Tuesday, December 6, 2011

उल्कामुख (मैथिली नाटक)- गजेन्द्र ठाकुर ( नाटकक मंचन हएत विदेह नाट्य उत्सव २०१२ मे)


-"उल्कामुख" विदेह नाट्य उत्सवमे मंचित हएत।

-"उल्कामुख"क नाटककार छथि गजेन्द्र ठाकुर।

-निर्देशक रहताह बेचन ठाकुर।

-जादू वास्तवितावादी ऐ नाटकमे इतिहासक एकटा षडयंत्रकेँ उघारल गेल अछि , मंच परिकल्पना अछि भरतक नाट्यशास्त्रक अनुसार।

-आचार्य व्याघ्र, आचार्य सिंह, आचार्य सरभ, शिष्य साही, शिष्य खिखिर, शिष्य नढ़िया, शिष्य बिज्जी  ऐ मे पात्र छथि।
[  पहिलसँ चारिम कल्लोल धरिक पात्र बदलि जाइ छथि, दोसर रूपमे पाँचम कल्लोलसँ टा स्त्री पात्र बढ़ि जाइ छथि: रुद्रमति (माधवक माए) सोहागो (गंगाधरक माता), आनन्दा (गंगाधरक बहिन), मेधा (हरिकर- सेनापतिक बेटी) ]


-गंगेश आ वल्लभाक प्रेम ऐ नाटकक विषय अछि। मुदा पहिल दू अंकक बाद तेसर आ चारिम अंक जादू वास्तविकतावादक उदाहरण बनि जाइए। आ आबि जाइ छथि सोझाँ उदयन, दीना, भदरी, आचार्य व्याघ्र, आचार्य सिंह, आचार्य सरभ, शिष्य साही, शिष्य खिखिर, शिष्य नढ़िया, शिष्य बिज्जी। आ शुरू भऽ जाइए इतिहासक एकटा षडयंत्रक अनुपालन। मुदा चारिम कल्लोलक अन्तमे भगता कहि दै छथि अपन शिष्यकेँ एकटा रहस्य.......जे विस्मरणक बादो आबि जाएत स्मरणमे।...बनि उल्कामुख...

- पाँचम कल्लोलसँ संकेतक बदला वास्तविकता, कल्पनाक बदला सत्य...

-पहिलसँ चारिम कल्लोल धरि मंचपर शतरंजक डिजाइन बनाएल घन राखल रहत, पाँचम कल्लोलसँ भूत आ कल्पनाक प्रतीक ओइ संकेतक बदला वास्तविकताक प्रतीक गोला राखल रहत।

- गंगेशक तत्त्वचिन्तामणिपर ढेर रास टीका उपलब्ध अछि, गंगेशकेँ कहल जाइ छन्हि तत्वचितामणिकारक गंगेश; मुदा हुनकर कविता भऽ गेल छन्हि "उल्कामुख"!!!


मैथिली नाटककेँ.....................
नव आयाम दैत ............................
नाटकक नव युगमे प्रवेश प्रवेश करबैत अछि.......
उल्कामुख.........................................................
विदेह नाट्य उत्सव २०१२ मे मंचित हएत............................
निर्देशक बेचन ठाकुर..................................................................
मंच भरत नाट्यशास्त्रक अनुरूप.......................................................................

उल्कामुख (मैथिली नाटक)- गजेन्द्र ठाकुर

पात्र परिचय
पहिलसँ चारिम कल्लोल धरि मंचपर शतरंजक डिजाइन बनाएल घन राखल रहत, पाँचम कल्लोलसँ भूत आ कल्पनाक प्रतीक ओइ संकेतक बदला वास्तविकताक प्रतीक गोला राखल रहत।

[ पात्र: पहिलसँ चारिम कल्लोल धरि : गंगेश , वल्लभा, देवदत्त, वर्द्धमान, उदयन, दीना, भदरी, आचार्य व्याघ्र, आचार्य सिंह, आचार्य सरभ, शिष्य साही, शिष्य खिखिर, शिष्य नढ़िया, शिष्य बिज्जी,  भगता, भगताक शिष्य।
पात्र:  पाँचम कल्लोलसँ : शिष्य साही बनि गेल हरपति (गंगाधरक पिता), गंगेश बनि जाइ छथि गंगाधर, वल्लभा बनि जाइ छथि कुमरसुता (गंगाधरक पत्नी), भगता बनि गेल जटा, भगताक शिष्य बनि गेल दलित गायक हीरू, आचार्य व्याघ्र बनि जाइ छथि मनसुख (जीवेक पिता), आचार्य सिंह बनि जाइ छथि हरिकर-सेनापति (मेधाक पिता), आचार्य सरभ बनि जाइ छथि कीर्ति सिंह (राजा), वर्द्धमान बनि जाइ छथि मितू (गंगाधरक बहिनोइ), देवदत्त बनि जाइ छथि जीवे (मनसुखक बेटा), शिष्य खिखिर बनि गेल राजाक अर्थमंत्री नारायण, शिष्य नढ़िया बनि गेल दरबारी-१, शिष्य बिज्जी बनि गेल दरबारी-२, उदयन बनि गेल माधव (अनुभव मण्डलक सदस्य आ दरबारी), दीना बनि गेलाह माधवक सहयोगी-१, भदरी बनि गेलाह माधवक सहयोगी-२। ४ टा स्त्री पात्र ऐ अन्तिम दुनू अंकमे बढ़ि जाइ छथि: रुद्रमति (माधवक माए) सोहागो (गंगाधरक माता), आनन्दा (गंगाधरक बहिन), मेधा (हरिकर- सेनापतिक बेटी)]


पहिल कल्लोल
(मंचपर वाम मत्तवर्णीपर कूटक एकटा पैघ घन आ दहिन मत्तवर्णीपर कूटक एकटा आर पैघ घन राखल रहैत अछि, घनक सभ पृष्ठपर शतरंजक आकृति बनाएल रहैत छै।। धधरा फेकैत एकटा गीदर मंचपर चारू कात घूमि जाइत अछि। दू तीनटा टॉर्चसँ ई प्रभाव उत्पन्न कएल जा सकैए। पाछूसँ हूआ-हूआक ध्वनिक संग अन्हार पसरि जाइत अछि। फेर मंच प्रकाशित होइत अछि आ गंगेश आ वल्लभा रंगपीठपर वार्तालापक मुद्रामे बैसल छथि। बीचमे कूटक पैघ घन मत्तवर्णीसँ रंगपीठपर राखल जाइत अछि, जइपर मुँह खसा कऽ दुनू गोटे गप कऽ रहल छथि। )
वल्लभा: उषाक स्वर्णिम आभा सुसज्जित ऋषिक स्मरण करबैत अछि
गंगेश: की भेल? कोन ऋषिक चर्चा अहाँ कऽ रहल छी? ककर स्मरण अबैए?
वल्लभा: अहाँक, आर ककर?
गंगेश: हम कहियासँ ऋषि भऽ गेलौं। हम तँ एकटा साधारण विद्यार्थी छी।
वल्लभा: अहाँक चातुरीक सभ ठाम चर्चा होइए।
गंगेश: चातुरीक चर्चा! हम तँ वाक चातुरीक विरोध करै छी। वाक चातुरी तथ्यपर आ सत्यसँ भारी नै भऽ जाए, तकर मात्र प्रयास करै छी।
वल्लभा: मुदा तइसँ की हएत। लोक तँ घुमा फिरा कऽ बात बजिते अछि। अहाँ वाक चातुरीक चलाकीकेँ देखार केने छिऐ। कतेको श्लोकमे ऐ गपपर अहाँ चरचा केने छिऐ। तैयो लोक गप घुमा कऽ बाजिये दै छथि।
गंगेश: अहाँ कहियासँ हमर एतेक चिन्ता करऽ लगलौं।
वल्लभा: देखू। अहाँ चर्मकार टोलमे बच्चेसँ आबि रहल छी…
गंगेश: आ बच्चेसँ लोकक बोल सुनि रहल छी..
वल्लभा: मुदा लोकक बोल आर बिखाह भऽ गेल अछि..
गंगेश: कतेक बिखाह। सत्यकामक भाग्य हमरा भेटल अछि…
वल्लभा: कोन सत्यकाम..
गंगेश: वएह सत्यकाम जकरा पिताक विषयमे बुझल नै छलै, ओकर मायोकेँ नै बुझल रहै जे के ओकर पिता छै। मुदा ओकर गुरु गौतम ओकरा शिक्षा देलखिन्ह।
वल्लभा: अहूँसँ पूछल गेल ओ प्रश्न गंगेश? प्रश्न जे..जे..के छथि अहाँक पिता..पिताक मृत्युक पाँच बर्खक बाद कोना भेल अहाँक जन्म…
गंगेश: (मुँह घुमा कऽ पाछू दिस ताकऽ लगै छथि) पूछल गेल वल्लभा, पूछल गेल। बिनु पिताक अहाँक जन्म..पितृ परोक्षे पञ्च वर्ष व्यतीते गंगेशोत्पत्ति…
वल्लभा: (गंगेशकेँ घुमा कऽ सोझाँ लऽ अनै छथि) छोड़ू..हमरा तँ बुझले अछि।  
गंगेश: गुरुजी हमरोसँ पुछने रहथि पिताक विषयमे। चर्मकार टोलक जे ओ रहथि जे हमर माताकेँ आपत्कालमे सहायता देने रहथि, आब गामे छोड़ि देलन्हि।
वल्लभा: हमहूँ सएह सुनने छिऐ, नै जानि कतऽ चलि गेलाह ओ।
गंगेश: मुदा आइयो अहाँक टोलमे हमरा वएह आपकता भेटैए।
वल्लभा: आहा। ककरा-ककरासँ।
गंगेश: एकटा तँ सोझेँ छथि हमर।
वल्लभा: सएह आपकता तँ लोकक आँखिकेँ नै सोहाइ छै..लोकक आँखिमे हींग सुइया..
गंगेश: वल्लभा, अहाँ तँ सभसँ गप करै छी, हमरासँ, गाछ-पातसँ, चिड़ै चुनमुनीसँ, सम्पूर्ण प्रकृतिसँ…
वल्लभा: अहाँ तँ लगैए पहिने कताक जन्म स्त्री छलौं..
गंगेश: अहाँ मिथिलाक राजकुमारी छी वल्लभा। अहाँ आँखि उठा कऽ देखै छी तँ लगैए जे प्रकृति अपन हृदय खोलि कऽ प्रेम कऽ रहल अछि, अहाँ छी पतालसन गहींर आ गम्भीर मुदा उधियाइत मेघ सन साकांक्ष, वरक गाछ सन स्थिर मुदा हरदम प्रसन्न ऐ धानक शीस सन..(खेत दिस इशारा करै छथि)।
वल्लभा: अहाँ कोन कम छी गंगेश, अहाँ विद्वतासँ भरल छी, कोनो सम्वाद विवाद स्थिरचित्त भऽ सुनै छी काटै छी, विक्रमादित्य सन न्याय करै छी, व्यवहारी छी आ  अहाँ स्थिर छी हिमालय सन।
गंगेश: वल्लभा, अहाँक सौन्दर्य अप्रतिम अछि, अहाँसँ बेशी पूर्ण ने स्वर्ण अछि ने आन किछु। अहाँ लग आबि कऽ लगैए जेना भुथियायल जहाज किनारपर लागि गेल। हमर विद्या आब पूर्ण होइए बला अछि। किछु नव चीज बहार केलौं अछि मन्थनसँ। मिथिला विद्या शून्य नै भेल अछि। उदयनक बाद कएक शताब्दी धरि मिथिलामे भगवान जगन्नाथकेँ ललकारा दै बला कियो नै भेल।
वल्लभा: हे से नै कहियौ। दीना आ भदरी से ललकारा दऽ आएल रहथि जगन्नाथकेँ।
गंगेश: हँ वल्लभा, माए सुनेने छथि ई खिस्सा हमरा। आ दीना-भदरी दुनू गोटे विजय सेहो प्राप्त केने रहथि। मन्दिरक कपाट खुजि गेल रहए। हे सुनाउ ने एकबेर ई खिस्सा।
वल्लभा: एक्के खिस्सा बेर-बेर सुनैत मोन नै भरैए।
गंगेश: नै भरैए..तत्त्वचिन्तामणि लिखबामे ई हमर उत्प्रेरक बनैए..
 वल्लभा: ठीक छै। तखन दीना हम बनै छी आ भदरी अहाँ बनू।
(दुनू गोटे शतरंजक घनक सोझाँ आबि जाइ छथि।)
वल्लभा:      जोगिया गामक दीना एलै भदरी भाइ जुमि हे…
गंगेश:        कालू सदाय निरसो मैयाक बेटा मजगूत हे…
वल्लभा: (हँसैत आ गंगेश दिस तकैत)
दीन रहथि हीन रहथि मुदा नै मजबूर हे
                  शिकार खेलथि रणे-बने कोरथि खेत मिलि हे
                  पाँच-पाँच मोनक कोदारि लेने बीघा कते दूर हे
गंगेश:             कटैया बोनक राजा छलै फोटरा गीदर हे
                  ओकर संगी धामन रहै, बिख मशहूर हे
                  बिख सन बोल बाजल धामन दुनू भाइकेँ
                  जो रे दीना जो रे भदरी पानिमे बसैले रे
                 
वल्लभा:            रेऽऽऽऽऽऽऽऽ…..
की बजलेँ धामन तूँ तूँ, की बजलेँ धामिन गे
रेऽऽऽऽऽऽऽऽऽ…..
                  हम्मर जीवन कटैय्या बोनक तूँ नै भागी हे
                  हम्मर जीवन हम्मर बलकेँ बुझलेँ हिनताइ रे
                  मारि-मारि छूटल ओकरापर दुनू भाइ रे
                  धामन मारल, धामन फेकल धामिनक आगू रे
                  धामिन थरथर करै लागल लेबौ बदला भाइ रे
गंगेश:             फोटर राजा कटैय्या बोनक छल दोसतियारी रे
                  हम्मर दोस धामन मारल, दुनू मिलि भाइ रे
                  धामिन भौजी निश्चिन्त रहू, नै करू अगुताइ हे
                  आबै दियौ आबै दियौ शिकार खेलऽ दुनू भाइकेँ
वल्लभा:                दिन बीतल, गेल भदरी दीना बोन शिकार हे
                  संग गेल बहुरन मामा  फोटर तैयार हे
                  बिखहा दाँत गरा देलक मारल दुनू भाइ केँ
                  आत्मा बनि घूमए लागल दुनू भाइ मरि हे
               
