जगदीश प्रसाद मण्डल जीक तेसर नाटक। ऐ सँ पहिले ‘मिथिलाक बेटी’ आ ‘कम्प्रोमाइज’। तीनू नाटक अपन औपन्यासिक विस्तार आ
काव्यात्मक दृष्टिसँ परिपूर्ण। लेखक समकालीन विश्व आ गद्यक पारस्परिकतासँ नीक जकाँ
परिचित छथि, तँए हिनकर संपूर्ण रचना-संसारमे समकालीनताक वैभव पसरल अछि, जत्ते
वैचारिक, ओतबे रूपगत। समकालीनताक प्रति हिनकर झुकाव ‘झमेलिया
बिआह’क एकटा विशेष स्वरूप दैत छैक। बारह सालक नेनाक बिआहक
ओरियाओन करैत माए–बापक चित्र जत्ते हँसबै छैक, माएक बेमारी
ओतबे सुन्न। लेखकक रचना संसारमे काल-देवताक लेल विशेष जग्गह, तँए ई नाटक प्रहसनक
प्रारंभिक रूपगुण देखाबितो किछु आर अछि। पहिले दृश्यमे सुशीला कहैत छथिन ‘राजा दैवक कोन ठेकान..., अगर दुरभाखा पड़तै तँ सुभाखा किअए ने पड़ै छै...।’ आ राजा, दैवक कर्तव्यक प्रति ई उदासीनताक अनुभव समस्त आस्तिकता आ भाग्यवादिताकेँ
खंडित करैत अछि।
सभ नाटकमे भरत मुनिकेँ खोजनाइ जरूरी नइ, ओना उत्साही विवेचक अर्थ-प्रकृति,
कार्यावस्था आ संधिक खोज करबे करता, आ कोनो तत्व नइ मिलतनि तँ चिकडि़ उठता। यद्यपि
लेखकक उद्देश्य स्पष्ट अछि। शास्त्रीय रूढ़ि जेना–नान्दी पाठ, मंगलाचरण, प्रस्तावना, भरतवाक्यक
प्रति लेखक कोनो आकर्षण नइ देखबैत छथिन। एतबे नइ पाश्चात्य नाट्य सिद्धांतकेँ
हूबहू (देकसी) खोजएबलाकेँ आलस सेहो लागतनि। तँए ‘झमेलिया बिआह’ नाटकमे स्टीरियोटाईप संघर्ष देखबाक ईच्छुक भाय लोकनि कनेक बचि बचा के
चलब। विसंगति आ समस्या नाटकक फार्मूलाकेँ नाटकमे खोजएबलाकेँ सेहो झमेला बुझा सकैत
छनि, किएक तँ लेखक कोनो फार्मूलाकेँ स्वीकारि के नइ लिखैत छथिन ।
सीधा-सीधी अंक-बिहीन ‘झमेलिया बिआह’ नओ गोट दृश्यमे बँटल अछि: अनेक दृश्यस्य
एकांकी। ने बहुत छोट आ ने नमहर। तीन चारि घंटाक बिना झमेलाकेँ ‘झमेलिया बिआह’। एकेटा परदा या बॉक्स सेटपर मंचित
होमए योग्य। मात्र घर वा दरबज्जाक साज-सज्जा। तेरहटा पुरुष आ चारिटा स्त्री
पात्रक नाटक। छोट-छोट रसगर संवाद, संघर्ष आ उतार-चढ़ावक संभावनासँ युक्त। ने केतौ
नमहर स्वगत ने नमहर संवाद। असंभव दृश्य, बाढि़, हाथी-घोड़ा, कार जीपक कोनो योजना
नइ। संवादक द्वारा विभिन्न बरियाती या यात्राक कथासँ जिज्ञासा आ आद्यांत आकर्षण। कथामे
चैता केर रमणीयता आ मर्यादा, तँए जोगीराक दिशाहीनता आ उद्दाम वेग नइ भेटत। गंभीर
साहित्य सर्वदा अपन समैक अन्न, खून पसेनाक गंधसँ युक्त होइत अछि। आ ‘झमेलिया बिआह’ सेहो पावनि-तिहार, भनसा घरक
फोड़न-छौंक, सोयरी, श्मशान आ पकमानक बहुवर्णी गंधसँ युक्त अछि, एकदम ओहिना जेना
पाब्लो नेरूदा विभिन्न कोटिक गंधकेँ कवितामे खोजैत छथिन।
‘झमेलिया बिआह’क सामाजिक आ सांस्कृतिक आधारपर कनेक
विचार करू। ई ओइ ठामक नाटक अछि, जतए कर्मपर जन्म, संयोग आ कालदेवताकेँ अंकुश छैक,
जइठामक लोक मानैत छथिन जे कखनो मुँहसँ अवाच कथा नै निकाली। दुरभक्खो विषाइ छै। सामाजिक
रूपेँ ओ वर्ग जेकर हँसी-खुशी माटिक तरमे तोपा गेल अछि। लैंगिक विचार हुनकर ई जे पुरुख
आ स्त्रीगणक काज फुट-फुट अछि। आ विकासक उदाहरण ई कि जइठीन मथ-टनकीक एकटा गोटी नै
भेटै छै तइठीन साल भरि पथ-पानिक संग दवाइ खाएब पार लागत?
