प्राप्तिक हेतु नायक एवं अन्यक पात्र सतत उद्योगशील रहैछ। जँ सुधाकान्त‍क मृत्यूहपरान्तन नाटकक समाप्तो भ’ जाइत तँ भारतीय वा पाश्चाजत्या पारंपरिक शैलीक अनुसारेँ कोनो सफल प्रयोग नहि होइत। कारण भारतीय पद्धतिक अनुसारेँ ने तँ नायककेँ फल प्राप्ति, आ ने पाशचात्य पद्धतिक अनुसारेँ खलनायककेँ समुचित न्याकये भेटि सकैत। अतएव नायकक मृत्यु‍ भ’ जाइछ तथापि भारतीय मान्य्ताक अनुरूप आत्मा। वै जायते पुत्रः आत्माूक प्रतीिक ओकर आत्माजकेँ प्राप्तत होइत अछि। अतएव नाटकक करुण सुखान्त अछि।

नाटककमे कथोपकथनक सर्वोपरि स्थाजन अछि जकनर निर्वाहमे नाटकककारकेँ सफलता भेटलनि अछि। कथा-वस्तुाक विकास, कौतूहल, नाटकीय व्यं ग्य।, चरित्रक विकास मात्र संवाद तत्व् पद निर्भर करैछ। उपर्युक्ता नाटककमे सब गुण वर्त्तमान अछि। एहि नाटककमे भारतीय पारंपरिक एवं पाश्चात्यक शैलीक उत्कृाष्ट समन्वएयात्मतक रूप उपस्थित करैछ। एहि नाटकक फलागम दुष्टक व्यावक्तिकेँ समुचित न्यावयक आदर्शक उद्बोधन कयल गेल अछि।40

एहि पारंपरिक नाटककमे गीत आ संगीतक प्राचूर्य अछि संगहि-संग कथोपकथनमे मैथिलीक सुन्दार गद्यक स्वकरूप भेटैछ। एहिमे गीतक जे प्रयोग भेल अछि ओ नी‍रसताक परिहार क’ रसोत्पाटदन करबा, वातावरणक सृष्टि करबाक तथा पात्रक मनोभाव आ चरित्रगत विशेषताकेँ प्रगट करबामे सहायक भेल अछि। कथोपकथनक भाषा विषयानुकूल एवं पात्रक स्थिति, योग्यकता एवं प्राकृतिक प्रयुक्तत भेल अछि।
परम्पछरागत प्रतीलक नाटकक :
पारंपरि।क नाट्य-शैलीक अनुकरणपर एक मात्र प्रतीोक नाटकक उपलब्धु होइछ ओ थिक आधुनिक मैथिलीक शिलान्यारसकर्त्ता साहित्यथरत्नाकर मुंशी रघुनन्दतन दासक मिथिला नाटक (1923)। एहि नाटकक पृष्ठतभूमि पारंपरिक नाटकक पूष्ठिभूमि थिक। यद्यपि ई नाटकक संस्कृरत लक्षणग्रंथानुसारेँ नहि लिखल गेल अछि तथापि एकरा हम पारंपरिक नाटकक श्रेणीमे राखल, अछि कारण जाहि पृ‍ष्ठ भूमिमे ई नाटकक लिखल गेल छल ओहि नाटककमे नान्दी , प्रवेशक, विषकंभक गर्भ-संधि एवं भरत-वाक्यछक प्रयोग भेल अछि तथापि एकरा पारंपरिके नाटकक कहब उचित हैत। नाटकककार एहिमे अपन विविध भाषाक ज्ञानक परिचय देलनि अछि। एहिमे संस्कृततमे श्लोिक, मैथिलीमे गद्य-पद्य, बंगला, हिन्दी् आदि विविध भाषाक नुमाइश कयलनि अछि। हिनक भाषाक विम्बप विधायिनी शक्ति अपार अछि। वक्ताि बोधव्यह आ श्रोताक अनुकूल हुनक भाषा बदलैत अछि। संस्कृनत नाटकक समान भेदकेँ अपनौलनि अछि। शिक्षित एवं अशिक्षित पात्रक भाषामे विविधता ई पारंपरिक नाटकक अनुरूप अपनौलनि अछि। एहिमे पात्रक एतेक बहुलता अछि जे मंचोपयोगिताक दृष्टिएँ उपयुक्त नहि कहल जा सकैछ तथापि एकर अभिनयक प्रसंगमे सूचना भेटैछ, कारण ओहि समयमे अभिनयोपयोगी नाटकक मैथिलीमे सर्वथा अभावे छल।41