गंगेश:            दौरी गामक हिरिया तमोलिन देखल दुनू भाइकेँ
                  दौरी गामक जिरिया लोहारिन देखल दुनू भाइकेँ
                  एहेन वर चाही हमरा करए लागलि तपस्या हे
वल्लभा (तपस्विनी सन ध्यान लगेने बैसि जाइत छथि): 
दीना चाही भदरी चाही, वर दुनू सखी कऽ
                  मरल छेँ तँ भेल की स्वीकारू गंगा पैसि कऽ
(गंगेश घनक पाछाँ चल जाइ छथि आ हाथ उठबै छथि जेना गंगामे होथि। वल्लभा दोसर कातसँ हाथ पसारै छथि।)
वल्लभा:            मातैर-मातैर सुनै छलौं मातैर बड़ी दूर हे
अन देलौं धन देलौं, लक्ष्‍मी बहुत हे
एकेटा जे स्वामी बि‍नु लागै य सुन हे
मातैर-मातैर सुनै छलौं.....।
(तखने देवदत्तक प्रवेश होइत अछि।)
देवदत्त: (मुस्काइत एक बेर वल्लभाकेँ आ एक बेर गंगेशकेँ देखैत छथि)
                   कमला-कमला सुनै छलौं कमला बड़ दूर हेऽऽ
गहबर पहसैत कमला भए गेल कसहूर हे,
अन देलौं धन देलौं लक्ष्‍मी बहुत हे
एकेटा जे……
वाह गंगेश। नै नै, वाकचातुरी नै गंगेश। कोनो चातुरी नै। ई तँ अछि स्थूल प्रेम। 
प्रेम प्रेम देखी सगरे प्रेमे पूर्ण हे
प्रेम बि‍नु लागै यऽ सभ सून हे
(गंगेश दिश ताकि) गंगेश। की बात छै। ऐ टोलमे तोहर माएकेँ सेहो मोन लागै छलौ आ तोरा सेहो। मुदा के बाजत। न्याय, तर्कक सोझाँ के ठठत।
(वल्लभा दिश घुमि) वल्लभा। अहाँक भाग…. आकि कोनो मनता….मनता जे गंगेशक माए अहींकेँ पुतोहु बनेबा लेल मनने हेती।…. आकि गंगेशसँ सत करेने हेती जे हमर अपमानक बदलामे तोँ अही टोलमे बियाह कऽ कऽ लोककेँ देखा दहीं।…(मंचक सोझाँ घुरि जाइ छथि) न्याय आ तर्कमे के जीतत गंगेशसँ ? न्याय करत गंगेश….तर्क करत कियो नै।
गंगेश:  (देवदत्त दिश जोरसँ बजैत) देवदत्त..
देवदत्त: (देवदत्त दिश ताकि)   नै गंगेश कोनो वचन चतुराइ नै अछि हमरामे। मुदा की कोनो तर्क नै अछि हमर वचनमे?
गंगेश: (देवदत्त दिश जोरसँ बजैत) देवदत्त, ने हमर माए कोनो मनता मानने रहथि आ नहिये हमरासँ कोनो सत करबेने रहथि। आ नहिये ऐ टोलक हमर माएपर कएल उपकारक बदला हमर आ वल्लभाक प्रेम अछि। आ जेँ ऐ प्रेममे ने कोनो मनता छै, ने कोनो सत आ ने कोनो उपकार, तेँ ई प्रेम स्थूल प्रेम अछि।
देवदत्त: (मंचक सोझाँ तकैत) तर्क! नै कोनो वाक चातुरी नै।
(गंगेश दिस ताकि) मुदा गंगेश, ई एकटा गप अहाँ ठीक कहलौं। अहाँ क आ वल्लभा क प्रेमक तँ लोक चर्चो नै कऽ रहल अछि। दूर देशक प्रेमक मुदा चर्चा होइए। ठीके कहलौं अहाँ। सुनल अछि कोनो बड़का न्यायक ग्रन्थक अहाँ लिखि रहल छी। सुनै छिऐ जे ओ तेहेन ग्रन्थ बनि रहल अछि जकर चर्चामे सभ नैय्यायिक ओझरा जेता। भाष्यपर भाष्य, टीकापर टीका लिखाएत ओइपर। मुदा गंगेश, सावधान। अहाँक प्रेमकेँ मारबाक ई षडयंत्र तँ नै अछि गंगेश। ऐ प्रेमक चर्च सेहो पाँच-सए बर्खक बाद मुदा हजार बर्खक भीतरे फेरसँ मिथिलामे हेतै। ओहो हो..ई की कहा गेल गंगेश। (अपन जीह थकुचऽ लगैए)
लोक कहैए जे हमर जीह कारी अछि। जँ धानक खेतक आरिपर ठाढ़ भऽ हम कहि दै छिऐ जे देखू ई धान केहेन सनगर अछि तँ ओ धान अगिले दिन जरि जाइ छै। लोके सभ कहैए। (फेरसँ अपन जीह थकुचऽ लगैए)
स्थूल प्रेमक चर्च हेबे किए करए गंगेश। किए हुअए स्थूल प्रेमक चर्च। ऐ चर्चसँ तँ समाजमे समरसता आबि जेतै। से नै हएतऽ चर्च ऐ प्रेमक गंगेश, नै हएतऽ चर्च ऐ प्रेमक। तोहर ग्रन्थक चर्च हएत गंगेश, तोहर ग्रन्थक मिथिलाक टोल आ चौपा़ड़िमे तोहर विद्वताक संग चर्चा हेतै गंगेश, …..(बिहुँसैत)….मुदा तोहर प्रेमक कोनो चर्च नै हएत। मिथिलाक शिक्षक तोहर पोथीक प्रतिलिपिक अनुमति नै देथिन्ह गंगेश आ ने ओकर सारांश लिखबाक देथिन्ह अनुमति। आ जँ बंगालक कोनो विद्यार्थी ओकर प्रतिलिपि कइयो लेत गंगेश तँ ओ लऽ जा सकत मात्र तोहर विद्वता। तोहर न्यायशास्त्र। तोहर तर्क। मरि जेतह तोहर प्रेम गंगेश। मरि जेतह तोहर स्थूल प्रेम।
वल्लभा: (देवदत्त दिस ताकि जोरसँ बजैत) देवदत्त, हजार बर्खक बाद तँ घुरत ने ई प्रेम। गंगेशक अमर पोथी लेल हमरा ओ प्रतीक्षा स्वीकार अछि। चर्च नै हएत प्रेमक…हाह…चर्च पेबा लेल प्रेम नै कएल जाइत अछि….प्रेम, प्रेम की चर्च हुअए की तेँ होइत अछि देवदत्त?
देवदत्त: (वल्लभा दिस ताकि) वल्लभा, गंगेशक हारि देख रहल छी हम। गंगेशक हारि देख रहल छी हम गंगेशक मुखपर। गंगेश, की तोँ वल्लभासँ सहमत छह। की वल्लभा आ तोहर स्थूल प्रेमक चर्च नै भेने सामाजिक समरसताक तोहर उद्देश्य पूर्ण हेतह? की ऐ स्थूल प्रेम आ ऐ टोलक नाराशंसी गाथाक कोनो कर्ज तोरा पोथीपर नै छै गंगेश? की तोहर प्रचण्ड तर्क सिद्धान्त बनि कऽ नै रहि जेतऽ गंगेश? प्रायोगिक महत्व खतम नै भऽ जेतै की ओकर? हम भरोस दिआबै छियह गंगेश, भरोस दियाबै छियह, जे तोहर स्थूल प्रेमक कियो विरोध नै करतह। आ तोँ बुझैत रहबह जे ओ सभ तोहर प्रचण्ड तर्कसँ हारि कऽ विरोध नै केलन्हि। मुदा असल बात ई छै जे तोहर पोथीपर भाष्यपर भाष्य आ टीकापर टीका लिखाइत रहतह। तोहर विरोध तँ छोड़ह, तोहर सन्तानोक विरोध कियो नै करतह गंगेश। सिद्धान्त बनि कऽ रहि जेबह तोँ आ तोहर तर्क।
गंगेश: (देवदत्त दिस ताकि जोरसँ बजैत) देवदत्त। अहाँक कोनो गप हमरा कठानि नै लागि रहल अछि। मुदा एतेक तर्कपूर्ण गप..अहाँ एतेक तर्कपूर्ण गप कोना कऽ रहल छी?
देवदत्त: (मंचक सोझाँ तकैत) एतेक तर्कपूर्ण गप.. (गंगेश दिश ताकि) ठीके बुझलेँ गंगेश। ई सुनलाहा गप छी। ई गप हमर अपन मोनक नै अछि। चौपाड़िपर होइत शिक्षक लोकनिक गप अछि ई। हम तँ किछु बुझै नै छी, (बिहुँसैत) से जानि हमरा सोझाँ होइत रहैए ई सभ गप..जाइ छी…जाइ छी…
(एम्हर ओम्हर तकैत शतरंजक घनकेँ पलटाबऽ लगैए) तँ हमरा की इनाम देब ऐ तर्कपूर्ण गप लेल गंगेश। (शतरंजक एक-एकटा खानाकेँ छुबैत) ई ६४ टा खाना अछि शतरंजक, अछि ने गंगेश? पहिल खानामे एकटा धानक दाना राखू।(एकटा राखैए) दोसरपर ओकर दुगुना।(दूटा दाना राखैए.. एक…दू..तीन..चारि..बजैत) तेसरपर दोसरक दुगुना (चारिटा दाना राखैए ..एक… दू.... बजैत)। (फेर ६४म खानापर आंगुर रखैए) अन्तिम ६४म खानापर जतेक धानक दाना अबैए ततेक दाना दिअ हमरा गंगेश..
वल्लभा: (गंगेश दिश ताकि खिसियाएल स्वरमे बजैत) दऽ दियन्हु हिनका इनाम गंगेश। नै जानि ईहो गप ओ कतौसँ सुनिये कऽ आएल हेतथि।
गंगेश:  (वल्लभा दिश तकैत) नै वल्लभा। ई इनाम ऐ शतरंजक खेलोसँ बेशी विषम छै। सगर पृथ्वीक अन्नक उपजा जँ पाँच सए सँ हजार बर्ख धरि उपजत तखन जा कऽ ई इनाम देल जा सकत। (देवदत्तक बांहि झमारैत) देवदत्त…देवदत्त, के बाजै छल ई गप देवदत्त? कोन चौपाड़िपर होइ छल ई गप देवदत्त?
देवदत्त: (डेराइत) एतेक पैघ अछि ई इनाम!! ..पाँच सए बर्खक बाद आ हजार बर्खसँ पहिने…गंगेश..जँ ई इनाम अहाँ नै देब हमरा, तँ तावत धरि मुनाएल रहत अहाँक स्थूल प्रेम…हा हा हा…(अपने सँ बाजैए) डराओन सन गप..डराओन सन गप..(प्रस्थान कऽ जाइत अछि।)
(वल्लभा आ गंगेश एक-दोसराकेँ ताकऽ लगैत छथि)
(हूआ-हूआक ध्वनिक संग अन्हार पसरि जाइत अछि।)














दोसर कल्लोल
(दू टा शतरंज-घन दुनू रंगशीर्षपर राखल अछि। गंगेश एकटा शतरंजक घनक चारू कात घूमि रहल छथि। दोसर शतरंजक घनपर प्रकाश छै मुदा ओ फेर विलुप्त भऽ जाइ छै। आ फेर वेदिकासँ एकटा गीत उठै छै।)

बभनीकेँ पुत्र तोहें बाल गोरैय्या,
पोथी नेने पढ़न जाइ हे
पोथिया नेरौलनि गोरिल जा बिरिछ तर
हलुआइ घर पैसल धपाइ हे
किछु मधुर खेलनि गोरिल किछो छिरियौला
किछु देल लंका पठाइ हे
बभनीक पुत्र तोहेँ बाल गोरैय्या
ग्वालिन घर पैसल धपाइ हे
किछु दूध पीलनि गोरिल किछु ढ़रकओला
किछु देल लंका पठाइ हे

गंगेश: हम तँ बभनीक पुत्र मुदा हमर पुत्र तँ नै। ओ अछि बभनीक पुतोहुक पुत्र। हम बारह हजार ग्रन्थक बरोबरि एकटा तत्वचिन्तामणि लिखनिहार लेखक, मात्र एकटा साधारण शिक्षक छी। हमर तत्वचिन्तामणिक प्रतिलिपि करबापर प्रतिबन्ध के लगाएत? नवद्वीपक विद्यार्थी अवश्य लऽ जाएत हमर शिक्षा अपना संग।   
(वेदिकासँ फेर गीत उठैए।)
बभनीक पुत्र तोहेँ बाल गोरैय्या
बड़इ घर पैसल धपाइ हे
किछु पान खेलनि गोरिल किछु छिड़िऔला
किछु देल लंका पठाइ हे
बभनीक पुत्र तोहेँ बाल गोरैय्या
डोमिन घर पैसल धपाइ हे
नीक नीक पाहुर गोरिल अपने चढ़ाओलऽ
काना पातर देल हड़काइ हे
बभनीक पुत्र तोहेँ बाल गोरैय्या
ब्राह्मण घर पैसल धपाइ हे
नीक-नीक जनौ गोरिल अपने पहिरलनि
औरो देलनि ओझराइ हे
हकन कनै छै गोरिल ब्राह्मणीक बेटिया
ब्राह्मण बाबू बड़ दुख देल हे
भनहि गंगेश सुनू बाबू गोरिल
गहवर पैसिये जस लेल हे
गंगेश: (अपनेमे गुनधुन करैत) ई देवदत्त की कहि गेल? मुदा टोल आ चौपाड़िपर हमरा सोझाँ तँ एहेन कियो किछु नै बाजल अछि। मुदा शतरंजक अन्नक दानाक गणना। ओ तँ देवदत्त क सकमे नै छै।
(वल्लभाक प्रवेश।)
वल्लभा: की भेल? कोन गुनधुनी लागल अछि?
गंगेश: (वल्लभा दिश ताकि) वएह देवदत्तबला गुनधुनी।
वल्लभा: (गंगेश दिश ताकि) धुर छोड़ू ने। ओकरा बुद्धिक लेशो नै छै..
गंगेश: तेँ तँ वल्लभा। बुद्धिसँ काज केलापर ने सत्य आ असत्य..मुदा ओकरा बुद्धि नै छै। तेँ ओकर गपपर हमरा सोचऽ पड़ि रहल अछि।
वल्लभा: अहाँ तँ तत्वचिन्तामणिक लेखकक अलाबे आब कवि सेहो भऽ गेल छी। एतेक सुन्दर गीत लिखऽ लागल छी। तत्वचिन्तामणिमे आचार्य सिंह आ आचार्य व्याघ्र आ गीतमे बाल-गोरैय्या!!
गंगेश: हँ वल्लभा। अनायासे अहाँ कतेक नीक गप बाजि देलौं (शतरंजक घन लग जाइ छथि आ ओकरा टेढ़ कऽ कंगुरिया आंगुरसँ कोनपर नियन्त्रित करै छथि।) हँ वल्लभा…..ई तत्वचिन्तामणि नै, ई आचार्य सिंह आ आचार्य व्याघ्रक परिभाषा नै,……. ई बालगोरैय्या हएत समर्थ ऐ चौपाड़ि आ टोलक षडयंत्रकेँ तोड़बामे। (गंगेश कंगुरिया आंगुर घनसँ हटा लै छथि। घन घुमि कऽ फेर स्थिर भऽ जाइए। (गंगेश वल्लभा दिश ताकि बाजै छथि) अनायासे अहाँ कतेक नीक गप बाजि दै छी वल्लभा।
(तखने देवदत्त प्रवेश करैए।)
देवदत्त: (गंगेश दिश ताकि) गंगेश कवि!!!(आश्चर्यसँ हाथ पसारैए) गंगेश तत्त्वचिन्तामणिकारक। गंगेश कविक कवित्वक चर्च कियो नै करत!!
वल्लभा: (देवदत्त दिश ताकि) की ईहो निर्णय टोल आ चौपाड़िपर भऽ गेल छै।
देवदत्त: (वल्लभा दिश ताकि) हँ वल्लभा। मुदा तोरा कोना बुझल छौ?
वल्लभा: (देवदत्त दिश ताकि) बुझल नै अछि मुदा आब बुझल भऽ गेल जे हमर आ गंगेशक प्रेमक चर्चा, हमर आ गंगेशक विवाहक चर्चापर पहरुआ ठाढ़ कऽ देल गेल छै।
गंगेश: (शतरंजक घनकेँ फेर टेढ़ करैए) तँ हमर कवितापर सेहो चर्चा नै हएत। तत्त्वचिन्तामणिक सभ पाँतीपर भाष्य, टीका आ कवितापर..
वल्लभा: (शतरंजक घन गंगेशसँ अपना हाथमे लऽ लैए) गंगेश आब अहाँ चिन्ता छोड़ि दिअ। ई सभ गीत हमर नैहरामे गाओल जाएत। देवदत्त कहि अबियौ टोल आ चौपाड़िपर, गीत बन्न नै हएत। आइ नै तँ सात सए बर्ख बादो ऐ प्रेमक चर्चा फेरसँ हएत। आ जे प्रेम सात सए बर्ख इन्तजारी नै कऽ सकए ओ प्रेम प्रेम नै। की अहूपर हेतै कोनो प्रतिबन्ध।
देवदत्त: (वल्लभा दिश ताकि) हेतै नै भऽ गेल छै वल्लभा। देखू ओ बँसबिट्टी। ऐ गाम आ अही गामक अहाँक नहिराक टोलक बीचमे जे बाँसक कोपर सभ देखा पड़ि रहल अछि। अहाँक नहिराकेँ परदेस बना देत ई कोपड़। अहाँक गीत ओइ टोलसँ बहार तँ हएत मुदा ऐ बँसबिट्टीमे ओ भुतहा गीत बनि घुरत.. (गंगेश दिश ताकि) तत्वचिन्तामणिकारक गंगेश..
वल्लभा: सुकविकैरवकाननेन्दुः – गंगेश। अपन पुत्र वर्द्धमानकेँ कहबै हम। अपन पिताक कवि हेबाक प्रमाण छोड़त ओ..कहि दियौ देवदत्त ई गप टोल आ चौपाड़िपर। छै कियो ओतऽ सात सए साल लड़ैबला? बँसबिट्टीक गीत घुरियाइत रहतै। सुनै छिऐ कोनो ध्वनि खतम नै होइ छै दुनियाँमे। सुनै छिऐ एक्के तरहक सातटा लोक होइ छै दुनियाँमे एक्के समएमे। सात सए बर्खमे सातटा लोक नै हेतै की देवदत्त?

देवदत्त: (देवदत्त दिश ताकि)  नै हेतै वल्लभा। सात सए बर्खमे एकटा भऽ जाए सेहो बहुत छै।
वल्लभा: एक टा तँ हेतै ने देवदत्त, तँ तइ लेल हमर सभक प्रेमक गीत विचरैत रहतै अहि बोन बँसबिट्टीमे। बँसबिट्टीक पारक जीवन, टोल, चौपाड़ि सभ खतम भऽ जेतै देवदत्त ऐ सात सए बर्खमे, मुदा ई भुतहा गीत नै खतम हेतै। ई बँसबिट्टी आत्मा सभकेँ घुरा कऽ आनत। नीक आत्मा सभकेँ। उदयनकेँ, दीनाकेँ, भदरीकेँ, आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंहकेँ सेहो….

देवदत्त: नै खतम हेतै वल्लभा, नै खतम हेतै। नीक आत्मा एतै तँ दुरात्मा सेहो ने आबि जाए वल्लभा…सएह टा डर वल्लभा…दुरात्मा सेहो नै आबि जाए (देवदत्त चारू दिस ताकि झटकारि कऽ प्रस्थान करैए। वल्लभा आ गंगेश शतरंजक घन लग आबि ठाढ़ भऽ जाइ छथि।)
गंगेश: वल्लभा, छोड़ू ई सभ। कोन गुनधुनी लागि गेल अहाँकेँ। सुनाउ ने खिस्सा, कोनो दोसर खिस्सा, हमरा आब न्यायक कोनो ग्रन्थ नै लिखबाक अछि। आब हमरा भरि जनम कविते करबाक अछि। सुनाउ ने खिस्सा बालाराम आ वंशीधर ब्राह्मणक, व्याघ्र आ सूकरक, गहिल आ दुर्गाक।
वल्लभा: (वल्लभा घुरै छथि, दुखी मुँहपर मुस्की आबि जाइ छन्हि आ शतरंजक सभटा घनकेँ ओ एकत्र करै छथि आ हाथसँ सभटाकेँ नेपथ्य दिस सहटारि कऽ मंचसँ हटा दै छथि।)
            हिर्र हिर्र सूगर जाइए अखराहा करीब सँ
            पाछू बंशीधर भाभन खेहारैए भीर सँ
            भोरे भोरे अखराहामे सूगर संग युद्ध रे
            श्यामसिंह आबि माटि फेकल जूमि रे
            बंशीधरकेँ तामस उठलै बाजल किछु बात रे
            गहिल गहिल कहि श्याम सिंह छूटल जोर रे
            बंशीधर बलगर छल मारल बड़ जोर रे
            अरड़ा कऽ खसल श्यामसिंह, भेल अन्हेर हे
ओकर बेटा बालाराम केलक एकटा सत्त हे
एक सत्त दू सत्त ..तीन सत्त…हँ…..
गहिल दिअ शक्ति हमरा मारी बंशीधर केँ
गहील गेली दुर्गाजी लग करबेलन्हि सत्त हे
दुर्गा मुदा आबै छथि बंशीधरकेँ रक्ष हे
बंशीधरक सूगरकेँ मोहिनी काँटी भोकि मारल हे
बंशीधर तमसा कऽ ललकारा दैए बालारामकेँ
मुदा बालाराम भोंकैए काँटी ओकरो पेटमे
बंशीधरक पेट चिराएल दुर्गा एली बीचमे
गंगामे कऽ ठाढ़ कएल बालाराम बंशीधरकेँ
दोस्ती भेलै दुहू गोटे क बीचमे
गहिल मिललि, मिललि दुर्गा सभ मिलू संग हे
सभ मिलि बढ़ू अहि देसमे
((वल्लभा आ गंगेश एक-दोसराकेँ ताकऽ लगैत छथि)

(हूआ-हूआक ध्वनिक संग अन्हार पसरि जाइत अछि।)
















तेसर कल्लोल
(आचार्य व्याघ्र एकटा शतरंजक घनक चारू कात घूमि रहल छथि। आचार्य सिंह दोसर शतरंजक घनक चारू कात घूमि रहल छथि। दुनूक गरदनिमे कारी कपड़ा गाँती जकाँ मुँह भिरा कऽ बान्हल छन्हि। वातावरणक संगीत लगैए जेना बँसबिट्टीक हुअए आ भुतहा सन वातावरण चारू दिश सृजित अछि।)