मुदा जगदीशजी केवल सातत्य आ निरंतरताक लेखक नइ छथिन, परिवर्तनक छोट-छोट
यतिपर अपन कैमरासँ फ्लैश दैत रहैत छथिन। तँए यथास्थितिवादक लेल अभिशप्त होइतो
यशोधर बुझैत छथिन जे मनुक्खक मनुखता गुणमे छिपल छै नै कि रंगमे। आ सुशीला सामाजिक
स्थितिपर बिगड़ैत छथिन कि विधाताकेँ चूक भेलनि जे मनुक्खोकेँ सींघ नांगरि किअए ने
देलखिन। आ ई नाटक कालदेवताक ओइ खंडसँ जुड़ैत अछि जतए पोता श्याम तेरह के थर्टिन आ
तीन के थ्री कहैत छथिन। ऐठाम अखबार आबैत छैक आ राजदेव देशभक्तिक परिभाषाकेँ विस्तृत
बनेबाक लेल कटिबद्ध छथिन। खेतमे पसीना चुबबैत खेतिहर, सड़कपर पत्थर फोड़ैत
बोनिहार, धारमे नाव खेबैत खेबनिहार सभ देश सेवा करैत अछि, आ राजदेव सभकेँ देशभक्त
मानैत छथिन।
‘झमेलिया बिआह’क झमेला जिनगीक स्वाभाविक रंग
परिवर्तनसँ उद्भूत अछि, तँए जीवनक सामान्य गतिविधिक चित्रण चलि रहल अछि कथाकेँ
बिना नीरस बनेने। नाटकक कथा विकास बिना कोनो बिहाड़िक आगू बढ़ैत अछि, मुदा लेखकीय
कौशल सामान्य कथोपकथनकेँ विशिष्ट बनबैत अछि। पहिल दृश्यमे पति-पत्नीक बातचितमे
हास्यक संग समए देवताक क्रूरता सानल बुझाइत अछि। दोसर दृश्यमे झमेलिया अपन स्वाभाविक
कैशोर्यसँ समैकेँ द्वारा तोपल खुशीकेँ खुनबाक प्रयास करैत अछि। पहिल दृश्यमे व्यक्ति
परिस्थितिकेँ समक्ष मूक बनल अछि, आ दोसर दृश्यमे व्यक्तित्व आ समैक संघर्ष
कथाकेँ आगू बढ़बैत कथा आ जिनगीकेँ दिशा निर्धारित करैत अछि। तेसर दृश्य देशभक्ति
आ विधवा विवाहक प्रश्नकेँ अर्थ विस्तार दैत अछि, आ ई नाटकक गतिसँ बेशी जिनगीकेँ
गतिशील करबाक लेल अनुप्राणित अछि ।
चारिम दृश्यमे राधेश्याम कहैत छथिन जे कमसँ कम तीनक मिलानी अबस हेबाक
चाही। आ, लेखक अत्यंत चुंबकीयतासँ नाटकीय कथामे ओइ जिज्ञासाकेँ समाविष्ट कऽ दैत
छथिन कि पता नइ मिलान भऽ पेतै आ कि नइ। ई जिज्ञासा बरियाती-सरियातीक मारिपीट आ
समाजक कुकुड़ चालिसँ निरंतर बनल रहैत छैक। आ पांचम दृश्यमे मिथिलाक ओ सनातन ‘खोटिकरमा’ पुराण। दहेज,
बेटी, बिआह आ घटकक चक्रव्यूह! आ लेखकक कटुक्ति जे ने केवल
मैथिल समाज बल्कि समकालीन बुद्धिजीवी आ आलोचनाक लेल सेहो अकाट्य अछि: कतए नै दलाली
अछि। एक्के शब्दकेँ जगह-जगह बदलि-बदलि सभ अपन-अपन हाथ सुतारैए ।