परंपरागत ऐतिहासिक नाटकक :

विद्यापतिक जीवन वृत्तकेँ आधार बना क’ मैथिलीमे अत्‍यधिक नाटकक रचना भेल; किन्‍तु परंपरागत शैलीक अनुकरण कयनिहारमे उल्‍लेखनीय छथि ईशनाथक उगना 42 (1956), डाॅ. व्रजकिशोर वर्मा मणिपद्मम (1918-1986)क कंठहार 43 (2021), विक्रम. संवत् जीवनाथ झाक वीरनरेन्‍द्र 44(1956), राधाकृष्‍ण चौधरीक (1924-1985) राज्‍याभिषक 45(1962) एवं गोविन्द झाक रुक्मिणीहरण 46 (1989) इत्यादि।

विद्यापतिक भक्ति-भावनासँ प्रसन्नज भ’ कए महादेव हुनक सेवामे छलथिन; किन्‍तु रहस्‍योद्घाटनक पश्‍चात् ओ अन्‍तर्ध्‍यान भ’ जाइत छथि। एहि प्रसंगमे रोचकता एवं नाटकीयता अनबाक हेतु अनेक काल्‍पनिक पात्रक नाटकककार सृष्टि कयलनि अछि। एहि काल्पनिक पात्रक कारणेँ नाटककमे स्वाभाविकता एवं मनोवैज्ञानिकताक संगहि परम्परागत नााट्य-शैलीक अनायासहि निर्वाह भ’ गेल अछि। नाटकककार एहिमे विद्यापति कालीन समाजक समसामयिक स्थितिक आंशिक ज्ञान देलनि अछि। नाटककमे सफल रूपसँ ऐतिहासिकता, सामाजिकता एवं रूपकत्‍वक निर्वाह नाट्यकारक कौशल एवं ठोस मौलिक चिन्‍तन-प्रतिभाकेँ प्रदर्शित करैत अछि। एकर कथा–प्रवाह रोचकता आ मनोवैज्ञानिकताक संग अग्रसर होइत अछि जाहिसँ नाटकीय कौतूहलक प्राप्ति होइछ।47 चारित्र-चित्रणकक दृष्टिएँ नाटकक पूर्णतया सफल अछि। एहि नाटकक आकर्षणक केन्‍द्र-बिन्‍दु थिक। विद्यापति अपन दार्शनिक, भावुक भक्‍त आ सांस्‍कृतिक चरित्रक कारणेँ पाठक एवं दर्शकपर अमिट छाप छोड़ैत छथि। अतएव हुनक चरित्र सरलता एवं सादगीक प्रतीक थिक। कथोपकथनमे नाटकीय लाधवक ध्‍यान राखल गेल अछि। प्रत्‍येक वाक्‍यमे गणित अछि। क‍तहु अनावश्‍यक विस्‍तार नहि कयल गेल अछि। एकर संवाद छोट, नाटकीय आ भाव-व्‍यंजक अछि। कथोपकथन चारित्रिक वैशिष्‍ट्यकेँ स्‍पष्‍ट करैत अछि। ई नाटकक मंचोपयोगी अछि। इएह कारण अछि जे एकर अभिनय शहरी एवं ग्रामीण परिवेशमे अनेक बेर भेल अछि।48
वीर नरेन्‍द्र नाटकक (1956) एक ऐतिहासिक, मौलिक वीर रसात्‍मक नाटकक थिक जाहिमे वीर नरेन्‍द्र सिंहक वीरता प्रतिपादित अछि जकर रचना नाटकककार ऐतिहासिक परिवेशमे कयलनि अछि। एहि प्रसंगमे सुरेन्‍द्र झा सुमनक कथन छनि लेखक, बड़ निपुणतासँ नाटकीय कथा-वस्‍तुक विन्‍यास कयने छथि। रंगमंचक अनुकूल दृश्‍यक विभाग करैत, सूच्‍य अंशकेँ लक्षणानुकूल विषकम्‍भक-प्रवेश द्वारा यथास्‍थान निवेशक कथानकक जटिलताकेँ लेखक सोझरौने छथि। कथोपकथन जे नाटकक रीढ़ थिक, पात्रक प्रकृतिक अनुरूप प्रभावोत्‍पादक भाषामे अछि।49 प्राचीन परम्‍परानुरुप आधुनिक रंगमंचक हेतु ई प्रथम मैथिली नाटकक थिक।50