आचार्य व्याघ्र: (आचार्य सिंह दिस ताकि) तत्वचिन्तामणिमे हमरा सभक चर्चा गंगेश केलन्हि मुदा आब लोक हमर सभक असल नाम सेहो बिसरि गेल। हमर सभक पोथी सेहो सुड्डाह भऽ गेल।
आचार्य सिंह: (आचार्य व्याघ्र दिस ताकि) मुदा अपना सभक तँ ऐसँ कोनो सरोकार अछिये नै, तखन?
आचार्य व्याघ्र: (मंचक सोझाँ अबैत) हँऽऽऽऽऽऽ, आ मुइलाक बाद भूत राकशसँ नीक व्याघ्र आ सिंह कहेनाइ भेल ने, हँऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ।
आचार्य सिंह: (आचार्य व्याघ्रकेँ पाछाँ सँ टोकैत) मुदा अपना सभक तँ कोनो सरोकार छलैहे नै, दर्शनक सिद्धान्तमे गंगेश द्वारा कएल आचार्य सिंहः आ आचार्य व्याघ्रः कहि कऽ मात्र कएल गेल छल हमरा सभक चर्चा…
आचार्य व्याघ्र: (घुरि कऽ देखैत) आ तहीसँ हमरा सभ अछोप भऽ गेलौं किने।
आचार्य सिंह: मुदा ओ तँ आनो लोकक चर्च तत्वचिन्तामणिमे केने छथि। ओ सभ किए अछोप नै भेला…
आचार्य व्याघ्र: कारण हुनकर सभक नाम गंगेश लिखने रहथि, स्पष्ट नाम, फलना आ चिलना, मुदा अपना सभक लेल ओ आचार्य सिंहः आ आचार्य व्याघ्रः मात्र लिखने छथि। से गंगेशक कविता बनि गेल उल्कामुख आ हम सभ बनि गेलौं व्याघ्र आ सिंह। गंगेशक बेटा वर्द्धमान गंगेशक विषयमे लिखलन्हि “सुकवि कैरव काननेन्दुः”। मुदा कियो खोजो केलकै चौपाड़िपर जे जँ गंगेश कवि रहथि तँ हुनकर कविता की भेल? आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंहकेँ गंगेश आदर देलन्हि। मुदा किए? ओ आदर रहए ओ पोथी सभ ओ विचार सभ जे हम सभ लिखलौं। तँ अपना सभक जइ पोथीक कारणसँ गंगेश आदर रूपमे अपना सभकेँ आचार्य व्याघ्रः आ आचार्य सिंहः कहलन्हि से पोथी सभ की भेल? ओइ पोथी सभमे तँ अपन सभक असल नाम छल। ओ पोथी सभ सेहो सुड्डाह कऽ देल गेल।
आचार्य सिंह: (आचार्य व्याघ्र दिश ताकि) कोन रहस्य छै ऐ मे?
आचार्य व्याघ्र: (मंचक अग्र भागमे आबि) असुरक्षा आचार्य सिंह, असुरक्षा। गंगेश केलक रक्षा हमर सभक तर्कक श्रीहर्षक आक्रमणसँ, आ बनेलक नव्य-न्याय। नवका शास्त्र, नवका न्यायशास्त्र। ओहो अजीबे भेल, पिताक मृत्युक पाँच साल बाद भेलै ओकर जन्म आ चर्मकारिणीसँ केलक विवाह। आ ओइ विवाहसँ जे पुत्र भेलै वर्धमान से फेर मिलेलक न्याय आ नव्य-न्यायकेँ। मुदा वर्द्धमान अपन पिताक कविताकेँ नै बिसरल। असुरक्षा आचार्य सिंह, चौपाड़ि मध्य बाहरक विद्यार्थीकेँ तत्वचिन्तामणिक प्रतिलिपि पक्षधर नै करऽ दै छलखिन्ह, ने सार-संक्षेप लिखऽ दै छलखिन्ह। चौपाड़िमे वर्द्धमानक बाद सभ कियो आचार्य व्याघ्र, आचार्य सिंह आ उल्कामुख, ऐ सभकेँ काल्पनिक बना देलक।
आचार्य सिंह: (पाछूसँ आचार्य व्याघ्रकेँ टोकैत) मुदा ऐसँ सर्जन कोना हएत आचार्य व्याघ्र? बिन सर्जनक चौपाड़िपर विद्यार्थी आत्म अभिव्यक्ति कोना करत? योग्यता कोना बढ़त। पुरान इतिहास, पुरान ज्ञान व्याघ्र, सिंह आ उल्कामुख बनि नै रहि जाएत? प्रतिबन्ध, प्रतिबन्ध..फेर ज्ञानक विस्तार कोना हएत? समाजक एक वर्ग दोसरसँ कटि जाएत… प्रतिबन्ध, प्रतिबन्ध..ऐ सँ स्नेह बढ़त वा निरपेक्षता बढ़त? जे अहाँकेँ करबाक हुअए करू, जे हमरा करबाक हएत हम करब..की समाजक यएह गति हएत?
आचार्य व्याघ्र: (घुरि कऽ आचार्य सिंह दिस तकैत) आचार्य सिंह। की ऐ विस्मरणकेँ रोकबाक प्रयास नै हेबाक चाही?
आचार्य सिंह: हेबाक चाही आचार्य व्याघ्र। कोनो चीजक विस्मरण तावत धरि सम्भव नै जाधरि ओकरा हम सभ बुझनाइए नै छोड़ि दइ।
आचार्य व्याघ्र: बुझि कऽ मोन राखनाइ, ठीक कहलौं आचार्य सिंह। तँ चौपाड़िपर ई व्यवस्था भऽ रहल हएत जे बिनु बुझने पाठ विद्यार्थीकेँ यादि कराएल जाए जइसँ सभ बिसरि जाथि गंगेश आ वल्लभाकेँ।
आचार्य सिंह: मुदा हम सभ संकेतक प्रयोग कऽ सकै छी। संकेतसँ स्मरण विस्मरण नै बनत। अपूर्ण रहत चौपाड़िक पाठ, आ अपूर्ण पाठक विस्मरण नै भऽ सकैए, विस्मरण होइए मात्र पूर्ण पाठ।
आचार्य व्याघ्र: मुदा कोन संकेतसँ रुकत ई विस्मरण आचार्य सिंह..
आचार्य सिंह: उल्कामुख…
(आकाशवाणी होइए…आ बिजलौका लौकैए. उल्कामुख..उल्कामुख…उल्कामुख…उल्कामुख…चारू दिस सोर होइए…आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंह वाम रंगशीर्ष दिश जाइ छथि। तावत आचार्य शरभ दूटा शिष्य- शिष्य खिखिर आ शिष्य शाही-क संग प्रवेश करै छथि आ रंगपीठ होइत दहिना मत्तवर्णीपर आबि जाइ छथि। दुनू शिष्य एकटा शतरंजक घन उठा कऽ अबै छथि। प्रकाश दहिना मत्तवर्णीपर केन्द्रित भऽ जाइत अछि। तीनूक गरदनिमे उज्जर कपड़ा गाँती जकाँ मुँह भिरा कऽ बान्हल छन्हि। वातावरणक संगीत लगैए जेना बँसबिट्टीक हुअए आ भुतहा सन वातावरण चारू दिश सृजित होइत अछि।वातावरण पहिनेसँ बेशी डेराओन भऽ जाइए..बीच-बीचमे गीदरक हुआ..हुआ..क अबाज अबैए।)
आचार्य सरभ: (मंचक सोझाँ अबैत) ई गंगेश आ वल्लभाक विवाह… शतरंजक खाना सभ दैत्याकार बनि जाएत, सात सए सालमे जाति खतम भऽ जाएत..किछु करू… रोकू.. विस्मरण… विस्मरण…. (दुनू शिष्य दिस तकैत) शिष्य खिखिर, शिष्य शाही।
शिष्य खिखिर: (आचार्यकेँ सम्बोधित करैत, शिष्य शाही सेहो पाछाँसँ लपकि कऽ देखैए) आचार्य सरभ, अपूर्ण पाठ क विस्मरण नै भऽ सकैए, विस्मरण होइए मात्र पूर्ण पाठ।
शिष्य शाही: (आचार्यकेँ सम्बोधित करैत, शिष्य खिखिर सेहो पाछाँसँ लपकि कऽ देखैए) आचार्य सिंह आ आचार्य व्याघ्रक शिक्षासँ निकलल अछि संकेत लिपि, संकेतसँ स्मरण विस्मरण नै बनत आचार्य सरभ। ओ संकेत पाठ अछि उल्कामुख..
आचार्य सरभ: (दुनू हाथ आकाशमे उठा कऽ गर्जन करै छथि) की अछि ई उल्कामुख? शिष्य खिखिर, शिष्य शाही..की अछि ई उल्कामुख? बड्ड नाम सुनै छिऐ एकर। मुदा चौपाड़िपर कियो बताएत जे की छिऐ ई उल्कामुख?
शिष्य शाही: आचार्य सरभ, कोना देखब ई उल्कामुख। ई आचार्य सिंह आ आचार्य व्याघ्रक शिक्षाक प्रयोग अछि जे गंगेश आ वल्लभा अपन कविता सभमे केने छथि। जे बना देलक अपना सभकेँ भूत, कल्पना….आ सेहो आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंहक प्रतापे…सभटा अछि संकेत मात्र, संकेत जे अछि चारू कात, आ जे अछि कतौ नै।
आचार्य सरभ: मुदा आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंह…ओहो तँ छथि कल्पना..तखन कोना कऽ रहल छथि ओ सभ ई?
शिष्य शाही: अपना सभक प्रतापे..
शिष्य खिखिर: (बीचमे टोकैत) अपना सभक प्रतापे?
आचार्य सरभ: हँ, जखन विस्मरणक शक्ति बढ़ि जाइए तँ स्मरण आबि जाइए ओ सभ बौस्तु जइसँ हम घृणा करै छी। आ तेँ आबि गेल आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंह। आ जखन आबि गेला आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंह तँ आनि लेलन्हि हमरा सभकेँ। मुदा ओ संकेत, ओ उल्कामुख ऐ बँसबिट्टीकेँ पार केलक कोना शिष्य शाही।
(शिष्य शाही शिष्य खिखिर दिस बकर-बकर तकैत अछि।)
शिष्य खिखिर: (आचार्य सरभ दिस ताकि) आचार्य सरभ… खतम तँ कैये देलिऐ हम सभ.. आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंहकेँ…. जँ गंगेश आदर देलन्हि हुनका सभकेँ तँ से पोथी सभ सेहो सुड्डाह भऽ गेल। गंगेशक कवित्वक चर्चा सुड्डाह भऽ गेल..तँ हुनकर कविता बनि गेल उल्कामुख.. वल्लभा बना देलन्हि ओकरा उल्कामुख.. आचार्य व्याघ्र, आचार्य सिंह आ गंगेश.. ऐ तीनू नामक भय.. पुरान इतिहास व्याघ्र, सिंह आ उल्कामुख बनि गेल तँ हमहू सभ तँ सरभ, खिखिर आ शाही बनि गेलौं। सरभ तँ कल्पित भऽ गेल, पूर्ण कल्पित, ओइ नामसँ तँ कोनो जानवर छैहे नै.. मुदा सरभ नामसँ पहिनहियो कोनो जन्तु नै रहै, मुदा सरभ रहै सदिखन.. काल्पनिक जन्तु..  शाही आ खिखिर सेहो खतम भेल जाइए.. कम भेल जाइए.. व्याघ्र आ सिंह सन…  प्रतिबन्ध, प्रतिबन्ध.. फेर ज्ञानक विस्तार कोना हएत?
आचार्य सरभ: (अविश्वास भावसँ शिष्य खिखिर दिस ताकि) हम पूर्ण कल्पना छी शिष्य खिखिर?
शिष्य शाही: (बीचमे टोकैत, आचार्य सरभ दिस ताकि) आचार्य, अहाँ कल्पना छी आ हम सभ कल्पना बनैबला छी।चौपाड़िपर बाहरक विद्यार्थीकेँ तत्वचिन्तामणिक प्रतिलिपि पक्षधर नै करऽ दै छलखिन्ह, आब देखियौ चौपाड़िक दशा.. बाहरक विद्यार्था तँ छोड़ू एतुक्को विधार्थीक एतए अभाव भऽ गेल अछि।
आचार्य सरभ: (मंचक सोझाँ आबि गर्जन करैत) हम कल्पना? आचार्य सरभ भूतकालक अछि कल्पना आकि आचार्य सरभ भविष्यकालक अछि कल्पना..विस्मरण..दोसराकेँ विस्मरण सिखबैत स्वयं विस्मरित भऽ गेल अछि आचार्य सरभ। विस्मरण मंत्र..ई उल्कामुख बनि गेल अछि भय.. दोसराकेँ विस्मरण सिखबैत स्वयं विस्मरित भऽ जाइए लोक।
(आकाशवाणी होइए…. उल्कामुख..उल्कामुख…उल्कामुख…उल्कामुख…आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंह वाम रंगशीर्षपर प्रकाश एलापर साकांक्ष भऽ जाइ छथि। आचार्य शरभ, शिष्य खिखिर आ शिष्य शाही दहिना मत्तवर्णीपर अन्हार भेलासँ मात्र छाह बनि जाइ छथि। तीनू छाह शतरंजक घन उठा कऽ आगाँ बढ़ैत छथि।)

आचार्य व्याघ्र: हम कल्पना? भूतकालक कल्पना आकि भविष्यकालक?..
आचार्य सिंह: (बीचमे टोकैत) भूतकालक आचार्य व्याघ्र, भूतकालक। भविष्य तँ वल्लभक मृत्युक सात सए साल बाद आएत..अखन तँ अदहे बीतल अछि… भविष्यकालक तँ प्रतीक्षा अछि..मुदा तावत की की कल्पना बनि जाएत…की की बचल रहि जाएत।
(सौंसे अन्हार पसरि जाइत अछि, अन्हारेमेसँ आचार्य सिंह आ आचार्य व्याघ्रक अबाज बहराइए।)
आचार्य व्याघ्र: तखन कल्पने सही आचार्य सिंह। चलू वर्द्धमान, दीना, भदरी आ उदयन लग। वएह सभ कोनो गप बतेता।
आचार्य सिंह: ई कोनो बेजाए गप नै हएत आचार्य व्याघ्र। षडयंत्रकेँ तँ तोड़ैए पड़त.. मुदा तावत की की बचल रहि जाएत सएह..।
आचार्य व्याघ्र: से तँ देखिये रहल छी आचार्य सिंह। आचार्य सरभ आ हुनकर शिष्य शाही आ शिष्य खिखिर, ओहो सभ चुप नै छथि, किछु ने किछु कइये रहल छथि। एकटा रटैबला मशीन बनि गेल अछि मिथिलाक विद्यार्थी। नव्य-न्याय बंगाल चलि गेल, तकर ककरो कोनो चिन्ता नै छन्हि.. जे किए चलि गेल.. वल्लभा आ गंगेशकेँ खतम करैत करैत ओ सभ सेहो खतम भऽ रहल छथि।
आचार्य सिंह: आचार्य व्याघ्र से तँ आरो खराप भेल.. हे आबि गेलाथि वर्द्धमान, दीन, भदरी आ उदयन।

(प्रकाश भऽ जाइत अछि आ मुख्य रंगमंच स्थलपर आचार्य सिंह, आचार्य व्याघ्र, उदयन, दीना, भदरी आ वर्द्धमान देखना जाइ छथि।)