आ घटकभायकेँ देखिअनु। समैकेँ भागबा आ समैमे आगि लगबाक स्पष्ट दृश्य
हुनके देखाइ छनि। अपन नीच चेष्टाकेँ छुपबैत बालगोविन्दकेँ एक छिट्टा आर्शीवाद
दैत छथिन। बालगोविन्दकेँ जाइते हुनकर आस्तिकताक रूपांतरण ऐ बिन्दुपर होइत अछि ‘भगवान बड़ीटा छथिन। जँ से नै रहितथि तँ
पहाड़क खोहमे रहैबला केना जीबैए। अजगरकेँ अहार कतए सँ अबै छै। घास-पातमे फूल-फड़
केना लगै छै.......’ बातचितक क्रममे ओ बेर-बेर बुझबैक आ
फरिछाबैक काज करैत छथि। मैथिल समाजक अगिलगओना। महत्व देबै तँ काजो कऽ देत नइ तँ आगि
लगा कऽ छोड़त !!!!!
छठम दृश्यमे बाबा आ पोतीक बातचित आ बरियाती जएबा आ नइ जएबाक औचित्यपर
मंथन। बाबा राजदेव निर्णय नइ लऽ पाबै छथिन। बरियाती जएबाक अनिवार्यतापर ओ बिच-बिचहामे
छथिन ‘छइहो आ नहियो छै। समाजमे
दुनू चलै छै। हमरे बिआह मे मामेटा बरियाती गेल रहथि। ‘मुदा
खाए, पचबै आ दुइर होइक कोनो समुचित निदान नइ भेटैत छैक। बरियाती-सरियातीक व्यवहार
शास्त्र बनबैत राजदेव आ कृष्णानंद कथे-बिहनिमे ओझरा कऽ रहि जाइत छथि। दस बरिखक
बच्चाकेँ श्राद्धमे रसगुल्ला मांगि-मांगि कऽ खाइबला हमर समाज बिआहमे किएक ने खाएत? तँए कामेसर भाय निशाँमे अढ़ाय-तीन सए रसगुल्ला आ किलो चारिएक माछ पचा
गेलखिन आ रसगुल्लो सरबा एतए ओतए नइ आंतेमे जा नुका रहल !!!
सातम दृश्य सभसँ नमहर अछि, मुदा बिआह पूर्व वर आ कन्यागतक झीका-तीरी आ
घटकभाय द्वारा बरियाती गमनक विभिन्न रसगर प्रसंगसँ नाटक बोझिल नइ होइत छैक। आ घटक
भायपर धियान देबै, पूरा नाटकमे सभसँ बेशी मुहावरा, लोकोक्ति, कहबैकाक प्रयोग ओएह
करैत छथिन। मात्र सातमे दृश्यकेँ देखल जाए खरमास (बैसाख जेठ) मे आगि-छाइक डर रहै
छै (अनुभव के बहाने बात मनेनइ)..... पुरूष नारीक संयोगसँ सृष्टिक निर्माण होइए (सिद्धांतक
तरे धियान मूलबिंदुसँ हटेनइ)...... आगूक विचार बढ़बैसँ पहिने एक बेर चाह-पान भऽ
जाए (भोगी आ लालुप समाजक प्रतिनिधि) ...... जइ काजमे हाथ दइ छी ओइ काजकेँ कइये कऽ
छोड़ै छी (गर्वोक्ति)....... जिनगीमे पहिल बेर एहेन फेरा लागल (कथा कहबासँ पहिले धियान
आकर्षित करबाक सफल प्रयास).... खाइ पीबैक बेरो भऽ गेल आ देहो हाथ अकड़ि गेल......