राधाकृष्‍ण चौधरी ऐतिहासक पृष्‍ठभूमिमे राज्‍याभिषेक(1962)क रचना कयलनि जाहिमे विशेषत: मिथिलाक इतिहास प्रच्‍छन्‍न पृष्‍ठकेँ उद्घाटित कयलनि अछि। ओइनवार वंश (1353-1526)क प्रसिद्ध राजा महाराज शिवसिंह (1413-1416) मिथिलाकेँ स्‍वतंत्र घोषित कयने छलाह तकर रक्षार्थ ओ सतत युद्धरत रहलाह आ अन्‍ततः वीरगतिकेँ प्राप्ति कयलनि। यद्यपि शिवसिंहक राज्‍याभिषेक तँ नहि भेलनि, किन्‍तु लखिमा हुनक मुकुट ओ शंखवलाक टुकड़ीकेँ विधिवत राज्‍याभिषेक कयलनि। नाटककमे शिवसिंहक राज्‍याभिषेक तथा स्‍वतंत्रता संग्रामक हेतु विविध मंत्रणाक अनुपम चित्र भेटैछ।
यद्यपि नाटकक भाषा पात्रोचित अछि किन्‍तु स्‍थल-स्‍थलपर स्‍वाभाविकताक हनन भेल अछि। बंगदूत एवं इब्राहिम साहक दूतक मैथिली बाजब अनुपयुक्त कहल जा सकैछ। नाटकक वीर रसावेष्टित अछि। ई मैथिलीक दुखान्‍त पारंपरिक नाटकक थिक। पैघ-पैघ कथोपकथन एवं जटिल दृश्‍य विधानक कारणेँ ई नाटकक रंगमंचोपयोगी नहि अछि। 51 मैथिलीमे विदयापतिक पृष्‍ठभूमिमे कतिपय नाटकक रचना भेल, किन्‍तु ओहिमे व्रजकिशोर वर्मा मणिपद्मक कंठहार (2021) विक्रम संवत् नाटकक एक पृथक अस्तित्‍व अछि, कारण ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमिमे रचित एहि नाटककमे नाटकककार काल्‍पनिकताक कतहु प्रयोग नहि कयलनि अछि। विद्यापति शास्‍त्र एवं शास्‍त्र दुनू विषयक ज्ञाता रहथि। गढ़ गोढ़ियारीक समर क्षेत्रमे हिनक शस्‍त्र-शास्‍त्र विषयक ज्ञानक परिचय भेटैछ। ई नाटकक पारंपरिक शैलीमे लिखल गेल अछि जे एकर विशिष्‍टता थिक। नाटकककार प्राचीनतामे नवीनता, नवीनतामे आधुनिकता आ आधुनिकतामे सरसता अनबाक चेष्‍टा कयलनि अछि। नाटकक कथोपकथन यद्यपि सजीव अछि तथापि एहिमे उपन्‍यासक रोचकता, नाटकक अभिनीयता एवं संगीतमयता सहज प्रस्‍फुटित भेल अछि। घटनाक बाहुल्‍यक कारणेँ एकर मंचोपयोगितामे हनन करैछ।52
मैथिलीक पारपरिक शैलीमे लिखित गोविन्‍द झा (1923) रुक्मिणी-हरण (1989) कृष्‍ण लीलाक अनेक कथामेसँ रुक्मिणी हरणक इतिहास प्रसिद्ध कथाक पृष्‍ठभूमिमे युगीन यथार्थक प्रक्षेपण प्रतिपाद्य नाटकक विशेषता थिक। मैथिली नाटकक क्षेत्रमे ई एक नवीन एवं अभिनव प्रयोग अछि। नाट्यकार अत्‍यन्‍त सजीवताक संग पारंपरिक शैलीमे फिंरगी द्वारा कयल गेल मजदूरपर अत्‍याचारक विरुद्धमे क्रान्तिक स्‍वरक आह्वान कयलपनि अछि। नाट्यकार ऐतिहासिक तथक आलोकमे रुक्मिणीक प्रेम प्रसंगक कपोल-कल्‍पना एहिमे कयलनि अछि। एहि नाटकान्‍तर्गत मिथिलाक सांस्कृततिक एवं सामाजिक परिदर्शन दू स्‍तरपर चलैत अछि। एक भाग आम जन-जीवन, जमींदारक अय्याशी लीला। गौरक आतंक एवं शोषणक विरूद्ध होइत जनताक आक्रोश वा विद्रोहक कथा तथा दोसर भाग विसरल भुतिआएल विरासतक सशक्‍त नाट्य-शैली कीर्त्तनिया वा लीला नाटकक स्‍मरण करबैत अछि।53