आचार्य सिंह: (सभकेँ सम्बोधित करैत) हम सभ एतए एकत्र भेल छी..
वर्द्धमान: (बीचेमे टोकैत) कोनो अकाल..
उदयन: कोनो बाढ़ि..
आचार्य व्याघ्र: (सभकेँ सम्बोधित करैत) नै उदयन, बाढ़ि नै, नै वर्द्धमान अकाल नै..
आचार्य सिंह: (वर्द्धमान आ उदयनकेँ सम्बोधित करैत) वर्द्धमान, सोचक अकाल छै। उदयन, क्षुद्रताक बाढ़ि आएल छै।…
दीना: (बीचमे टोकैत) कोनो बाहरी शत्रु..
भदरी: मनुक्ख आकि बनैया पशु..
आचार्य व्याघ्र: (दीना आ भदरीकेँ सम्बोधित करैत) नै दीना, कोनो बाहरी शत्रु नै। भदरी कोनो बाहरी नै, ने कोनो मनुक्ख आ नहिये कोनो बनैया पशु..
आचार्य सिंह: (दीना आ भदरीकेँ सम्बोधित करैत) सभ अपने लोक दीना-भदरी। कोनो बाहरी शत्रु नै..कोनो बनैया नै, सभ खुट्टे पड़हक.. आचार्य सरभ.. आ हुनकर शिष्य सभ..
उदयन:: (मंचक सोझाँ अबैत) जगन्नाथ मन्दिरमे उदयनक उद्घोष, जे जैँ हम तेँ तूँ पूजित होइ छह। बन्द केवार खुजि गेल। आ ई के छी आचार्य सरभ.. एकटा गीदर..
दीना-भदरी: (सम्वेत स्वरमे, मंचक सोझाँ अबैत) जड़िमे दुनू गोटे अड़ा देलिऐ शरीर आ दरकि गेलै देवार। आ बन्न केवार खुजि गेल। आ ई के छी आचार्य सरभ.. एकटा गीदर..
दीना: (मंचक सोझाँसँ पाछू घुमैत) मुइल गाइक हड्डीमे फोटरा गिदर बनि नुका कऽ सलहेस दीना-भदरी आ बाघक कुश्ती देखथि। बाघक रान पकड़ि दू कात चीर कऽ फेकी हम दुनू भाँइ आ मुइल गाइक हड्डीसँ बहार भऽ फोटरा गीदर बनल सलहेस ओकरा जोड़ि देथि आ फेर । आ ई के छी आचार्य सरभ.. एकटा गीदर..
आचार्य सिंह: सभ सएह उपाय करू, कोना ओ गीदर फेकत आगि.. जे नै फेकि सकै ओ आगि
भदरी: मिथिलाक राजा मग्गहक हंशराज-वंशराजसँ नरुआरक पोखरि खुनबओलन्हि मुदा ओ जाइठ नै उठा सकल। हम दुनू भाँइ दछिनबरिया भीड़सँ जाइठ फेकलौं तँ ओ सोझे जाठिक लेल बनाएल खाधि- बॉली मे जा कऽ खसल। ई जाइठ अखनो दक्षिण दिस टेढ़ अछि। आ ई के छी आचार्य सरभ.. एकटा गीदर.. जे फेकैए आगि..
आचार्य सिंह: सभ सएह उपाय करू, कोना ओ गीदर फेकत आगिक गोला.. आ कोना बचत… कोना बचत विस्मरणसँ ई देश..
उदयन:: (कने चिन्तित होइत) विस्मरण!!!!!मन्त्रार्थमे महर्षि पतञ्जलिक वैज्ञानिक मन्तव्य यच्छब्द आह तदस्माकं प्रमाणम्माने जे शब्द आकि मंत्रक पद कहैत अछि सएह हमरा लेल प्रमाण अछि- एकर अर्थ बादमे वेदे प्रमाण अछि- सेहो हमरा नामसँ भविष्य पुराणमे नै जानि किए गलत रूपेँ दऽ देल गेल। अनकर देखल बौस्तुक स्मरण अनका कोना हेतै? विस्मरण.. आचार्य सरभक वस्मरण आगि अछि पसरि रहल.. आब बूझल..
आचार्य व्याघ्र: वएह स्मरण खतम कएल जा रहल छै.. स्मरण विस्मरण बनाएल जा रहल छै।
दीना-भदरी (सम्वेत रूपेँ): धामी कहलक हमरा सभकेँ काज करैले अपना खेतमे। मारि कऽ जुमा कऽ फेकलौं हम सभ ओकरा धामिन लग। धामिन गेल खिसिया आ बजेलक अपन दोस फोटरा गीदरकेँ। फोटरा गीदर मारलक हमरा सभकेँ। मुदा जिअत जिनगी पाबि कऽ ई उल्कामुख.. उदयन अहाँक विद्या पास नै अछि एतऽ.. मुदा जीबि गेल छी हम सभ मरियो कऽ…
उदयन:: बुझलौं, आब बुझलौं। लोकगाथा बनबए पड़त, नाराशंसी जगबए पड़त। हमर आ गंगेशक ग्रन्थकेँ बिनु बुझने रटबाक मतलब भेल विस्मरण।
वर्द्धमान: (गर्जन करैत) सुकविकैरवकाननेन्दुः गंगेश बनि जेताह उल्कामुख।
आचार्य व्याघ्र: जेना हम सभ बनि गेल छी, व्याघ्र आ सिंह आचार्य सिंह।
आचार्य सिंह: आ बना देने छी चौपाड़िक शिक्षककेँ आचार्य सरभ आ ओतुक्का विद्यार्थीकेँ खिखिर आ शाही। सभटा भऽ जाएत खतम? सर्वविनाश..
दीना: मुदा दौरीवाली हिरिया तमोलिन केलक तपस्या पतिक रूपमे प्राप्ति लेल..
भदरी: आ दौरीवाली जिरिया लोहारिन  केलक तपस्या पतिक रूपमे प्राप्ति लेल..
दीना-भदरी (सम्वेत रूपेँ): मरलाक बादो। गंगामे पैसि बनेलौं पत्नी दुनूकेँ। मरलाक बादो। आचार्य व्याघ्र.. आचार्य सिंह.. उदयन.. वर्द्धमान.. मरियो कऽ जिअत.. बिसरलो चीज घुरत..
उदयन:: गंगेश केलक रक्षा हमर तर्कक श्रीहर्षक आक्रमणसँ, नव्य-न्याय। नबका शास्त्र, नबका न्यायशास्त्र। ओहो अजीबे भेल, पिताक मृत्युक पाँच साल बाद भेलै ओकर जन्म आ चर्मकारिणीसँ केलक विवाह। आ ओइ विवाहसँ जे पुत्र भेलै वर्धमान से फेर मिलेलक न्याय आ नव्य-न्यायकेँ।
दीना-भदरी (सम्वेत रूपेँ): सत्यकामक सेहो तँ सएह हाल रहै। पिता के छलै ओकरा बुझले नै छलै, जबालाक पुत्रसत्यकाम, मुदा गौतम, मिथिलाक गौतम, हुनका सन गुरु भेटलै, वेदक अध्ययन केलन्हि। मरलाक बादो उदयन, नव आ पुरानक मेल आ विरोध होइए। वंशीधर बाभन आ बालारामक मेल भेल, लोक देवी गहील आ पौराणिक दुर्गा देवीक मेल भेल। 
उदयन:: (आश्चर्यसँ) मरलाक बादो दीना-भदरी।
दीना-भदरी (सम्वेत रूपेँ): हँ उदयन। फोटरा गीदर बनल दोस…संग भेलाह सलहेस। मरलाक बादे…
(अन्हार पसरि जाइत अछि, मुदा गपशप सुनबामे अबैत अछि, आचार्य सरभ आ शिष्य शाही आ खिखिरक गपशप।)
आचार्य सरभ: शिष्य नढ़िया, शिष्य बिज्जी, मारू , मारू खिखिर आ शाहीकेँ मारू। विद्यामे क्षति कऽ रहल अछि ई दुनू।
(मारि-पीटक शब्द आ खिखिर आ शाहीक आर्तनाद।)
आचार्य सरभ: लगैए खिखिर आ शाही मरि गेल। शिष्य नढ़िया, शिष्य बिज्जी। आब पढ़ाइ शुरू करू। कोनो दिक्कत नै हएत आब।
शिष्य नढ़िया: सभटा रटि लेलौं आचार्य सरभ, तूँ रटि लेलेँ बिज्जी।
शिष्य बिज्जी: हमहूँ सभटा रटि लेलौं नढ़िया। हँ आचार्य हमहूँ सभटा रटि लेलौं।
आचार्य सरभ: ठीक छै, अहाँ सभ जाइ जाउ।
(मंचपर प्रकाश आबि जाइत अछि, आ मात्र आचार्य सरभ मंचपर देखा पड़ै छथि।)
आचार्य सरभ: ठीक छै, आब सभ ठीक छै, धधरा हम फेकैत छी, हम आचार्य सरभ। बनबऽ दियौ ओकरा सभकेँ उल्कामुख, धधरा तँ हमहूँ फेकैत छी । आब हमरा बाद बनत आचार्य हमर दुनू शिष्य। हमर दुनू शिष्य बनत आचार्य, आचार्य नढ़िया आ आचार्य बिज्जी। आइ धरि तँ आचार्यमे कियो ने कियो एकटा बचिये जाइ छल जे विस्मरणमे नै रहै छल, मुदा आब हएत पूर्ण विस्मरण।  मरि गेल शाही आ खिखिर। बनत आचार्य, आचार्य नढ़िया आ आचार्य बिज्जी… हएत पूर्ण विस्मरण…
(तखने माइकसँ गीत आबऽ लगैए, आचार्च सरभ चारू कात ताकऽ लगै छथि…)
एक मूड़ी तुलसी जल साजि‍ के रखि‍हेँ गै मलहीनि‍याँ
हमरा पानि‍ सेब देवता अरैध के लबि‍हेँ गै
एक मूड़ी तुलसी जल साजि‍ के रखि‍हेँ गै मलहीनि‍याँऽ?
हमरा गौरध्‍या सन अरैध के लबि‍हेँ गै
एक मूड़ी तुलसी जल साजि‍ के रखि‍हेँ गै मलहीनि‍याँ
हमरा गहील सन देवता अरैध के लबि‍हेँ गै.....।
…..
आचार्य सरभ: (चारू दिस तकैत) के छी? के छी? (उद्विग्नतासँ मंचपर विचरण करैत) के छी। अपन प्रिय शिष्य खिखिर आ बिज्जीकेँ मारलौं.. मुदा ई के सभ छी जे विस्मरण रोकऽ चाहैए। संकेतसँ पसारऽ चाहैए ओ जकर हएत पूर्ण विस्मरण (पागल सन एम्हर-ओम्हर घुरियाइए, अबाज फेर अबैए)।
दुर-दुर छीया ए छीया,
सरभक मुँहसँ धधरा निकलै
जरै किछु नै किए?
दुर-दुर छीया ए छीया,
…..
(रुदन स्वरमे यएह गीत फेर अबैए, सरभ चौंकै छथि। स्वर कानऽ लगैए, आ आचार्य सरभ हँसऽ लगै छथि, हँसिते रहै छथि। सगरे अन्हार पसरि जाइए।आ जखन इजोत होइए तँ उदयन, दीना, भदरी आ वर्द्धमान मुख्य रंगमंचपर देखा पड़ै छथि।)
उदयन:: (मंचक सोझाँ सम्बोधित करैत) आब पुरान नाम फेरसँ रखबाक परम्परा आएल छै। से हम उदयन। ई छथि दीना, ओ भदरी, ओ वर्द्धमान..…सुनै छिऐ नामक सेहो प्रभाव पड़ै छै। जे से…
वर्द्धमान: (पाछूसँ उदयनकेँ सम्बोधित करैत) धारक कातमे आ साँपबला घरमे निवास केनिहारकेँ चैन कतऽ उदयन? ई मिथिला सएह बनि गेल अछि।
उदयन:: (मंचक सोझाँ घुरि सभकेँ सम्बोधित करैत) भातढाला पोखरि आ सागढाला पोखरि जाए पड़त, तत्काल।
दीना: (उदयनकेँ सम्बोधित करैत) जतए भीम भात आ साग रखैत रहथि?
उदयन: हँ, आ सिमलवन सेहो।
भदरी: (उदयनकेँ सम्बोधित करैत) सेमापुर जतए अर्जुन अपन अस्त्र-शस्त्र अज्ञातवास कालमे नुकेने रहथि?
उदयन: हँ, एकटा आर युद्ध शुरू भऽ गेल अछि। दिमागी युद्ध.. नाराशंसी.. शुरू हएत दिमागमे..
वर्द्धमान: (हाथ पसारि)
घृणाक तरहरिमे
प्रेम, मुस्कीसँ जीतब घृणा आ ईर्ष्याकेँ
घृणाक तरहरि खूनऽ दियौ
तरहरिमे घृणाकेँ गारि देबै
अपन प्रेमक शक्तिसँ

उदयन:: हँसैत- मुस्कियाइत करबै आग्रह
जे परिश्रम घृणाक तरहरि बनबऽमे लगौलक
कहबै प्रेमक पोखरि काटऽ
मे प्रेमक पानि बरखा मासमे भरि जाएत
आ भरले रहत, ततेक गहींर कऽ काटल रहत माटि
मे हेलत प्रेम
हेलैत रहत
आ बहि जाएत, डूमि जाएत घृणा आ ईर्ष्या
डूमि जाएत आ बझा कऽ लऽ जएतै पनिडुब्बी ओकरा

दीना:
जावत हम रहब
नै छूबि सकत क्यो प्रेमक सत्यक पुत्रकेँ
कारण शक्तिसँ, ऊर्जासँ भरल अछि सत्यक पुत्र
ओकर चारूकात स्थूल-प्रेमक गिलेबासँ ठाढ़ कएल घेराबा रहत
नै करू चिन्ता।

भदरी:
आ जहिया हम नै रहब
सीखि जाएब अहाँ सभ किछु
हमर वियोग बना देत सक्कत, तीव्र आ कठोर
सत्यक विरोधीक लेल
घेराबाकेँ तोड़बाक प्रयास
अहाँक स्थूल-प्रेमी मित्र सभ नै हेमऽ देथिन्ह सफल
उदयन:
से हम रही वा नै रही
प्रयाण थम्हत नै
बतहपना बढ़त नै
मारि देब तँ मारि दिअ
मुदा मोन राखू
हमरा संगे मरत आर बहुत रास वस्तु
मुदा रहबे करत स्थूल-प्रेमी साधक सभ

दीना:
आ करत पहिल नृत्य हस्त संचालनसँ
चतुरहस्त
आनन्दसँ भरल मोन
सत्य, झूठ आ तकर निर्णयक लेल

भदरी:
सनगोहिक चामसँ छारल डफ-खजुरी लए
डोरीक कम्पनसँ ध्वनि निकालत
गुमकी, ओ खजुरीक ध्वनि
आ गुमकी, गुम..गुम..गुमकी...
आ तखन दोसर नृत्य होएत प्रारम्भ
दीना:
शिखरहस्त
पर्वतशिखरसन
युद्धक आवाहन-प्रदर्शनक लेल
घृणाक तरहरि खूनऽ दियौ
मारि देत तँ मारऽ दिऔ
मोन राखू मुदा
हमरा संगे मरत आर बहुत रास वस्तु

उदयन:
मुदा हमर वियोग बना देत सक्कत, तीव्र आ कठोर
रक्तबीजी सत्यपुत्र सभकेँ

दीना-भदरी: (सम्वेत स्वरमे)
बुढ़िया डाही संग अछि
कमलक मृणाल, पुरैनि, कमलगट्टा, बिसाँढ़सँ भरल खेत
नै छथि बुढ़िया डाही
खेत जे छलै सनगर यौ
से बनल प्रेमक कमलदह
घृणाक विरुद्ध अछि हमर ई बुढ़िया डाही
(वल्लभाक अबाज अबैए, सभ चौंकि कऽ देखऽ लगै छथि।)
दीना-भदरी:
बुढ़िया डाही, वल्लभा.. वल्लभा..  देखू प्रभाव उदयन.. देखू..

वल्लभाक अबाज:
फेर वएह गप
आत्मरक्षार्थ
सत्यक विरोधमे
चोरबा बाजल फेर
सर्जनक सुख भेटत चोरिमे?
दोसराक कृति अपना नाम केलासँ
आकि दोसराक मेहनतिकेँ अपन नाम देलासँ
दोसराक प्रतिभाकेँ दबा कऽ
कुटीचालि कऽ आर
भाँग पीबि घूर तर कऽ गोलैसी
कोनाकेँ आँगुर काटब जे लिखब बन्न करत
तोड़ि दियौ डाँर, काटि दियौ पएर
आँखि निकालि लिअ धऽ दियौ रॉलरक नीचाँमे
पिसीमाल उठा दियौ
बड़का एलाहेँ सर्जनक सुख पएबाले
(गंगेशक अबाज अबैए, सभ चौंकि कऽ देखऽ लगै छथि।)

गंगेशक अबाज:
तँ की हारि जाइ
तँ की छोड़ि दिऐ
इच्छा जीतत आकि जीतत ईर्ष्या
संकल्प हमर जे धारकेँ मोड़ि देब
संकल्प जीतत आकि जीति जाएत घृणा
मुदा किछु ईर्ष्या आ घृणा अछि सोझाँ अबैत
ईर्ष्या जे हम धारकेँ नै मोड़ि पाबी
घृणा जे बहैत रहए ओ ओहिना
ओहिना किए ओहूसँ भयंकर बनि
दीना-भदरी:
गंगेश….  देखू प्रभाव उदयन.. देखू..

वल्लभाक अबाज:
संकल्प जे हम केने छी
इच्छा जे अछि हमर/ से हारि जाए
आ जीति जाए ईर्ष्या-द्वेष/ जीति जाए घृणा
हा हारबो करी तेना भऽ कऽ जे लोक देखए!/ जमाना देखए!!
तेना कऽ हारए संकल्प हमर/ इच्छा हमर

गंगेशक अबाज:
धारकेँ रोकि देबाक/ ठाढ़ भऽ जएबाक सोझाँ ओकर
आ मोड़ि देबाक संकल्प ओ भयंकर उदण्ड धारकेँ
मुदा किछु आर ईर्ष्या अछि सोझाँ अबैत
ओ द्वेष चाहैए जे हमर प्रयास/ धारकेँ मोड़बाक प्रयास

वल्लभाक अबाज:
मोड़लाक प्रयासक बाद भऽ जाए धार आर भयंकर
पुरान लीखपर चलैत रहए भऽ आर अत्याचारी
आ हम जा हारि
आ हारी तेना भऽ कऽ जे लोक राखए मोन
मोन राखए जे कियो दुस्साहसी ठाढ़ भऽ गेल छलि धारक सोझाँ
तकर भेल ई भयंकर परिणाम
जे लोक डरा कऽ नै करए फेर दुस्साहस
दुस्साहस ठाढ़ हेबाक उदण्ड-अत्याचारी धारक सोझाँमे
लऽ ली हम पतनुकान/ आ से सुनि थरथरी पैसि जा लोकक हृदयमे
घृणाक विरुद्ध ठाढ़ हम बुढ़िया डाही।

(अबाज शान्त भऽ जाइत अछि, फेरसँ सभ साकाक्ष भऽ जाइ छथि।)
उदयन:
मुदा हम हँसै छी
हारि तँ जाएब हम मुदा हमर साधनासँ जे रक्तबीज खसत
से एक-एकटा ठोपक बीआ बनि जाएत सहस्रबाढ़नि झोँटाबला
घृणाक विरुद्ध ठाढ़ अछि हमर ई बुढ़िया डाही।
दीना:
कमलक मृणाल, पुरैनि, कमलगट्टा, बिसाँढ़सँ भरल खेत बनत
खेत जे छलै सनगर यौ, जाहिमे घृणाक तरहरि खुनेलौं यौ
घृणाक तरहरि खूनल ओ खेतमे
कमलक मृणाल, पुरैनि, कमलगट्टा, बिसाँढ़ अछि भरि गेल
भदरी:
मुदा प्रेमक कमल अछि फुला गेल।
सहस्रबाढ़नि झोँटाबला बुढ़िया डाही केलक ई।
वर्द्धमान:
आ तखन
फैसला हेतै आब
जखन
उनटि जाइए लोक
उनटि जाइ छै बोल
छने-छन बदलि जाइए
बिचकाबैए ठोर
बोलक मधुर वाणी
बोली-वाणी
बदलि जाइ छै
बनि जाइए बिखाह
गोबरझार दऽ चमकाबै छी स्मृतिकेँ
घृणाक विरुद्ध ठाढ़ छलि तहियो हमर ई बुढ़िया डाही।
उदयन:
धारकेँ रोकबाक हिस्सक जकरा लागि गेल छै
आ ओ सभ तकर विरुद्ध ठोकि कऽ ता
भऽ जाएत ठाढ़
आ डरा जाएत द्वेष स्मरण कऽ
जे फेर रक्तबीजसँ निकलल सहस्रबाढ़नि सभक रक्तबीज
एकर सभक बीआक सन्तान फेर आर बढ़ि जाएत आक्रमणसँ
कारण संकल्प अछि, इच्छा अछि ई सभ
धारकेँ रोकबाक हिस्सक जकरा लागि गेल छै
सभ सम्वेत स्वरमे:
घृणाक विरुद्ध अछि जे जकरा बुढ़िया डाही अहाँ कहै छिऐ।
घृणाक विरुद्ध अछि जे जकरा बुढ़िया डाही अहाँ कहै छिऐ।
घृणाक विरुद्ध अछि जे जकरा बुढ़िया डाही अहाँ कहै छिऐ।
घृणाक विरुद्ध अछि जे जकरा बुढ़िया डाही अहाँ कहै छिऐ।
(लगैए जे सभ उड़िया रहल छथि..हबा तेज बहैए.. सभ हाथक अभिनयसँ आ देहक हवाक विरुद्ध ठाढ़ करबाक अभिनयसँ बिहाड़िमे उड़ियेबाक अभिनय करै छथि। आस्ते आस्ते अन्हार पसरि जाइए।)






चारिम कल्लोल
(मंचपर अन्हार अछि। नेपथ्य्सँ गीत अबैत अछि)
कमला मैया बसत बड़ी दूर
गमक लागे गेंदा फूल
 कथी डालि‍ लोरहब बेली-चमेली
कथी डालि‍ लोरहब अरहूल हे
गमक लागे गेंदा फूल कमला मैया.....
कि‍नका चढ़ाएब बेली-चमेली
कि‍नका चढ़ाएब अरहूल
गमक लागे गेंदा फूल
गमक लागे गेंदा फूल

कमला चढ़ाएब बेली-चमेली
कोयला चढ़ाएब अरहूल,
गमक लागे गेंदा फूल हे
कमला...कि‍नका सँ मांगब अन-धन सोनमा
कि‍नकासँ मांगब सोहाग गे सोहाग गे
मलहि‍नयाँ देखै मे फूल वर लाल हे
ससि‍या सँ मांगब अन-धन सोनमा
मातैर सँ मांगब सोहाग गे
मलहि‍नयाँ देखै मे फूल वर लाल....।

(मंचपर प्रकाश अबैए। एक दिस मत्तवर्णीपर दीना आ दोसर दिस मत्तवर्णीपर भदरी छथि, दीना भातढाला पोखरि आ भदरी सागढाला पोखरिक कातमे छथि। एक दिस रंगशीर्षपर उदयन आ दोसर दिस रंगशीर्षपर वर्द्धमान छथि । रंगपीठ खाली अछि।)