कुटुम नारायण तँ ठरलो खा कऽ पेट भरि लेताह मुदा हमरा तँ कोनो गंजन गृहणी नहिये
रखतीह। (प्रकारांतरसँ अपन महत्व आ योगदान जनबैत ई ध्वनि जे हमरो कहू खाए लेल)
आठमो दृश्यमे बालगोविन्द, यशोधर, भागेसर, घटकभाय बिआह आ बरियातीकेँ बुझौएल के निदान करबा हेतु प्रयासरत् छथि, आ लेखक घटकभायकेँ पूर्ण नांगट नइ बनबैत छथिन, मुदा ओकर मीठ-मीठ शब्दक निहितार्थकेँ नीक जकाँ खोलि दैत छथिन। ऐ दृश्यमे बाजल बात, मुहावरा, लोकोक्ति आ प्रसंग, उदाहरणक बले ओ अपन बात मनबाबए लेल कटिबद्ध छथिन। हुनकर कहबैकापर धियान दिओ- जमात करए करामात..., जाबत बरतन ताबत बरतन....., नै पान तँ पानक डंटियेसँ....., सतरह घाटक सुआद......., अनजान सुनजान महाकल्याण।
मुदा घटकभायकेँ ऐ सुभाषितानिक की निहितार्थ? ई अर्थ पढ़बाक लेल कोनो मेहनति करबाक जरूरी नइ। ओ राधेश्यामकेँ
कहै छथिन ‘जखन बरियाती पहुंचैए तखन शर्बत ठंडा गरम, चाह-पान,
सिगरेट-गुटका चलैए। तइपर सँ पतोरा बान्हल जलपान, तइपर सँ पलाउओ आ भातो, पूड़िओ आ
कचौडि़यो, तइपर सँ रंग-बिरंगक तरकारियो आ अचारो, तइपर सँ मिठाइयो आ माछो-मासु, तइपर
दहियो, सकड़ौड़िओ आ पनीरो चलैए।
नाटकक नओम आ अंतिम दृश्य। बाबा राजदेव आ पोती सुनीताक वार्तालाप, आखिर ऐ
वार्तालापक की औचित्य?
जगदीश जी सन सिद्धहस्त लेखक जानै छथिन जे बीसम आ एकैसम सदीक मिथिला पुरुषहीन भऽ
चुकल छैक। यात्री जीक कवितापर विचार करैत कवयित्री अनामिका कहैत छथिन ‘बिहारक बेशी कनियाँ विस्थापित पतिगणक कनियाँ छथि। ‘सिंदूर
तिलकित भाल’ ओइ ठाम सर्वदा चिंताक गहींर रेखाक पुंज रहल छैक।
....भूमंडलीकरणक बादो ई स्थिति अछि जे मिथिला, तिरहुत, वैशाली, सारण आ
चंपारण यानी गंगा पारक बिहारी गाम सभ तरहेँ पुरुषबिहीन भऽ गेल छैक। ......सभ पिया
परदेशी पिया छथि ओइठाम। गाममे बचल छथि वृद्धा, परित्यक्ता आ किशोरी सभ। एहन
किशोरी, जेकर तुरते तुरत बिआह भेलै या फेर नइ भेल होए, भेलए ऐ दुआरे नइ जे दहेजक
लेल पैसा नइ जुटल हेतैक।‘बिआह
आ दहेजक ऐ समस्याक बीच सुनीताकेँ देखल जाए। एक तरहेँ ओ लेखकक पूर्ण वैचारिक
प्रतिनिधि अछि। यद्यपि कखनो-कखनो राजदेव, कृष्णानंद आ यशोधर सेहो लेखकक विचार व्यक्त
करैत छथिन। सुनीता, सुशीला आ राजदेव मिथिलाक स्थायी आबादी, आ घटकभाइक बीच रहबाक
लेल अभिशप्त पीढ़ी। कृष्णानंद सन पढ़ल-लिखल युवकक स्थान मिथिलाक गाममे कोनो खास
नइ। आ लेखक बिना कोनो हो-हल्ला केने नाटकमे ऐ दुष्प्रवृत्तिकेँ राखि देने छथि।
जीवन आ नाटकक समांतरता ऐठाम समाप्त भऽ जाइत छैक आ दूटा अर्द्धवृत्त अपन चालि स्वभावकें
गमैत जुड़ि पूर्णवृत्त भऽ जाइत अछि।
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