प्रतिपाद्य नाटककमे विभिन्‍न सत्ताक केन्‍द्रमे सत्ता वर्गक पारस्‍परिक द्वन्‍द्व अन्‍तर्विरोध, अहंकार आ वैमनस्‍य एवं युद्धक कथा कहैत अछि जाहिमे जनसामान्‍यक भूमिका मूक दर्शक रहैछ जाहिमे जनसामान्‍यक कोनो हस्‍तक्षेप नहि होइछ। समयक क्रममे मि‍थिलांचलक सामाजिक आ राजनीतिक परिदृश्‍यमे परिवर्त्तन होइछ। शनैः-शनैः व्‍यापारी रूपमे समस्‍त मिथिलांचलमे अंग्रेज अपन हाथ पैर पसारि लेलक। एहिठामक राजा, जमींदार आ अमला सभ अंग्रेजक हाथक कठपुतरी बनि गेल तथा अनायास प्राप्‍त संवृद्धिसँ निरंकुश बनि गेल। एहिठामक विपुल प्राकृतिक संपदा, मेहनती मजदूर, विशाल भूमि एवं ललनाक आकर्षक सौन्‍दर्य अंग्रेजकेँ उन्मत्त बना देलक। तानाशाही प्रवृत्तिक अंग्रेज एत्तुका लोकक प्रति पशुवत व्‍यवहार करय लागल। ई आक्रोशाग्नि व्‍यक्तिसँ समाजमे पसरि गेलैक। समाजमे अद्भूत उत्तेजना अयलैक तथा ओ व्‍यग्र भ’ कए अंग्रेजकेँ ध्‍वंस करय लागल।54
यद्यपि मैथिली नाट्य साहित्‍यक अन्‍तर्गत ऐतिहासिक नाटकक अभाव नहि अछि तथापि प्रत्‍येक नाटकक पारंपरिक नाटकक परिधिमे नहि अबैछ। मैथिली पुरोधा विद्यापति (1350-1938)क जीवन-चरित्रकेँ केन्‍द्र-विन्‍दु मानिक एक दर्जन नाटकक लिखल अछि, किन्‍तु ओ सब पारंपरिक नाटकक शास्‍त्रीय परंपरासँ अपन पृथक अछि तेँ एतय उल्‍लेखनीय नहि।