वर्द्धमान: (उदयनकेँ सम्बोधित कऽ) धारक कातमे घर बनेने छी हम आ साँपबला घरमे रहै छी अहाँ आचार्य उदयन?
उदयन:: धारक कातमे निवास केनिहार आ आ साँपबला घरमे निवास केनिहारकेँ चैन कतऽ? वर्द्धमान, भातढाला पोखरि आ सागढाला पोखरिपर दीना भदरी छथि ने?
दीना: (चिकड़ि कऽ) भातढाला पोखरिपर, जतए भीम भात रखैत रहथि? हम छी दीना, एतऽ भातढाला पोखरिपर।
भदरी: (चिकड़ि कऽ) सागढाला पोखरि, जतए भीम साग रखैत रहथि। हम छी भदरी, एतऽ सागढाला पोखरिक कातमे।
उदयन: हँ, आ सिमलवन सेहो जाए पड़त ककरो, ओतऽ कब्जा छन्हि आचार्य सरभक।
भदरी: हँ वएह सेमापुर छी सिमलवन जतए अर्जुन अपन अस्त्र-शस्त्र अज्ञातवास कालमे नुकेने रहथि?
उदयन: हँ, एकटा आर युद्ध शुरू भऽ गेल अछि।
वर्द्धमान: मुदा ई युद्ध शास्त्रार्थसँ नै जीतल जा सकैए आचार्य उदयन। (रंगपीठ दिस इशारा करैत।) देखू ओतऽ सभ किछु लागि रहल अछि खाली खाली, मुदा अछि नुकाएल शस्त्र, घृणा, ईर्ष्या-द्वेष आ..
उदयन: (बीचमे टोकैत).. आ आचार्य सरभ। (रंगपीठक दूर भाग दिस इशारा करैत।) ओऽऽऽऽऽ छी ठाकुरगंज, भीम ठाकुर माने भनसिया बनि समै कटने रहथि, ओतै ओ कीचक वध केने रहथि।
भदरी: (हाथ उठा कऽ) घृणाक वध हएत आब..
दीना: (हाथ उठा कऽ) अवश्य भदरी…
भदरी: अगड़म बगड़म काठ कठम्‍बर
दीना: दिनमे कौआ देखि कऽ डेराइ, रातिमे नदी हेलि जाइ
भदरी: (रंगपीठ दिस आंगुर देखबैत) ओतए मनिहारीमे श्रीकृष्णक औंठीक मणि हेरा गेल छलन्हि।
उदयन: (हाथ आ मुँह ऊपर उठा कऽ चिकरि कऽ) आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंह। अहाँ सभकेँ कागचक व्याघ्र आ सिंह बनाबैबला आचार्य सरभक काट आब जा कऽ भेटल अछि.. हेराएल मणि, ई संकेत उल्कामुख पसारि दियौ सभ ठाम, ठाम-ठाम.. जे भेटतै ककरो.. आ बिसराइयो कऽ स्मरण भऽ जाएत ओ।
(नेपथ्यसँ गीत अबैत अछि। सभ स्थिर भऽ जाइ छथि।)
कटबै मे सोना सुतरि‍या बि‍नबै झुमरि‍ जाल हे
जाल फरि‍-फरि‍ कमला एलखि‍न
सन-झुन लागै गोहबरि‍या
कहाँ गेली परलोभि‍या सेवक
सुन लगै गोहबरि‍या हेऽऽ
कटबै......
जाल फरि‍-फरि‍ गांगो एलखि‍न
रून-झुन लगै गोहबरि‍या हे
कहाँ गेली परलोभि‍या सेवक,
सुन लगै गोहबरि‍या हे
सुन लगै गोहबरि‍या हे

कटबै.........
जाल फरि‍-फरि‍ मातैर एलखि‍न
रून-झुन लगै गोहबरि‍या हे
कहाँ गेली परलोभि‍या सेवक
सुन लगै गोहबरि‍या हे
कटबै.....
बि‍नबै झुमरि‍ जाल हे।
(अन्हार पसरि जाइत अछि।फेर इजोत होइत अछि आ आचार्य सरभ विक्षिप्त अवस्थामे मुख्य मंचपर अबै छथि।)

आचार्य सरभ: (मंचसँ बाहर पाछू कात बोन दिस इशारा करैत।) ई बँसबिट्टी एतेक पातर किए भऽ गेल अछि। ऐमे सँ कोनो अबाज नै अबै छलै, मुदा आब ई गीत पहिल बेर एकरा चीड़ि कऽ आबि रहल अछि। ई कोना रोकि सकत उल्कामुखकेँ..कोना रोकि सकत?..(ठमकि कऽ पाछू दिस ताकि कऽ) शिष्य..(फेर ठमकि कऽ) मुदा ई शिष्य सभ तँ कोनो जोकरक अछिये नै। ई सभ कोना कऽ रोकि सकत उल्कामुखकेँ? ई सभ तँ रटन्त विद्याक पालक सभ अछि..आ स्त्रीक प्रतिबन्ध चौपाड़ि आ टोलमे कऽ देने छिऐ पहिनहियेसँ.. वएह सभ गीत गाबि रहल अछि... ई सभ तँ उल्कामुख बुझबे गुनबे नै करत तँ कोना कऽ रोकि सकत?
(आचार्य व्याघ्र आ आचार्य सिंहक प्रवेश।)
आचार्य व्याघ्र: (आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) आचार्य सरभ, बहुत भेल कल्पना, थाकि गेल छी हम।
आचार्य सिंह: (आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) आचार्य सरभ, कल्पना खतम। ई जादू खतम, ई बँसबिट्टीक बेढ़ खतम भेने आब नहिये हमर, नहिये आचार्य व्याघ्रक, नहिये अहाँक, नहिये गंगेशक, नहिये वल्लभाक, नहिये वर्द्धमानक, नहिये उदयनक, नहिये दीनाक आ नहिये भदरीक अस्तित्व बाँचल।
आचार्य व्याघ्र: वृन्दावन बोन बनि गेल ई बँसबिट्टी। (बाट दिस इशारा करैत) एतऽ आबैबला रस्ता ई बाटो बहिन मदति केनाइ शुरू कऽ देने अछि वल्लभाक। काछुक खोपड़ीमे सरिसवक तेलमे बाती राखि बियाहक दीप बनाओल गेल छलै वल्लभा लेल। कपोत रूपमे बिध-बिधाता आबि गेल छथि। (नेपथ्यसँ साँइ-साँइ करैत अबाज अबैए। आचार्य व्याघ्र कान पाथि सुनै छथि।) सुनू ई स्वर। स्वप्नलोकमे विचरणक दिन खतम भेल।
आचार्य सिंह: (अकास दिस इशारा करैत) हरियर पाँखि आ लाल ठोरबला ई सुग्गाक जोड़ी, लटपटिया सुग्गाकेँ देखू, (अकासमे दोसर दिस इशारा करैत) ऐ प्रेम सखा मोरक जोड़ी देखू, बिदा भऽ गेल अछि ऐ वृन्दावन लेल।
आचार्य सरभ: (आचार्य सिंहकेँ सम्बोधित करैत) छिन्नमस्ताक कटल मूड़ीबला धड़, ओ मूड़ी धड़सँ खसैबला बिचका मोटका धारकेँ पीबैए.. शोनितक मोटका धारकेँ.. ओ नीचाँ खसल मूड़ी, ओ खसल मूड़ी हम बनि गेल छी आचार्य सिंह….. नै हारब हम.. हएत विस्मरण.. भैये गेल अछि विस्मरण..
आचार्य व्याघ्र: (आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) आ दूटा आर धार दूटा दुनू कातमे ठाढ़ जोगिन पीबै छै आचार्य सरभ। दीना, भदरी, ओइ दुनू जोगिनकेँ मोहि लेलन्हि, जेना मोहि लेने रहथि ओ जिरिया लोहारिन आ हिरिया तमोलिनकेँ ।
आचार्य सिंह: (आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) इच्छा एकटा मशीन छीसत्यक आ इतिहासक सत्यता मात्र आभासी..
आचार्य व्याघ्र: (आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) सत्य आ आभासीक बीच भेद मेटा देने रहए ई बँसबिट्टी।
आचार्य सिंह: (आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) अचेतनता चेतना बनि गेल। ओकर भाषा अछि उल्कामुख।
आचार्य व्याघ्र: (आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) आचार्य सरभ, अहाँक शिक्षा पद्धतिमे किछु भाव आ सोच वंचित रहए।
आचार्य सिंह: (आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) निरन्तरताक विरोध करैए उल्कामुख।
आचार्य सरभ: (आचार्य व्याघ्र आ सिंक बीचमे जा सोझाँ बजैत) समताक लगक शब्द असमता, न्यायक लगक शब्द अछि अन्याय आ वंचितक लगक शब्द अछि प्राप्ति।
आचार्य व्याघ्र: (आगाँ बढ़ि आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) नै आचार्य, ई अहाँक दमित करैबला शिक्षा पद्धति अछि, एकर विरोध करैत अछि उल्कामुख।
आचार्य सरभ: (आचार्य व्याघ्र आ सिंक बीचमे जा सोझाँ बजैत) ऊँच स्थान लोककेँ अहाँ सभ नीचाँ आनऽ चाहै छी आ निचुलकाकेँ ऊपर।
आचार्य सिंह: (आगाँ बढ़ि आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) अहाँक शिक्षा पद्धतिक भाग अछि ई ऊँच आ नीँच, एकर विरोध करैत अछि उल्कामुख।
आचार्य सरभ: (आचार्य सिंह दिस तकैत।) एकल वाद्यकेँ मेटा कऽ अहाँ जन कोलाहल आनऽ चाहै छी।
आचार्य सिंह: (आगाँ बढ़ि आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) जन गाथापर लिखल नाराशंसीपर नाचत लोक आ ओकरे संगे नाच गन्धर्व। स्म्वेत स्वरक नाद अछि उल्कामुख।
आचार्य सरभ: (हाथसँ वीभत्स इशारा करैत।) मुदा रचनाकार तँ मरि गेल। के मानत जे के अछि लिखने ई उल्कामुख?
आचार्य व्याघ्र: (आगाँ बढ़ि आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) रचनाकारसँ बेशी महत्वपूर्ण अछि ई रचना, एकर सन्देश, आ ओ रचना आ संदेश अछि उल्कामुख।
आचार्य सिंह: (आगाँ बढ़ि आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) रातिक राजा छल चोर, दिनमे मालिक मालिक करै छल। चोरक रूप थोड़े होइ छै आब आब तँ चोरियो सभ कर लागल अछि। पहिने ओकर प्रशिक्षण होइत रहए, खेतक आरिपर। सिंह कोना काटल जाय से आरिकेँ काटि क देखाओल जाइत रहए। भोर भेने जे लोक सभ खेत जाइत छल तँ देखैत छल। देखैत छल आरिमे काटल सिंघ… भरि गाम हल्ला..। रौ, सतर्क रहै जाइ जो। कोनो पैघ चोरिक योजनामे अछि ई सभ। मुदा फेर वह सभ दिनमे सामान्य मनुक्ख।.....
आचार्य व्याघ्र: (आगाँ बढ़ि आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) दू दिनसँ फुटहा खा कऽ गुजर कऽ रहल छी। आइ चोरि लेल जाए पड़त। बच्चा सभक लेल। देहमे तेल लगा कऽ, मुँहमे भसम लगा कऽ। क्यो पकड़ए चाहत तँ छछलि कऽ भागि जएब। हे क्यो चोरकेँ रातिमे चीन्हि लेलहुँ तँ बरनी रह देबैक। नाम नै बकि देबैक। नै तँ मारि देत... कारण दिनमे तँ अहाँ मालिक भऽ जएबैक। से डर छैक रातुक राजाकेँ।
आचार्य सरभ: (आचार्य व्याघ्र आ सिंक बीचमे जा सोझाँ बजैत)  की कथा सुना रहल छी..ओइ.. ओइ.. की कहलिऐ..उल्कामुखक..
आचार्य सिंह: (आगाँ बढ़ि आचार्य सरभकेँ सम्बोधित करैत) मुँह बिचकेलहुँ तँ लोक सभ बुझलक जे प्रसन्न छी, भौंहपर जोर देने बुझलक जे चिन्तनशील छी। मुदा हृदय रहैए सदिखन कनैत। से हम जनैत छी आचार्य सरभ..
आचार्य सिंह: (बाहर अकासमे एकटा किरण चमकैते रहैत अछि।) आ देखू, वनदेवी सेहो आबि गेलीह ऐ वृन्दावन, आ वनदेवीक सखी वनसप्तो, पाँखियुक्त ममातामयी गाय। आबि गेलीह वनसप्तो बोनमे हेराएल उल्कामुखकेँ रस्ता देखबै लेल।
(तीनू गोटे तेना अभिनय करै छथि जेना हबामे उड़िया रहल होथि। नेपथ्यसँ साँइ-साँइ करैत अबाज बढ़िते जा रहल अछि।)
तीनी गोटे सम्वेत: कल्पनाक पएर उखड़ि रहल अछि…आबि रहल अछि उल्कामुख।

अगड़म बगड़म काठ कठम्‍बर
अगड़म बगड़म काठ कठम्‍बर
अगड़म बगड़म काठ कठम्‍बर
आबि गेल ई उल्कामुख
(उड़ियाइत तीनू गोटे खसबाक अभिनय करैत छथि आ सगरे अन्हार पसरि जाइत अछि।)
(फेर प्रकाश होइत अछि आ मंचपर घनक स्थान गोलाकार पिण्ड लऽ लैत अछि।)

भगता: घूमि रहल अछि ई पृथ्वी। (गोलाकेँ परिश्रमसँ हाथमे उठबैत छथि।) लटकल अछि ई अकासमे। एकर नीचाँमे कोनो आधार नै छै। एतेक भारी अछि तैयो कोनो भार नै छै एकरामे।
अगरम बगड़म काठ कठम्बर
(गोलाकेँ नीचाँमे राखि दै छथि आ घसकि कऽ पाछाँ आबि जाइ छथि- दक्षिण दिशामे। हुनकर शिष्य अबैत छथि आ गोलाकेँ घुमबऽ लगै छथि।)
भगता: देखू। ई घड़ी विपरीत दिशामे घूमि रहल अछि ई पृथ्वी, मुदा जँ उत्तर दिश देखबै तखन। दक्षिण दिस तकबै तँ घड़ीक दिशामे घुमैत देखाएत ई। आ हम अहाँ जे ऐ पृथ्वीपर छी ओकरामे भार छै। आ ई पृथ्वी अछि बिन भारक, अकासमे लटकि रहल।(हुनकर शिष्य पृथ्वीकेँ उठा कऽ इशारा करै छथि।)
अगरम बगड़म काठ कठम्बर
(भगता उकासी करऽ लगै छथि। तखने भगताकेँ नीचाँमे उल्कामुखी ताबीज भेटै छै, ओइमे सरभक चित्र छै…ओ चिकड़ि उठैए.. “ई की..  ई की.. उल्कामुखी ताबीज… हम कहै छलिऐ सएह हएत..” ई कहि ताबीज खोलैए आ ओइमेसँ तालपत्रपर किछु अक्षर खचित रेशा सन बहराइत अछि.. आ ओ खुशीसँ बेहोश सन भऽ जाइए….. शिष्य गोलाकेँ नीचाँ राखि कऽ भगताक छाती ससारऽ लगै छथि।)
भगताक शिष्य: (गुरुजीकेँ ससारब छोड़ि ठाढ़ भऽ) दक्षिण दिशासँ आएल छथि गुरुजी खिस्सा सुनि कऽ.. (मोन पाड़ैत) बासवेश्वरक। कहै छथि जे मिथिलामे सेहो हेतै ई सभ। हजार सालक बाद पुरनका गप घटित हेतै। (मुस्की दैत) मुदा गुरु छै हमर सिद्ध, केहेन केहेन गप बाजै छै नै सुनै छिऐ।  
(भगता होशमे आबि जाइए, बेसी जोरसँ उकासी करऽ लगैए। शिष्य भगताक छाती ससारऽ लगै छथि। सगरे अन्हार पसरि जाइत अछि।)










पाँचम कल्लोल
पहिलसँ चारिम कल्लोल धरि मंचपर शतरंजक डिजाइन बनाएल घन राखल छल, आब पाँचम अंकसँ भूत आ कल्पनाक प्रतीक ओइ संकेतक बदला वास्तविकताक प्रतीक गोला राखल रहत।
[सोहागो (गंगाधरक माता), शिष्य साही बनि गेल हरपति (गंगाधरक पिता), गंगेश बनि जाइ छथि गंगाधर, वल्लभा बनि जाइ छथि कुमरसुता (गंगाधरक पत्नी), भगता बनि गेल जटा, भगताक शिष्य बनि गेल दलित गायक हीरू, आचार्य व्याघ्र बनि जाइ छथि मनसुख (जीवेक पिता), आचार्य सिंह बनि जाइ छथि हरिकर-सेनापति (मेधाक पिता), आचार्य सरभ बनि जाइ छथि कीर्ति सिंह (राजा), वर्द्धमान बनि जाइ छथि मितू (गंगाधरक बहिनोइ), आनन्दा (गंगाधरक बहिन), मेधा (हरिकर- सेनापतिक बेटी), देवदत्त बनि जाइ छथि जीवे (मनसुखक बेटा), शिष्य खिखिर बनि गेल राजाक अर्थमंत्री नारायण, शिष्य नढ़िया बनि गेल दरबारी-१, शिष्य बिज्जी बनि गेल दरबारी-२, उदयन बनि गेल माधव (अनुभव मण्डलक सदस्य आ दरबारी), दीना बनि गेलाह माधवक सहयोगी-१, भदरी बनि गेलाह माधवक सहयोगी-२ , रुद्रमति (माधवक माए)]
(नेपथ्यसँ गीत आबि रहल अछि।)
पहि‍‍ल मास चढ़ु अगहन, देवकी गरम संओ रे
ललना रे....
मूंगक दाल नहि‍ सोहाय, केहन गरम संओ रे
ललना रे....
दोसर मास चढ़ु पूस, देवकी गरम संओ रे
ललना रे.....
पूसक माछी ने सोहाय, कि‍ देवकी गरम संओ रे
ललना रे.....
तेसर मास चढ़ु माघ, देवकी गरम संओ रे
ललना रे.....
पौरल खीर ने सोहाय, कि‍ केहन गरम संओ रे
ललना रे....
चारि‍म मास चढ़ु फागुन, देवकी गरम संओ रे
ललना रे....
फगुआक पूआ ने सोहाय, कि‍ देवकी गरम संओ रे
ललना रे.....
पाँचम मास चढ़ु चैत, देवकी गरम संओ रे
चैत के माछ ने सोहाय, कि‍ केहन गरम संओ रे
छठम मास चढ़ु वैशाक, देवकी गरम संओ रे
ललना रे.....
आम के टि‍कोला ने सोहाय, कि‍ केहन गरम सेओ रे
सातम मास चढ़ु जेठ, देवकी गरम संओ रे
ललना रे.....
खुजल केश ने सोहाय, कि‍ केहन गरम संओ रे
आठम मास चढ़ु अखाढ़, देवकी गरम संओ रे
ललना रे.....
पाकल आम ने सोहाय, कि‍ केहन गरम संओ रे
नवम मास चढ़ु साओन, देवकी गरम संओ रे
ललना रे....
पि‍या के सेज ने सोहाय, कि‍ केहन गरम संओ रे
दसम मास चढ़ु भादव, कि‍ देवकी गरम संओ रे
ललना रे....
देवकी दरदे बेयाकुल दगरि‍न बजायब रे
जब जनमल जदुनन्‍दन, खुजि‍ गेल बंधन रे
ललना रे.....
खुजि‍ गेल बज्र केबार पहरू सभ सूतल रे।
(गीत खतम होइते एकटा बच्चाकेँ कोरामे लेने हरपति आ सोहागो प्रवेश करै छथि।)
हरपति: (सोहागोकेँ सम्बोधित करैत) सोहागो, गंगा माएक प्रतापेँ ई दिन हमरा सभकेँ देखबामे आएल अछि तेँ एकर नाम गंगाधर राखि दैत छिऐ।
सोहागो: अबस्से किने। (बेटाकेँ कोरामे दुलार-मलार करऽ लगै छथि।)

(तखने अगरम बगड़म काठ कठम्बर बजैत ऋषि जटा आ हुनकर संग दलित गबैय्या हुनकर शिष्य हीरू प्रवेश करैत छथि।)
ऋषि जटा: अगरम बगड़म काठ कठम्बर। अद्भुत, अद्भुत, अद्भुत..ई बच्चा अद्भुत..
शिष्य हीरू: (विभोर भऽ बच्चाकेँ कोरामे उठा लै छथि आ गाबऽ लगै छथि।)
 कौने मास मेघबा गरजि‍ गेल
      कोने मास बेंगवा बाजू रे
ललना रे कोने मासे होरि‍ला जनम लेल
      कि‍ गोति‍नक हि‍या सालू रे।
सावन मेघवा गरजि‍ गेल,
      भादव बेंग बाजू रे।
आसि‍न होरि‍ला जनम लेल
      कि‍ गोति‍नक हि‍या सालू रे।
कोने तेल देव सासु के
      कोने ननदि‍ जी के रे।
ललना रे, करू तेल देबैन सासु जी के
      गरी ननदि‍ जी के रे।
ललना रे अमला देबैन गोति‍न के
      हुनकर पैंच हेतनि‍ रे।
ऋषि जटा: (गरामे सरभ खचित एकटा ताबीज गंगाधरकेँ पहिराबैत छथि।) ई बच्चा अद्भुत..अद्भुत..अद्भुत..अछि.. सामान्य बच्चा नै अछि ई..तेँ ई असामान्य भेंट..
शिष्य हीरू: धधरा फेकैत ई गीदर.. ऋषि जटा..
ऋषि जटा: उल्कामुख….
(चारू गोटे एक दोसराक मुँह ताकऽ लागै छथि।)
शिष्य हीरू: (आश्चर्य करैत) उल्कामुख? नाम मोन पड़ि गेल ऋषि जटा।
ऋषि जटा: (आश्चर्य करैत) उल्कामुख?
शिष्य हीरू: (आश्चर्य करैत) हँ, अहीं तँ कहलौं, उल्कामुख।
ऋषि जटा: (आश्चर्य करैत) हमहीं कहलौं?
हरपति: हँ, अहीं तँ कहलौं, उल्कामुख, ऋषि जटा।
ऋषि जटा: (आश्चर्य करैत) सत्ते, हमहीं कहलौं?
सोहागो: हँ, ऋषि जटा, अहीं तँ कहलौं, की कोनो अनिष्ट अछि?
ऋषि जटा: (ऊपर तकैत) नै, कोनो अनिष्ट नै.. हम बिसरि गेल रही ई, ई हमर गुरुक गुरूक गुरुक गुरुकेँ कएकटा उपरका गुरु देने रहथिन्ह। हम ऐ ताबीजक नाम बिसरि गेल रही.. आइ अनचोक्के मोन पड़ि गेल… की नाम रखने छी ऐ दिव्य बालकक..
हरपति: गंगाधर रखने छी ऋषि जटा ..