कीर्त्तनियॉं वा लीला नाटकक शैलीक परिवेशमे वर्त्तमान शताब्दीनक नवम दशाब्दिमे गोविन्दन झा तद्वत पारंपरिक नाटकक रचना कयलनि जे वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य्मे परंपरागत प्रवृत्तिक नाट्यरचना संभव अछि तकर ज्व लन्तम प्रमाण उपर्युक्त् नाटकक अनुशीलनसँ भ’ जाइत अछि।
पारंपरिक विभिन्नत भाषासँ अनूदित मैथिली नाटकक :
भारतीय अन्यािन्य साहित्यैमे विविध भाषाक नाटकक अनुवादक ज्वा्र आयल तकरे फलस्वयरूप मैथिली साहित्यायन्तीर्गत परंपरागत नाटकक अनुवादक श्रीगणेश भेल। मैथिलीमे अद्यावधि जतेक नाटकक अनूदित भेल अछि ओकरा हम परंपरागत नाटकक श्रृंखलान्त र्गत राखि सकैत छी, कारण अनुवादक लोकनि ओहने नाटकक अनुवाद मैथिलीमे कयलनि जे अपन साहित्यतमे पूर्ण प्रतिष्ठित छल। संस्कृकत, अंग्रेजी एवं फ्रेंचसँ मैथिलीमे नाटकक अनुवाद भेल अछि जे संस्कृ त नाटककसँ निश्‍िचत रूपेण शास्त्रीँय परंपराक अनुशीलन करैत अछि।
अंग्रेजी शिक्षा, संस्कृपति एवं साहित्येक प्रचूर प्रसारक फलस्वरुप अंग्रेजी नाटकक मैथिलीमे अनुवाद भेल जे हमर पारंपरिक नाट्य-रचना विधानकेँ अतिशय प्रभावित कयलक अछि। शिक्षा-संस्थादिमे अंग्रेजी नाटकक अभिनयक पद्धति हमर परम्परागत अभिनय पद्धतिकेँ परिवर्त्तित क’ देलक अछि। परम्पभरा एवं विधानसँ ई अभिनयमे एक नव स्पदन्देन भरि देलक अछि। चमत्काकरपूर्ण कथानक तथा कतहु-कतहु गीत वा संगीत आ नृत्यनक प्रबन्ध क नाटकककार जनताक युगीन रुचिक परितोष कयलनि अछि। जनरुचिक परिमार्जनक रूप मैथिली नाटकक एक निजी वैशिष्ट्य अछि।
अंग्रेजीसँ अत्यिल्प नाटकक अनुवाद मैथिलीमे भेल अछि। एहि दिशामे राजेन्द्रे झा स्व्तंत्र सुप्रसिद्व नाट्यकार शेक्सुपियरक ऑथेलोक’ अनुवाद देशमणि 55 (1957) एवं एज यू लाइक इटक राजमीण 56(1968) तथा इब्सअनक द घोस्टदक अनुवाद दामोदर झा भूतक छाया 57(1965) विशेष उल्लेथखनीय अछि। फ्रेंच भाषासँ एकमात्र एकांकीक अनुवाद मैथिलीमे प्रकाशित भेल ओ थिक ऑस्क्र वाइल्डलक सालोम क सलोम 58 (1965)क अनुवाद कयल‍नि डॉ. इलारानी सिंह (1945-1995)।
संस्कृकत नाट्य साहित्य9क विशाल परिप्रेक्ष्यरमे जतेक नाटकक मैथिलीमे अनूदित भेल अछि ओकरा हम पारंपरिक नाटकक श्रेणीमे रखैत छी, कारण ओहि सभक रचना संस्कृरत लक्षणानुसारेँ भेल अछि। संस्कृ्तक नाटकक तँ पारंपरिक नाटकक अछिए तँ ओहिमे पारंपरिक अनुवाद मैथिलीमे भेल अछि यथा महाकवि कालिदासक 59 अभिज्ञान शाकुन्तेलमक अनुवाद कयलनि ईशनाथ झा मैथिली शकुल्तकला नाटकक (1367 साल) एवं महाकवि शूद्रकक मृच्कथा टिकम् मैथिली मृच्छककटिक 60 (1955)। मैथिली साहित्यलक क्षेत्रमे प्रगीतिशीलता अनबाक दृष्टिएँ जीवानन्दट ठाकुर (संस्कृित नाटकक अभ्यु दय कालक) महाकवि भास रचित विभिन्न् नाट्कावलीकेँ गद्य-पद्यानुवाद कयलनि जाहिमे अभिषेक 61(1945) भास नाटकावली, भाग- दू मे दूतवाक्यज मध्य)म व्यायोग एवं पंचरात्र 62 (1947), भास नाटकावाली, भाग-तीन मे उरु भङ्ग एवं बाल चरित 63(1948) एवं भास नाटकावली भाग-चारि मे कर्णभारम् एवं दूत घटोत्वंच 64(1373 साल) उल्लेाखनीय अछि। महाकवि का‍लिदासक दुइ नाटकक मैथिलीमे अनुवाद भेल जाहिमे मालविकाग्नि मित्र 65(1354 साल) एवं विक्रमोर्वशीय 66 (1945)क अनुवादक क्रमश: छथि गोविन्दह झा एवं भवनाथ झा छथि।