ऋषि जटा: (सोहागो आ हरपति दिस तकैत) ई ताबीज एकर गरामे चलि गेल, हमर गुरूकेँ हुनकर गुरू देने रहथि, आ हुनका हुनकर गुरू आ …हम नाम बिसरि गेल रही ऐ ताबीजक..उल्कामुख..हँ यएह हमर गुरू कहने रहथि हमरा आ हुनका कहने रहन्हि हुनकर गुरु आ..दिव्य..दिव्य..ई बच्चा दिव्य..

हरपति: (ऋषि जटाकेँ सम्बोधित करैत) ऋषि जटा कोन दिव्य गुण देख रहल छिऐ अहाँ ऐ बालकमे?

सोहागो: (बच्चाकेँ सम्हारैत ऋषि जटा दिस ताकि।) ऋषि जटा, ई सन्यासी-तन्यासी तँ नै बनि जाएत?
ऋषि जटा: से हमरा किछु नै बुझल अछि। मुदा लगैए जे हएत किछु। ऐ मरुभूमिमे रेतक बीच जन्मत किछु। मुदा नहियो उगि सकैए..
हरपति: से किए ऋषि जटा?
शिष्य हीरू: से ऐ लेल जे ई ताबीज जतऽ ततऽ राखल रहै, पुरना पोखरि आ बोन सभमे … कतेक गोटेकेँ ऋषि जटा पहिरेने छथि ई ताबीज, आ कतेक गोटेकेँ पहिरेने छथि ऋषि जटाक गुरु आ हुनकर गुरुक गुरु आ हुनकरो गुरु.. मुदा नै भेल किछु।

सोहागो: (हीरूसँ) की नै भेल हीरू?

शिष्य हीरू: मरुभूमिमे रेतक बीच नै जन्मल किछुओ।

(ऋषि जटा जोरसँ उकासी करऽ लगै छथि। शिष्य हीरू हुनकर छाती ससारऽ लगै छथि। सगरे अन्हार पसरि जाइत अछि।)
(मंचपर प्रकाश होइत अछि। बालक गंगाधर पैघ भऽ गेल छथि। ओ हीरू लग हुनकर टोल गेल छथि। हीरू नीचाँमे बैसल छथि, नीचाँमे चामक किछु राखल छै जइमे हीरू किछु सी- सा  रहल छथि, बगलमे साइंग राखल छै आ गंगाधर ओतऽ ठाढ़ भऽ जाइ छथि।)
शिष्य हीरू: आउ गंगाधर आउ।
गंगाधर: हीरू की कऽ रहल छी।
शिष्य हीरू: मुरदारी सभ ढेर रास एकट्ठा भऽ गेल अछि। (ऊपर मुँहे साँस लैत) ई गैनाक चाम छिऐ, छोटेमे मड़ि गेलै।
गंगाधर : (साइंगपर बैसैत) की करब एकर।
शिष्य हीरू: देखियौ, मानरि बनबै छी, जँ बनि सकत तखन। कम्मे चाम छै। (गंगाधर दिस तकैत) हे ठीकसँ बैसू नै तँ गुड़कि जाएब।

(तखने साइंगपर सँ गंगाधर गुड़कि जाइ छथि। आ शिष्य हीरू आ गंगाधर दुनू गोटे भभा कऽ हँसऽ लगै छथि।)
:अहाँकेँ कहै छलौं। ई सांगि मुइल पैघ-पैघ मालक भार सहि लैए, मुदा अहाँ सन छोट बौआक भारकेँ ई नै सहि सकल।
गंगाधर : से किए हीरू?
शिष्य हीरू: ऐ दुआरे, किएकि कोनो बौस्तु कोना राखल जाए, ईहो जरूरी छै बुझब। सोझे कहि देबै जे ऐ साइंगपर एतेक भार सहबाक शक्ति छै, तँ से नै हएत। वएह ऋषि जटा ई सभ बकैत रहैए.. जे बुझि कऽ बाजू तेँ …
गंगाधर: आर की सभ कहै छथि ऋषि जटा?
शिष्य हीरू: बड्ड रास गप। यएह जे आमक भार हम अनुभव करै छी, मुदा आमक गाछ अपनामे लागल आमक भारक अनुभव नै करैए।
गंगाधर: आर की कहै छ्थि?
शिष्य हीरू: कहै छथि ई अकास दू भाग करैए ऐ विश्वकेँ..
गंगाधर: दू भाग? ई अकास दू भाग करैए? मुदा ई अकास तँ देखाइते जाइए.. तखन दोसर भाग कतऽ ऐत?
शिष्य हीरू: शीसा छै ई अकास, ऐपारसँ ओइपार देखै छी हम।
गंगाधर: (आश्चर्यसँ) ठीके? आर की कहै छथि ओ?
शिष्य हीरू: ओ कहै छथि जे ई शब्द अछि मोती, ई शब्द अछि माणिकक इजोत, मुदा जँ शब्द शब्दे रहि जाए आ कहला आ कएलामे अन्तर भऽ जाए तँ ऐ मोती लऽ कऽ की करब आ की करब माणिकक ओइ इजोतकेँ लऽ कऽ?
गंगाधर: ठीके हीरू ओ भऽ जाएत चोरि..
शिष्य हीरू: हँ
गंगाधर: ठीके हीरू ओ भऽ जाएत शब्दक हत्या..
शिष्य हीरू: हँ
गंगाधर: ठीके हीरू ओ भऽ जाएत झूठ..
शिष्य हीरू: हँ
गंगाधर: ठीके हीरू ओ भऽ जाएत सत्यसँ घृणा..
शिष्य हीरू: हँ
गंगाधर: ठीके हीरू ओ भऽ जाएत घमण्डी शब्द..
शिष्य हीरू: हँ
गंगाधर: ठीके हीरू ओ भऽ जाएत अशब्द.. ओ भऽ जाएत दोष लगाएब दोसरापर.. अपन शब्दक अर्थ नै बुझबाक दोष लगाएब दोसरापर..
शिष्य हीरू: हँ (दुनू गोटे ठाढ़ भऽ जाइ छथि आ हीरू ताण्डव नृत्यक आकृति बना लै छथि आ विभोर भऽ गाब लगै छथि)
मैया दुआर अड़हुल फुल गछि‍या
माँ हे फड़-फुल लुबधल डाि‍र
दछि‍न पछि‍म सँ सूगा एक आएल
माँ हे बैस गेल अड़हुल फूल गाछ
गंगाधर: (ताण्डव नृत्यक आकृति बना लै छथि आ विभोर भऽ गाब लगै छथि)
कि‍यो नीपय अगुआर, कि‍यो पछुआर
हमहुँ अभागल‍ दुआर धेने ठा
ि‍कयो लोढ़ै बेली फूल कि‍यो अढ़ूल
हमहुँ अभागल खोदी नामी दुबि‍
कि‍यो मांगय अन-धन, कि‍यो पूत
हमहुँ अभागल‍ कर जोड़ि‍ ठा
 (स्वर परिवर्तित कऽ हीरूक सोझाँ ठाढ़ भऽ)
साओन वि‍षहरि‍ लेल प्रवेश
भादव वि‍षहरि‍ खेलल झि‍लहोरि‍।
आसि‍न वि‍षहरि‍ भगता लेल पान
काति‍क वि‍षहरि‍ नयना झरू नोर।
अगहन वि‍षहरि‍ हेती अनमोल।
शिष्य हीरू आ गंगाधर: (सम्वेत स्वरमे, सोझाँ-सोझीं आबि कऽ गबैत छथि।)
फड़ो ने खाय सुगा फूलो ने खाय
माँ हे पाते पाते खेलय पतझार
कहाँ गेल, कि‍ए भेल डीहवार ठाकुर
माँ हे अपन सूगा लीअ सुमझाय
….
(स्वर परिवर्तित कऽ हीरूक दूरस्त भऽ कऽ दुनू ठाढ़ भऽ कऽ)
ऊँच रे अटरि‍या पर वि‍षहरि‍ माय
राम, नीची रे अटरि‍या पर सोनरा के माय
देबौ रे सोनरा भाइ डाला भरि‍ सोन
राम, गढ़ि‍ वि‍षहरि‍ के कलस पचास
बाट रे बटोहि‍या कि‍ तोहें मोर भाइ
राम, कहबनि‍ वि‍षहरि‍ के कलसा लय जाइ
तोहरो वि‍षहरि‍ के चि‍न्‍हि‍यो ने जानि‍
राम, कहबनि‍ कोना के कलस लए जाय

(अन्हार पसरि जाइत अछि।)




















छअम कल्लोल

(मंचपर प्रकाश होइत अछि। बालक गंगाधर आठ बर्खक भऽ गेल छथि। माए-बापसँ हुनकर बहस चलि रहल छन्हि। लगैए कोनो गम्भीर विवाद छन्हि।)

हरपति: एहनो भेल छै कहियो, यज्ञोपवीत नै कराएब? कोनो रोक-टोक हम केलौं, ब्राह्मणक बच्चा भऽ कऽ हीरूक टोल अहाँ गीत सुनैले, सिखैले जाइत रही, कहियो रोक-टोक केलौं?

गंगाधर: (अपन उल्कामुख ताबीज देखबैत) हम एकरा धारण कऽ लेने छी पिताश्री। ऋषि जटाक देल ई उल्कामुखी ताबीज, देखू। (हाथसँ पकड़ि कऽ देखबैत छथि।) उल्कामुख धारण केनिहारकेँ कोनो संस्कार करेबाक कोन आवश्यकता छै?
(हरिपति क्रोधित भऽ जाइ छथि। एम्हर-ओम्हार जाए लगै छथि।)

सोहागो: (गंगाधर दिस ताकैत) एना नै बाजू गंगाधर, एहेन आइ धरि नै भेल अछि, लोक की कहत, पण्डित सभ की बाजत? जिदपना छोड़ू, आब अहाँ बच्चा नै छी। आठ बरखक भेलौं।

हरपति: (सोहागो दिस तकैत) देखू। अहाँ अहीं ने कहै छलौं जे जेना-जेना उमेर बढ़तै एकर  जिदपना घटतै। मुदा हम तँ देखि रहल छी जे दिनपर दिन एकर जिदपना घटबाक बदला बढ़िते जा रहल छै। मास्टर साहेब सेहो कहि रहल छला जे कोनो सबक हिनका यादि करैले दै छथिन्ह तँ सभ बच्चा यादि कऽ लैत अछि मुदा ई ओइमे मारते रास कमी निकालि दै छथि।

गंगाधर: पिताजी, पाठशालामे जे रटन्त विद्या पढ़ाएल जाइत अछि से हमरा पसिन्न नै अछि। जे किछु हम पूछै छियन्हि से ओ बुझाबै नै छथि, कहै छथि जे अहिना रटि लिअ कारण हुनकर गुरूजी हुनका ओहिना रटबेने छथिन्ह। हमरा तँ लगैए जे हुनका सभकेँ अपने विषय क पूर्ण ज्ञान नै छन्हि। बेङ जकाँ ओ मात्र टर्र-टर्र करब जानै छथि।

हरपति: (मंचक आगाँ जाइत) लिअ, ई आब नवका गप की उठि गेल। (सोहागो दिस तकैत) आब गंगाधरकेँ पुछियौ जे हिनका लेल नव पाठशाला कतऽ सँ बनत।

सोहागो: (गंगाधर दिस ताकैत) बेटा गुरुजीक विषयमे कियो एना बजैए।


गंगाधर: (सोहागो दिस तकैत) माँ, हम तँ मात्र ऋषि जटाकेँ (ताबीज पकड़ि इशारा करैत), जे हमरा ई ताबीज पहिरेलन्हि आ हुनकर शिष्य चर्मकार हीरूकेँ अपन गुरू मानै छी।

हरपति: (मंचक आगाँ छड़पटाइत जाइत) चर्मकार हीरूमे की विशेषता छै।

गंगाधर: (हरपति दिस तकैत) हुनकामे कला छन्हि। मुइल मालक चामकेँ कोना पकाएल जाइत अछि ओइसँ तरह तरहक पनही, मानरि, मृदंग बनबै छथि ओ। जँ कोनो समस्या एलै तँ किछु परिवर्तन करै छथि अपन ज्ञानक प्रयोगमे। गाबै छथि तेहेन तेहेन गीत जे सुनि कऽ कतेक धर्मशास्त्रक ज्ञान एक्के गीतमे प्राप्त भऽ जाइए।

हरपति: (मंचक आगाँसँ छड़पटाइत घुरैत गंगाधर दिस तकैत) आ ऋषि जटामे?

गंगाधर: (हरपति दिस तकैत) ओ रटै लेल नै कहै छथि किछु। पुछलापर बतबै छथि। धर्मशास्त्रक व्याक्या केलापर तमसाइ नै छथि, वरन ओकर गलत व्याक्याकेँ सुधारै छथि।

हरपति: (मंचक आगाँ छड़पटाइत जाइत) हँ हँ तेँ ने पाठशालासँ निकालि देल गेलन्हि आ सप्तरीक बोनक रस्ता धेने छथि।

गंगाधर: (मंचक आगाँ जाइत)  माँ-पिताजी। ई हमर अन्तिम निर्णय अछि.. हम यज्ञोपवीत नै करब। हीरू कहै छथि जे पण्डित लोकनि शास्त्रक गलत व्याख्या करै छथि… धर्मकेँ छागरक बलि धरि सीमित कऽ देल गेल अछि..

हरपति: (बीचमे क्रोधित भऽ गंगाधरकेँ काटै छथि) हीरू कहै छथि.. सभ गपमे हीरू कहै छथि.. आ हीरूकेँ के ई सभ कहलकन्हि..

गंगाधर: हुनका ऋषि जटा ई गप कहलखिन्ह।

हरपति: (आर क्रोधित भऽ) आ ऋषि जटाकेँ के कहलकन्हि?

गंगाधर: ऋषि जटाकेँ हुनकर गुरु कहलखिन्ह..आ हुनकर गुरूकेँ हुनकर गुरू…आ ..आ…कोनो रहस्य छै जे ऐ उल्कामुखमे छै..आ जे नै छै बुझल ककरो..

हरपति: माने ककरो बुझले नै छै.. आ ओइ गपपर अहाँ अपन ई अन्तिम निर्णय लेलौं..

गंगाधर: (गप काटैत) मुदा जटिल कर्मकाण्ड अहाँकेँ नीक लगैए? हमरा तँ हीरूक गीतमे बेशी तत्त्व बुझाइए..आ हँ हमर अन्तिम निर्णय तँ अहाँ बुझिए गेलिऐ..

हरपति: आ अहाँ अन्तिम निर्णय कऽ लेब, आ तकर बादो ऐ घरमे रहब, आ अहाँ ऐ घरमे रहब आ गौँआ सभ हमरा ऐ गाममे रहऽ देत.. की ई सभ सम्भव छै?

(तखने मितू- गंगाधरक बहिनोइ आ आनन्दा- गंगाधरक बहिन प्रवेश करै छथि।)

आनन्दा: माँ- पिताजी। हमरा नै लगैए जे गंगाधर अपन बातसँ डिगत।
हरपति: (मंचक आगाँसँ छड़पटाइत घुरैत गंगाधर दिस तकैत) हँ। सभ गप बुझि गेलौं। हिनका जगह जे भेटि गेल छन्हि। ऋषि जटा आ चर्मकार हीरू, आ पाठशाला सप्तरीक बोन। ने ऋषि जटा आ चर्मकार हीरूकेँ शिष्य भेटै छै आ ने हमर गंगाधरकेँ ओहेन गुरु।

आनन्दा: माँ- पिताजी। गंगाधरकेँ अप्रत्यक्ष रूपमे घर छोड़बाक लेल विवश नै करू।

सोहागो: (आनन्दा दिस सम्मुख होइत) मुदा एतुक्का हाल नै देखै छहक। यज्ञोपवीत नै करब? एहनो जिद्द भेलैए?

हरपति: (सोहागो दिस सम्मुख होइत) एतुक्का हाल छोड़ू, ई हमरो स्वीकार्य नै अछि.. गंगाधर.. हमर अन्तिम निर्णय अछि जे हम सभ ई गाम नै छोड़ब।

सोहागो: (हरिपतिकेँ सम्बोधित कऽ) अहाँकेँ के कहैए गाम छोड़ैले।

गंगाधर: (सोहागोकेँ सम्बोधित कऽ) माँ। हिनकर कहबाक अर्थ छन्हि जे जँ हम घर नै छोड़ब तँ हिनका गाम छोड़ए पड़तन्हि। पिताश्री.. हम आइये सप्तरीक बोन दिस बिदा भऽ रहल छी.. हमर अन्तिम निर्णय आ अहाँक अन्तिम निर्णयमे कोनो साम्य नै अछि।

सोहागो: (गंगाधरकेँ सम्बोधित कऽ) गंगाधर, अहाँ आठ बर्खक छी.. आ अहाँ असगरे…

गंगाधर: (सोहागोकेँ सम्बोधित कऽ) असगरे कहाँ, सप्तरीक बोनमे आश्रय पक्का छन्हि, गुरुजी संग। ऋषि जटा आ चर्मकार हीरू…

गंगाधर: (सोहागोकेँ सम्बोधित कऽ) तँ हमरा आज्ञा दिअ..

मितू: नै.. गंगाधरकेँ हम सभ ओहिना नै छोड़ि सकै छियन्हि। हमहू सभ संगे जाएब..(आनन्दाकेँ सम्बोधित करैत) की आनन्दा?

आनन्दा: हँ, हम सभ नै छोड़ि सकै छियन्हि हुनका। माँ, अहाँ पिताजी लग रहू.. हम वचन दै छी जे गंगाधर अपन अध्ययन पूर्ण करत.. आ

गंगाधर: आ ई उल्कामुख हमरा संग अछिये…

(सोहागो विचलित भऽ जाइ छथि, हरपति पाथर बनि जाइ छथि। आ सगरे अन्हार पसरि जाइत अछि। फेर जखन इजोत होइत अछि तँ गंगाधर, आनन्दा, मितू, ऋषि जटा आ हीरू देखा पड़ै छथि। सभक मुँहपर लक्ष्य पाबि जेबाक प्रसन्नता स्पष्ट देखा पड़ि रहल छन्हि।)

आनन्दा: ऋषि जटा, हीरू। गंगाधरक तीव्र बुद्धि पाठशालामे हुनका लेल समस्या बनि गेल छलन्हि। गुरुजी प्रश्न सभक उत्तर नै दऽ पाबि रहल छला आ तेँ उन्टे गंगाधरक शिकाइत करैत रहै छला।

शिष्य हीरू: एहेन शिष्य भाग्यवानकेँ भेटै छै आनन्दा। मुदा हीरा जौहरी लग नै जाए तँ हीरा पाथरे रहि जाइ छै।

मितू: हँ, आ एतऽ हमहूँ सभ कतेक तरहक ईलम सीखि गेलौं। ऐ बोनक कतेक वनस्पति, जन्तु हमर सभक शिक्ष बनि गेल।

गंगाधर: ऋषि जटा आ शिष्य हीरू सन शिक्षक जँ मिथिलाक सभ पाठशालामे भऽ जाए तँ भाग्योदय भऽ जेतै। मुदा ओतऽ तँ तेहेन लोक सभक भर्ती भेल छै जे..ऐ पाँच सालमे जतेक ज्ञान हम प्राप्त केलौं तकर वर्णन करू ने हीरू..

हीरू: (ठठा कऽ हँसै छथि) कथीक वर्णन करू हम..

आनन्दा: ऐ बोनक, ऐ बोनक प्राणीक, जे क्षणे-क्षण सिखबैत रहैए बड्ड किछु..

हीरू: (गेबाक मुद्रामे हाथ आगाँ करैत)
साँपहि‍-साँप बाम दहि‍न छल
चि‍त्र-वि‍चि‍त्र वसनमा
नि‍त दि‍न भीख कतए सँ लायब
घुरि‍ फि‍रि‍ जाहु अंगनमा
भीखो ने लि‍अए जोगी,
घुरि‍यो ने जाइ, नि‍कलू अंगनमा
गंगाधर: ओहो..
हीरू:
ना जाएब, ना जाएब ना जाएब हे
      अहाँ क अंगनमा
बहि‍रा साँपक माड़ब बनाओल
      तेलि‍या देल बन्‍हनमा
धामन साँपक कोरो बनाओल,
      अजगर के देल धरनमा
हरहरा के काड़ा-छाड़ा,
      कड़ैत क लाओल कंगनमा
पनि‍यादरार क पहुँची लाओल
      ढरबा क लौल ढोलनमा
सुगवा साँप क लौल जशनमा
चान्‍द तारा क शीशा लाओल
      मछगि‍द्धि‍ क अभरनमा

गंगाधर:
ना जाएब, ना जाएब ना जाएब हे
      अहाँ क अंगनमा

ऋषि जटा: (उठि कऽ टहलऽ लगैत छथि) जाए पड़त गंगाधर। बहुत रास काज करबाक अछि अहाँकेँ। हमर मोनमे आब संतुष्टि अछि गंगाधर, अहाँ सन शिष्य हमरा भेटल। ई सौभाग्य हमर गुरु, हुनकर गुरु आकि हुनकर गुरुकेँ नै भेटल छलन्हि। अहाँकेँ पढ़बैकालमे जे आत्म संतुष्टि हमरा भेटल से अद्भुत। रटन्त विद्याक अखुनका वातावरणमे अहाँक विषयकेँ बुझबाक प्रवृत्ति अजगुत लागल। सन्तुष्ट छी हम.. ई उल्कामुखक प्रभाव छी आकि अहाँक प्रभाव ऐ उल्कामुखकेँ सिद्ध बना देने अछि, नै जानि की गप अछि। जाउ.. जाउ अहाँ कीर्ति सिंहक राजदरबार। देखू की करबैत अछि ई उल्कामुख…..

(अन्हार पसरि जाइत अछि।)

























सातम कल्लोल

(कीर्ति सिंहक राजदरबार। कीर्ति सिंह बैसल छथि, दरबारी-१ संगे गंगाधर आ दरबारी-२ संगे राजाक अर्थमंत्री नारायणक प्रवेश दू दिशासँ होइत अछि।)


कीर्ति सिंह: (नारायण दिस तकैत) आउ अर्थमंत्री नारायण, की भेल हिसाब-किताब अखनो मिलल आकि नै।

दरबारी-१: (राजा दिस सम्मुख भऽ) कोना मिलतन्हि, सभ रटन्त विद्याबला विद्यार्थी सभ पाठशालासँ बहार होइत अछि जे नव गणितक प्रश्नक ओझराहटिमे ओझरा जाइत अछि। ओइ विद्यार्थी सभकेँ किछु पुछियौ तँ बिन पोथी देखने सुरड़ि देत, मुदा ओ सभ ने कोनो हिसाब-बारी कऽ पबैए आ ने खाता-खेसरा मिला पबैए।

कीर्ति सिंह: (कने ऊँच अबाजमे) अर्थमंत्री नारायण। हम ई की सुनि रहल छी?

अर्थमंत्री नारायण: (हरबड़ाइत) हँ, हँ सएह तँ जोड़बा रहल छलहुँ अपन एकटा शिष्यसँ एक जोड़ दू जोड़ तीन…एक सए धरि.. माने माने एकसँ एक सए धरि जोड़.. कहने छल जे एक घण्टामे जोड़ि देब..तावत ई (दरबारी-२ दिस इशारा करैत) घीचि कऽ लऽ अनलन्हि।

दरबारी-२: (दमसाइत) अर्थमंत्री, काल्हियो अहाँ बुते जोड़ मिलाओल नै भेल, जोड़पर जोड़.. औ जी… कतेक घाटा आकि नफामे अहाँक खाता-खेसरा अछि ई तँ साल भरिसँ पता चलिये नै रहल अछि।

दरबारी-१: (महराज दिस साकांक्ष होइत) महराज ई बालक ओतै भेटला। कहैत रहथि जे ओ सभ हिसाब मिला देता, समय कम रहै तेँ संगे लेने एलियन्हि।

गंगाधर: (महराज दिस साकांक्ष होइत) महराज जँ आदेश हुअए तँ हम किछु कही।

(बीचेमे अर्थमंत्री बाजै छथि।)

अर्थमंत्री नारायण: (हरबड़ाइत) एकसँ एक सए धरि जोड़मे तँ समय लगबे ने करतै महराज।

(राजा इशारासँ गंगाधरकेँ बजबाक आदेश दै छथि।)


गंगाधर: (महराज दिस सम्मुख होइत) धन्यवाद महराज। (अर्थमंत्री नारायण दिस सम्मुख होइत) एकसँ सए जोड़बा लेल पहिने ई बुझू जे संख्या कएक टा अछि।

अर्थमंत्री नारायण: (बिहुँसैत) सए टा आर कतेक।

गंगाधर: एक सँ सए आ सइया निनानबे ऐमे आब काज आएत। एक आ सए, दू आ निनानबे, तीन आ अनठानबे.. ऐ सभटा जोड़ाक कतेक परिणाम आएत?

अर्थमंत्री नारायण: (बिहुँसैत) एक सए एक आर कतेक?

गंगाधर: दू दू टा जोड़ा अछि, तँ सए टामे कतेक जोड़ा भेल।

अर्थमंत्री नारायण: (बिहुँसैत) पचासटा आर कतेक?

गंगाधर: एक सए एक केर पचास टा जोड़ा अछि। तँ एक सए एक केँ पचाससँ गुणा करू। वा पचासकेँ सएसँ गुणा करू आ ओइमे पचास जोड़ू..कतेक भेल?

अर्थमंत्री नारायण: (आश्चर्यसँ आँखि फाड़ि बजैत) पचासकेँ सएसँ गुणा…ई भेल पाँच हजार…आ आर पचास भेल पाँच हजार पचास। पाँच हजार पचास भेल महाराज। हँ ठीके तँ..

कीर्ति सिंह: अहाँक शिष्य तँ बड काबिल अछि। (गंगाधर दिस तकैत) की नाम अछि अहाँक वत्स..

अर्थमंत्री नारायण: (महराज दिस ताकि लज्जित होइत) नै महराज, ई हमर शिष्य नै छथि। ई तँ हमरासँ नोकरी माँगऽ आएल रहथि। मुदा जखन पुछलियन्हि जे कोन पाठशालासँ छी तँ कहलन्हि जे सप्तरीसँ ऋषि जटा आ हुनकर शिष्य चर्मकार हीरूसँ ई पढ़ने छथि, कोनो पाठशालामे नै पढ़ने छथि। तेँ हम नोकरीपर नै रखलियन्हि। हम लज्जित छी महराज। हिनकर नाम छियन्हि गंगाधर..

कीर्ति सिंह: आश्चर्य। कोनो पाठशालामे नै पढ़ने छथि! ऋषि जटा आ हुनकर शिष्य चर्मकार हीरूसँ पढ़ल छथि!

अर्थमंत्री नारायण: (लज्जित होइत) महराज। जँ आदेश हुअए तँ गंगाधरकेँ हम नोकरीपर राखि लिअन्हि?

दरबारी-१: (अर्थमंत्री नरायणसँ) राखि लियन्हि? हिनका नै रखबन्हि तँ अहाँक नोकरी खतरामे पड़ि जाएत। साल भरिसँ राज्यक खाता-खेसरा नफामे छै आकि नोकसानमे से नै बुझि रहल अछि कियो।

कीर्ति सिंह: कोनो बात नै.. (दरबारी १-२ दिस इशारा करैत) जाउ आ हरिकर- सेनापतिकेँ बजाउ।

(दरबारी १ एक दिशासँ आ दरबारी-२ दोसर दिशासँ बहराइ छथि।)

कीर्ति सिंह: गंगाधर अहाँ राजदरबारमे नोकरी करबाले तैयार इच्छुक छी?

गंगाधर: महराज हम तँ कतौ नोकरी करबाले तैयार छी। राजदरबारमे नोकरी भेटलासँ तँ हमर शिक्षाक लाभ आन लोकोकेँ भेटतै, संगे ऐ तरहक शिक्षा दोसरो ठाम हुअए सेहो हम सिद्ध कऽ सकब।

(दरबारी १ आ दरबारी-२ हरिकर सेनापतिक संग अबै छथि।)

कीर्ति सिंह: अर्थमंत्री आ गंगाधर। दुनू गोटे स्वागत कक्षमे बैसू गऽ। हमरा किछु अत्यावश्यक गप करबाक अछि। मुदा बैसब, कतौ जाएब नै।

अर्थमंत्री नारायण आ गंगाधर: (सम्वेत स्वरमे) जी महराज।

(अर्थमंत्री नारायण आ गंगाधर बहरा जाइ छथि।)

सेनापति हरिकर: (कीर्ति सिंहसँ) बजेने छलौं महराज।

कीर्ति सिंह: हँ सेनापति। आइ एकटा बालक गंगाधर देखाइ पड़ल अछि। बड्ड चतुर.. बड्ड दिव्य। अर्थमंत्री तँ कोनो काजक नै अछि। ने कोनो हिसाब कहि पबैए नहिये कोनो लेखा समयपर दऽ पबैए। तखन ई छै जे आज्ञाक अवहेलना नै करैए।

सेनापति हरिकर: (कीर्ति सिंहसँ) जी महराज।

कीर्ति सिंह: (सेनापति हरिकरसँ) हमर मोनमे एकटा गप आएल अछि। अपन धर्म बहिन कुमरसुताक विवाह..

सेनापति हरिकर: (कीर्ति सिंहसँ) अहाँ गंगाधरक विषयमे तँ नै सोचि रहल छी महराज?

कीर्ति सिंह: (सेनापति हरिकरसँ) सोचि रहल छी सेनापति।

सेनापति हरिकर: (कीर्ति सिंहसँ) मुदा अहाँ तँ कुलीनताक पक्षर छी महराज आ गंगाधर तँ..

कीर्ति सिंह: हँ सएह तँ आ ऐ लेल हुनका कुलीन बनाएब आवश्यक। हम गंगाधरकेँ अपन धर्म बहिन कुमरसुतासँ विवाह करबा कऽ ऐ राज्यक प्रधानमंत्री बनबैत छियन्हि। सेनापति हरिकर.. ई बालक जे अहाँक सोझाँसँ अखने गेल अछि.. बड्ड दिव्य अछि..


सेनापति हरिकर: हँ महराज (दरबारी १ आ २ दिस इशारा करैत), अखने ई दुनू गोटे हुनकर प्रतिभाक विषयमे चर्चा करैत रहथि। एहेन वर कुमरसुता लेल सर्वथा उपयुक्त छथि। अर्थमंत्री नारायण प्रधानमंत्रीक अतिरिक्त भार नै सम्हारि पाबि रहल छला।

कीर्ति सिंह: तँ विवाहक सभ प्रबन्ध कएल जाए सेनापति।

सेनापति हरिकर: अवश्य महराज.. अवश्य.. शीघ्र सभ इन्तजाम भऽ जाएत।

(सगरे अन्हार पसरि जाइत अछि। फेर जखन इजोत होइत अछि तँ लगैत अछि जे राजदरबारसँ बेशी महत्वपूर्ण गंगाधरक कार्यालय भऽ गेल अछि। ओ एकटा अनुभव मण्डलक स्थापना केने छथि जइमे ने कोनो जातिक भेद छै आ ने स्त्री-पुरुषक भेद छै। गंगाधर, मनसुख, हरिकर, मितू, कुमरसुता, आनन्दा, मेधा, जीवे, ऋषि जटा, हीरू, माधव, माधवक सहयोगी-१ आ माधवक सहयोगी-२ मंचपर आबि जाइ छथि, तखने प्रकाश होइत अछि। सभक गरामे उल्कामुख ताबीज लटकल छन्हि।)


गंगाधर: नव पाठशाला सभमे विद्यार्थी सभ सोचि रहल छथि, कऽ रहल छथि अपना हाथसँ काज। स्त्री-शिक्षा फेरसँ शुरू भऽ गेल अछि। जाति-पाति खतम कऽ देल गेल अछि, शिक्षा सभक लेल। अनुभव-मण्डलक ऐ बैसकीमे सभक स्वागत अछि..अहाँक विचार सभ सुनबा लेल आतुर छथि ऋषि जटा..

ऋषि जटा: रटन्त नै बुझन्त विद्या शुरू भऽ गेल अछि.. जे हमर गुरू वा हुनकर गुरू वा हुनकर गुरुक कालमे नै छलै… रटल विद्या तँ बुझू गदहाक ऊपर राखल बोझ थिक। की मनसुख?

मनसुख: ठीके किने। (अपन बेटा जीवेसँ) सभ अभ्यागत लेल जलखैक व्यवस्था करू जीवे। (हरिकरसँ) की हरिकर अहाँ सेहो किछु बाजऽ चाहै छी?

हरिकर: (मेधासँ) पुत्री मेधा, अहाँ जीवेक सहयोग करू गऽ।

(जीवे आ मेधा बहरा जाइ छथि।)
:बाजऽ चाहै छी मनसुख मुदा कने कालमे। पहिने किछु आर गंगाधरसँ सुनऽ चाहै छी।

गंगाधर: अनुभव मण्डल परिश्रमक सत्कार करैत अछि धनिकक नै। धनिकक धन कुकुड़क दूध सन अछि, जइसँ कुकुड़क बच्चा मात्रक पोषण होइ छै, मिष्टान्न नै बनै छै।
कुमरसुता: हँ, सएह तँ हम अपन धर्म-भाए कीर्ति सिंहकेँ कहै छिऐ। अर्थमंत्री नारायणकेँ लगैत रहैत छै जे अनुभवमण्डलक सभटा कल्याणकारी कार्य राजकोषसँ भऽ रहल छै।

आनन्दा: नारायणकेँ अर्थ नीति नै बुझल छन्हि। हुनका मात्र धन-वसूल कोना कएल जाइ छै, से बूझल छन्हि। हुनका ई नै बूझल छन्हि जे धन कोना उपार्जित कएल जाइ छै।

माधव: गंगाधर कएक बेर कीर्ति सिंहकेँ हिसाब बुझा देने छथिन्ह। अनुभव मण्डलक सभ कल्याणकारी कार्य ओकर अपन उपार्जित धनसँ होइ छै।

कुमरसुता: मुदा से नारायण दरबारमे गंगाधरक सोझाँमे तँ मानि लै छथि मुदा गंगाधरक परोक्षमे गंगाधरक घुमौआ हिसाब- उल्कामुखी घुमौआ हिसाब कहि नै मानबाक भ्रम उत्पन्न करै छथि।

गंगाधर: साँपक काटल आ भूत-प्रेतक शिकारसँ अहाँ किछु पूछि सकै छिऐ मुदा धन रूपी भूतसँ जे ग्रस्त अछि ओकरासँ की पुछबै? अनुभवमण्डलक पाठशाला धन स्व-अर्जित करब सिखबैत अछि, आत्मनिर्भर भेनाइ सिखबैत अछि।

मनसुख: सही कहलौं गंगाधर हमर बेटाकेँ कहियो अनुभव मण्डलक पाठशालामे अनुभव नै भेलै जे ओ सभ कहियो अछूत छल।(मितू दिस ताकि) की मितू?

मितू: अछूत नै कहियौ मनसुख, अनुभव मण्डल ओकरा उल्कामुखी नाम देने अछि। (माधव दिस ताकि) माधव ततेक नीक व्यवस्था केने छथि उल्कामुखी पाठशाला सभक जे नै पुछू।

माधव: हँ उल्कामुखीसभ निकलैए ओइ पाठशालासँ। (माधव अपन सहयोगी-१ आ सहयोगी-२ दिस तकैत बजैत छथि।) अहाँ दुनू उल्कामुखी पाठशाला सभक आर्थिक जरूरतिक पूर्तिक वर्णन दियौ।

माधवक सहयोगी-१: सभ ठाम उल्कामुखी सदस्य अपन श्रमसँ शिक्षकक आ विद्यार्थीक खर्च उठा रहल छथि।

माधवक सहयोगी-२: सभ ठाम उल्कामुखी सदस्य उल्कामुखी पाठशाला लेल जमीन आ भवनक खर्च उठा रहल छथि।

माधवक सहयोगी-१: लोक सभक कहब अछि जे उल्कामुखी पाठशाला सभ हुनका सभ लेल बड हितकारी अछि, ओइ पाठशाला सभक विद्यार्थी आ शिक्षक सभ द्वारा कएल जा रहल प्रयोग हुनका सभक जिनगीमे क्रान्ति आनि देने अछि।

माधवक सहयोगी-२: लोक सभक ईहो कहब अछि जे उल्कामुखी पाठशालाक नव-पुरान छात्र आ शिक्षक हुनका सभ कऽ बेर-बखत काज आबै छथिन्ह आ तेँ ओ सभ ऐ पाठशालाकेँ जतेक दै छथि तइसँ बेसी ई पाठशाला सभ हुनका सभकेँ आपिस करै छन्हि। (आनन्दा दिस ताकि) आनन्दा तँ रहबे करथि, जखन एकठाम ई गप चलि रहल रहए।

आनन्दा: हँ, से तँ ठीके। मुदा काज अखन आर बहुत रास करबाक अछि। तखन आइ ई सभा खतम कएल जाए?