मैथिलीमे हर्षक रत्ना6वली नाटिकाक दुइ अनुवाद उपलब्ध् होइछ जाहिमे परमानन्द झा67 द्वारा 1956 मे तथा सुन्दबर झाा शास्त्रीम68 द्वारा 1962 मे अनूदित भेल जे प्रकाशित अछि। भवभूतिक उत्तर रामचारितक सेहो दुइ अनुवाद मैथिलीमे उपलब्धर अछि। एकर अनुवादक छथि डॉ. राजकुमार मिश्र69 जकर प्रकाशन 1954 मे भेल; किन्तुक साहित्यॉरत्नारकर मुंशी रधुनन्दुन दास70 द्वारा अनूदित नाटकक प्रकाशन भेल 1982मे। मुंशी रघुनन्दयन दास द्वारा अनूदित उतर रामचरित साहित्यिक मूल्य सँ वेसी वर्त्तमान परिप्रेक्ष्यॉमे एकर ऐतिहासिक मूल्यअ भ’ गेल अछि।

परमानन्दन झा वाणभट्टक पार्वती परिणय 71 (1964)क डॉ. सुधाकर झा शास्त्रीन (मृत्यु1974 ) विशाखदत्तक मुद्राराक्षस 72 (1965-66) एवं आनन्द् झा जयदेवक प्रबोध चन्द्रो्दय 73 (1941) क मैथिली पद्य-गद्यानुवाद कयलनि।

उपर्युक्तु संस्कृ त नाटकादि मैथिलीक पारंपरिक नाट्य साहित्यल श्रृंखलामे एक नवआयाम निर्माण करबामे सहायक सिद्व भेल। कोनो भाषाक साहित्यर तावत् पूर्णत: समृद्ध नहि भ’ सकैछ यावत् ओ अपन पूर्ववर्त्ती वा समकालीन साहित्य्क समुचित ज्ञानकेँ आत्मणसात नहि कयने हो। विशेषत: संस्कृकत-साहित्यस जाहिमे भारतीय आत्माकक छवि युुग - युुगसँ झलकैत आयल अछि, ओकरा छोड़ि दी तँ कोनो भारतीय भाषा साहित्य अपन उन्तिकयन नहि क’ सकैछ। इएह कारण अछि जे अद्यावधि मैथिलीक अभ्युनन्न तिक हेतु संस्कृित नाट्य साहित्यिक अनुवादक लोकनि अनुपम रत्नै सभक सौन्दतर्य अपना भाषाकेँ उन्नृतिक पथपर अग्रसर करबाक हेतु एक अभावक पूर्ति कयलनि अछि। मैथिलीमे रोचक गद्य - पद्यमे अनुवाद क’ कए अनुवादक लोकनि पारंपरिक नाटकक क्षेत्रमे उल्लेनखनीय कार्य कयलनि अछि।
निष्कनर्ष :
उन्नैदसम शताब्दी क छठम दशाब्दरसँ मैथिली साहित्य्मे आधुनिक कालक प्रारंभ होइछ तहियासँ ल’ कए स्वामतन्त्र्योत्तर काल धरि मैथिली नाटकक विविध प्रवृत्तिक दिग्दसर्शन होइत अछि। मध्यवकालीन पारंपरिक मैथिली नाटकक प्रभाव आधुनिक कालक मैथिली नाटकककारपर एतेक वेसी पड़लनि तेँ आधुनिक कालक प्रारंभिकावस्थाशमे महामहोपाध्यातय हर्षनाथ झा ओकर अक्षरस: अनुकरण क’ कए नाट्य रचना कयलनि। दोसर प्रवृत्तिक नाटकककार भेलाह युगपुरुष जीवन झा जे ओ ओहि परंपराक अनुकरण तँ आवश्य्क कयलटनि, किन्तुन नाटककमे गद्यक प्रयोगक एक ओहिमे नवीनता अनलनि, किन्तुय हुनको प्रवृत्ति पारंपरिके रहल। हिनक शैलीकेँ अनुकरण कयलनि साहित्यिरत्नानकर मुंशी रघुनन्दतन दास जे अपन नाटककमे कथानकमे तँ नवीनता अवश्यह अनलनि, किन्तु जतेक दूर धरि विषय उपस्थाशपनक प्रश्ने अछि ओहिमे जीवन झाक द्वारा जे मार्ग प्रशस्तत कयल गेल छल तकरे आगॉं बढ़ौलनि। लालदासक गद्यमे तत्स म शब्दमक बाहुल्यनक कारणेँ ओ बोझिल बनि गेल, किन्तुि ओ संस्कृ त रेखाकंन अल्प प्रयोग कयलनि। विशुद्ध रूपेँ पारम्प रिक नाटकक रचना कयलनि तेजनाथ झा जे मात्र पद्य-गद्यमे सुरराज विजय नाटकक रचना कयलानि।

अधिकांश पारंपरिक नाटकक कथानक पुराणाश्रित एवं महाभारताश्रित रहलाक कारणेँ ओकर मंचनमे असुविधा भेल जाहि कारणेँ नाटकक मात्र पठनीय बनि भेल। सामाजिक नाटकक, प्रतीक नाटकक, ऐतिहासिक नाटकक जे पारंपरिक शैल‍ीक अनुकरणपर लिखल गेल आेहिमे सँ किछु एहन अछि जकरा अभिनयोपयोगी कहल जा सकैछ।

अतएव समग्र रूपेँ पर्यालोचन कयलासँ स्वात: स्पकष्टा भ’ जाइछ जे मैथिलीक पारंपरिक नाटकक विषय तथा ओकर प्रतिपादन शैलीमे निरन्त:र विकासक गति परिलक्षित होइत अछि। पारंपरिक मैथिली नाट्य-साहित्यि उपयुक्तक मंचक अभावमे देश-कालानुरूप अनेक उत्सथसँ सम्पसर्क आ प्रभाव ग्रहण करैत जनमानसकेँ अनुरंजित एवं उद्वेलित करैत‍ रहल अछि। जाहि नाटककमे मानव जीवनक अतलमे प्रवेश क’ कए ओकर शाश्वकत-भावनाकेँ उद्वेलित करबाक क्षमता रहत वै‍ह नाटकक चिरस्थासयी भ’ सकैत अछि।
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74. चन्द्रपकान्त, झा, पी. मोद प्रेस, कचौड़ी गली, काशी, 1941

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