हरिकर: नै हमरा एकटा गप कहबाक अछि।

माधव: कोन गप सेनापति हरिकर।

हरिकर: माधव, गंगाधर अखन बाहर जा रहल छथि, सप्तरी। से अहींकेँ ई काज करऽ पड़त। हमर इच्छा अछि जे हमर पुत्री मेधाक बियाह जीवेसँ भऽ जाए। हम बियाहक इन्तजाममे लागब, आ किएक तँ अहाँ आ हम दुनू गोटे राजाक दरबारमे छी से एकटा औपचारिक अनुमति हम सभ राजासँ ऐ लेल लै छी। तँ ई भार अहींपर।

गंगाधर: ई तँ हर्षक विषय अछि। (उठि कऽ ठाढ़ भऽ जाइ छथि। सभ उठि जाइ छथि आ मनसुख आ हरिकरकेँ बधाइ देबऽ लगै छथि। जीवे आ मेधा हाथमे बिगची आदि लेने प्रवेश करै छथि। अन्हार पसरि जाइत अछि।)

(राजा कीर्ति सिंहक दरबार। राजा, अर्थमंत्री नारायण, दरबारी-१, दरबारी-२ आ माधव आ हुनकर दुनू सहयोगी दरबारमे छथि। राजा तमसाएल सन छथि।)

दरबारी-१: अतत्तह भऽ गेल महराज। ब्राह्मण सेनापति हरिकरक पुत्री आ चर्मकार मनसुखक पुत्रक विवाहक समाचार आएल अछि।

दरबारी-२: कोनो तरहेँ ऐ प्रतिलोम विवाहकेँ उचित नै कहल जा सकैए आ ओइ स्थितिमे जखन ओइ विवाहकेँ राजाज्ञा प्राप्त नै छलै।

दरबारी-१: सेहो तइ स्थितिमे जखन सेनापति ऐ दरबारक सदस्य छथि आ माधव ओइ अनुभव मण्डलक सदस्य छथि जे ई विवाह करेलक!

राजा कीर्ति सिंह: (माधव दिस ताकि) जखन हम जीवे आ मेधाक विवाहक अनुमति नै देने रही तखन ई विवाह भेल कोना माधव?

माधव: महराज, ओ तँ औपचारिक अनुमति छल, अनुभव मण्डलमे ओइ विवाहक कोनो विरोध नै भेल रहए।

राजा कीर्ति सिंह: अनुभव मण्डल, अनुभव मण्डल। ऐ राजदरबारसँ पैघ भऽ गेल अनुभव मण्डल?

अर्थमंत्री नारायण: हम सेहो आंगुर उठेने रही महराज। ई अनुभव मण्डल की की सदावर्त बँटने फिरैए, राजकोषक क्षति करैए।

माधव: अनुभव मण्डलमे सभ परिश्रमक खेनाइ खाइए अर्थमंत्री नारायण। अहाँ बीच-बीचमे गंगाधरपर ई आरोप लगबैत रहै छियन्हि मुदा ओ एकर नीक जकाँ उत्तर दऽ देने छथि, आ अहाँ संतुष्ट सेहो भऽ गेल रही।
दरबारी-१: संतुष्ट की हेता, गंगाधरक घुमौआ हिसाब हिनका बुझैमे अबिते नै छन्हि।

दरबारी-२: मुदा ओ सभ तँ छोट मोट गप छल, ऐबेर तँ राजाक आदेशक निरादर भेल अछि। अनुभव मण्डलक कोनो काजपर राजा प्रतिबन्ध नै लगेने रहथि। रटन्त विद्या खतम करू, खतम भेल..
दरबारी-१: मुदा रटन्त विद्यासँ हिसाब जे नै मिलै छलन्हि अर्थमंत्रीक।

अर्थमंत्री नारायण: मुदा रटन्त विद्या खतम भेने लोक दिमागसँ सोचऽ लागल। ई तँ प्रारम्भ अछि महराज। मनसुख चर्मकारक बेटा आ ब्राह्मण सेनापति हरिकरक पुत्रीक विवाह क्रान्ति आनि देत..की कहै छै ओकरा..(सोचैत)

माधवक शिष्य-१ आ २: उल्कामुखी…

कीर्ति सिंह: माधव, अहाँ सभ जाउ आ हरिकरकेँ कहि दियन्हु जे आब ओ ऐ राजक सेनापति नै रहलाह। आ गंगाधर ऐ राज्यक प्रधानमंत्री नै रहलाह सेहो अनुभवमण्डल -हुँह- अनुभवमण्डलकेँ जानकारी दऽ दियौ। आब ई दुनू भार सम्हारताह नारायण। माधव, अहाँ सभ जाउ।

(माधव आ हुनकर दुनू शिष्यक प्रस्थान।)

राजा कीर्ति सिंह: सेनापति नारायण, हमरा चारिटा आँखि चाही, दूटा मेधाक आ दूटा जीवेक। ऐ दुनू गोटेक आँखि निकाललाक बाद दुनूकेँ पागल ऐरावतक समक्ष धऽ दियौ। पिचरा कऽ दियौ दुनूकेँ, मुदा पहिने हमरा चाही चारिटा आँखि। दिगन्तमे ई समाचार पसरि जाए जे प्रतिलोम विवाहक परिणाम की होइ छै। ई समाचार पसरि जाए जे राजाज्ञाक विरोधक परिणाम की होइ छै। सतर्कतासँ ई काज हुअए। माधव आ हुनकर दुनू सहयोगी वा अनुभवमण्डलक ककरो ऐ विषयमे पता नै चलए, से ध्यान राखब। हमर उदारताक गलत  फएदा उठाबऽ बलाकेँ ई एकटा सबक जकाँ हेतै।

(अन्हार पसरि जाइत अछि आ नेपथ्यसँ जीवे आ मेधाक कनबाक अबाज अबैत अछि। फेर हाथीक चिघारसँ अकासमे बिजली कड़कऽ लगै छै। पुरुष, महिला आ हाथीक अबाज परस्पर मिज्झर भऽ जाइत अछि। करुण संगीतक मध्य आस्ते आस्ते इजोत अबैत अछि आ अनुभवमण्डलक बैसकी देखा पड़ैत अछि जइमे गंगाधर, मनसुख, हरिकर, मितू, कुमरसुता, आनन्दा, ऋषि जटा, हीरू, माधव, माधवक सहयोगी-१ आ माधवक सहयोगी-२ सभ छथि मुदा जीवे आ मेधा नै। सभक मुखपर दुख आ आक्रोश अछि।)

गंगाधर: की ई अहाँ सभक अन्तिम निर्णय अछि?

सभ सम्वेत स्वरमे: हँ, हँ, अन्तिम निर्णय, गंगाधर, अहाँ मानी नै मानी।

कुमरसुता: हम सेहो मानै छी ऐ निर्णयकेँ।

गंगाधर: अनुभव मण्डलमे सर्वदा बहुमतक सम्मान कएल गेल छै। मुदा एक बेर आर सभ गोटे विचारि लिअ।

आनन्दा: (माधवसँ) माधव! अहाँसँ मेधा आ जीवेक क्रूर तरीकासँ कएल जाएबला हत्याक राजाज्ञा गुप्त राखल गेल, से कोना भेल?

हरिकर: (माधवसँ) क्रूर..क्रूरतम… ओह.. एहेन हत्या, राजदरबारेक सेनापतिक पुत्रीक आ जमाएक….. ऐ तरहेँ हत्याक आदेश.. आ अहाँ एकर कनेको आभास नै प्राप्त कऽ सकलौं माधव?

मनसुख: (गंगाधरसँ) गंगाधर आ अनुभव मण्डलक सदस्यगण। न्याय चाही हमरा.. राजदरबारक अन्यायक विरुद्ध न्याय। राजदरबारक अन्यायोसँ कठोर न्याय चाही हमरा..

गंगाधर: ठीक छै तँ सएह हुअए। ठीक छै, तँ एकर भार ककरापर देल जाए?

माधव: हम ई भार लै छी गंगाधर, सहर्ष…सहर्ष… जे राजदरबार ई जघन्य पाप केने अछि तकरा विरुद्ध हमहीं हएब ठाढ़।  जे राजदरबार ओइ षडयंत्रकेँ हमरासँ नुकेलक ओकरा विरुद्ध हमर गुप्त अभियान चलत.. आ सएह हएत हमर पश्चाताप। (अपन दुनू शिष्यक संग माधव मंचपर सोझाँ अबै छथि।)

मितू: माधव। सतर्क रहऽ पड़त अहाँकेँ। राजदरबारमे सभकेँ बुझल छै जे अहाँ अनुभवमण्डलक सदस्य छी।

ऋषि जटा: माधव, हम आ हीरू वातावरण तैयार करब। एहेन वातावरण जे राजदरबारकेँ बुझि पड़तै जेना अहाँकेँ अनुभवमण्डलसँ निकालि देल गेल अछि।

हीरू: आ हम ई गप गीत गाबि कऽ पसारब जइसँ राजदरबारकेँ बुझि पड़तै जेना माधवकेँ अनुभवमण्डलसँ निकालि देलाक बाद अनुभवमण्डल टूटि गेल।

गंगाधर: तँ सएह हुअए। अनुभव मण्डलक सभ सदस्य सप्तरी प्रस्थान करथि। माधव, अहाँ अपन दुनू सहयोगी संगे राजदरबार लेल प्रस्थान करू। ऋषि जटा आ हीरू अहाँ सभ बेसी समए नै लगाएब, शीघ्र काज सम्पन्न कऽ कए सप्तरीक बोन पहुँचू।


(अन्हार पसरि जाइत अछि आ जखन इजोत होइत अछि तँ रुद्रमति- माधवक माए, माधव आ माधवक दुनू सहयोगी मंचपर छथि। खेनाइक बासन बगलमे राखल छै। रुद्रमति तमसाएल छथि।)

माधवक सहयोगी-१: माता रुद्रमति, अपन पुत्र माधव आ हमरा दुनू गोटेकेँ आशीर्वाद दिअ जे अनुभव मण्डल द्वारा देल काज हम सभ पूर्ण कऽ सकी।

माधवक सहयोगी-१: माता रुद्रमति, मेधा आ जीवेक जघन्य हत्याक बाद चुप बैसब कायरता होइतए। अनुभवमन्डलक निर्णय भेल अछि जे राजाकेँ ओकर कृत्यक सजा हम सभ दी।

रुद्रमति: (माधवसँ) की अनुभव मण्डलक निर्णयक अनुपालन भऽ गेल माधव?

माधव: नै माते..ओतै बहरेबाक अछि, तेँ सोचलौं जे बहरेबासँ पहिने घर जाइ आ मातासँ आशीर्वाद ली।

रुद्रमति: अनुभव-मण्डलक निर्णयक बिनु पालन केने अहाँ घरमे कोना प्रवेश कऽ गेलौं माधव? मेधा आ जीवेक हत्या, सेहो आँखि निकालि कऽ आ हाथी द्वारा पिचड़ा कऽ कए!! अहाँ सौभाग्यशाली छी माधव जे ओइ अपराधीकेँ दण्ड देबाक भार अहाँ सभकेँ देल गेल अछि। मुदा तकर महत्व अहाँ सभ बुझै छी?

माधव: बुझै छी माते।

रुद्रमति: (बर्तनसँ भात नीचाँ जमीनपर फेकैत आ तमसाइत) की बुझै छी माधव? अनुभवमण्डलक निर्णयक बिनु पालन केने अहाँ घरमे कोना प्रवेश कऽ गेलौं पुत्र माधव? जाबे अहाँ अनुभवमण्डलक निर्णयक पालन नै करब ताबे अहाँ कुकुड़क योनिमे रहब, आ कुकुड़केँ थारीमे खेनाइ खेबाक अधिकार नै छै। खाउ, ई नीचाँमे फेकल भात खाउ।

(माधव भुकैत छथि आ छिड़िआएल भात खाए लगैत छथि। अन्हार पसरि जाइत अछि।)

(फेर मंचपर प्रकाश होइत अछि। मंच खाली अछि। हीरू आ ऋषि जटा मंचपर अबै छथि।)

हीरू:
हाथक कंगना, फूल क घड़ी,
सेहो कहाँ पाएब हो लाल।
डाँड़ क डरकस, सोनाक कड़ी
से नै‍ मन भावय हो ला
मेधा-जीवे मारल गेला, माधव चुप्पे अछि
से नै‍ मन भावय हो ला
आँखि निकालल राजा हाथी पिचबाएल
मेधा-जीवे कहाँ पाएब हो लाल।
ऋषि जटा:
सोठौरा नइ खाएब राजा तीत लगैए
माधवक गप गंगाधरकेँ तीत लगैए
छठि‍यारी पुजाबऽ लए माय अबैए
माधवक गप गंगाधरकेँ तीत लगैए
कजरा सेदै लए बहि‍न अबैए।
 माधवक गप गंगाधरकेँ तीत लगैए
(दरबारी-१ आ दरबारी-२ क प्रवेश)
दरबारी-१: ई की कहै छी अहाँ सभ? राजदरबारमे तँ सभकेँ बुझल छै जे माधव आ गंगाधर एक दोसरापर असीम विश्वास करै छथि।

हीरू: करै छथि नै, करै रहथि।

दरबारी-२: से की?

ऋषि जटा: जीवे आ मेधाक हत्या।

दरबारी-१: मुदा ओइ विषयमे तँ माधवकेँ किछु बुझले नै छलन्हि।

हीरू: से तँ अहाँकेँ ने बुझल अछि। मुदा अनुभव-मण्डलमे सभ बुझैत रहए जे माधवकेँ ऐ षडयंत्रक विषयमे कोना बुझल नै भेलन्हि आ ओ कोना एकरा रोकबाक लेल प्रयासो नै कऽ सकला।

ऋषि जटा: आ तेँ अनुभव-मण्डल टूटि गेलै।

दरबारी-१: अनुभव-मण्डल टूटि गेलै?

हीरू: माधव अनुभव-मण्डलमे सँ निकलि गेला आकि निकालि देल गेला, तँ दुनू स्थितिमे ई अनुभव-मण्डलक टुटनाइए भेलै ने।
(दरबारी-१ आ २ मंचक कोनमे जाइत अछि आ कनफुसकी करैत अछि।)

दरबारी-१: ई तँ नीक सूचना भेटल, राजा अनेरे माधवपर शंकित रहै छला।

दरबारी-२: हँ, ऐ भगता सभकेँ पतो नै हेतै जे ओ सभ हमरा सभपर कतेक उपकार कऽ गेल अछि।

दरबारी-१: (ऋषि जटा आ हीरूकेँ दूरेसँ जोरसँ सम्बोधित करैत) ठीक छै भगता भाइ सभ, आब हम सभ जाइ छी। फेर कहियो बुलैत-भांगैत भेँट भइये जाएत।

हीरू: ठीके छै भाइ, भेँट हेबे करत।
(दरबारी-१ आ २ प्रस्थान करैत अछि।)

ऋषि जटा: चलू हीरू, काज भऽ गेल। आब अपनहियो सभ सप्तरी बोन दिस चली।

हीरू: (झोरासँ निकालि कऽ झालि बजबऽ लगैत अछि।)
भूत प्रेत सब झालि‍ बजाबै
योगि‍न क नचबै छी हे।
राक्षस क संहार करै छी
 दुनि‍याँ क जुड़बै छी हे।


(अन्हार पसरि जाइत अछि। फेर जखन इजोत होइत अछि तँ राजदरबारमे राजानारायण छथि आ तखने दरबारी-१ राजदरबारमे प्रवेश करै छथि।)

दरबारी-१: जय महराज। एकटा शुभ सूचना अछि। माधवकेँ अनुभव-मण्डलसँ निकालि देल गेलै। अनुभव-मण्डलकेँ आशंका रहै जे माधव जीवे आ मेधाक हत्याक राजाज्ञाक निर्णयक जनतब अनुभव-मण्डलसँ नुकेलक।

नारायण: मुदा माधवकेँ तँ ई गप्प बुझल रहबे नै करै, आ जखन ओकरा ई गप बुझले नै रहै तँ ओ कोना से गप ककरोसँ नुकेतै।
दरबारी-१: मुदा से गप अनुभव-मण्डलमे के मानतै, कारण ई राजाज्ञा जखन देल गेल, तइ लगाति माधव राजदरबारेमे छल।

नारायण: हँ, से तँ ठीके। मुदा अहाँकेँ ई गप कोना पता भेल?

दरबारी-१: (मुस्काइत) हम खुफिया सभकेँ सभठाम लगेने छी, अनुभव-मण्डल ओकरा सभसँ बाँचल थोड़बे छै।

(तखने दरबारी-२ प्रवेश करैत अछि।)

दरबारी-२: (राजाकेँ सम्बोधित करैत) जय महराज, माधव आ हुनकर दुनू सहयोगी राजदरबारमे प्रवेशक अनुमति चाहै छथि।

कीर्ति सिंह: अनुमति अछि। तीनू गोटेकेँ ससम्मान दरबारमे आनल जाए।


(दरबारी-२ प्रस्थान करैत अछि आ फेर माधव आ माधवक दुनू सहयोगीक संग प्रवेश करैत अछि।)

कीर्ति सिंह: आउ माधव। हमरा तँ भेल जे गंगाधर आ हरिकर जकाँ अहूँ राजदरबार छोड़ि देलौं।

माधव: हम राजदरबार कोना छोड़ि सकै छी महराज, गंगाधर आ हरिकर लेल तँ अनुभव-मण्डल छै, नै राजदरबार तँ अनुभव-मण्डल, मुदा हमरा लेल तँ मात्र राज दरबारेटा बचल अछि।

नारायण: जीवे-मेधाक मृत्युदण्डक निर्णय अनचोक्के लेल गेल। आ तेँ अहाँकेँ ऐ विषयमे नै बताओल जा सकल।

माधव: बता देलो जइतए तँ राजाज्ञाकेँ हम बदलि तँ नहिये सकितौं अर्थमंत्री नारायण।

कीर्ति सिंह: माधव। जँ हमरा गंगाधरक प्रति कोनो द्वेष रहितए तँ हम अपन धर्म बहिन कुमरसुताक विवाह हुनकासँ करबितौं? हुनका कुलीन बनबैले हम हुनका प्रधानमंत्री बना देलियन्हि। मुदा हमरा की बुझल छल जे ओ अकुलीनताक पोषक छथि, कुमरसुतोकेँ ओ अपना रंगमे रङि लेलन्हि।

माधव: (आस्ते-आस्ते राजा लग जाइत) हँ, से तँ ओ सभकेँ अपना रङमे रङि लेलनि कीर्ति सिंह
(अन्तिम दू शब्द ओ जोर लगा कऽ बजै छथि आ तरुआरिक आघात कीर्ति सिंहपर करै छथि।नारायण आ दुनू दरबारीक संग माधव दुनू शिष्यमे युद्ध होइत अछि। माधवक दुनू शिष्य दुनू दरबारी आ नारायणकेँ गछाड़ने छथि। तावत राजाक सैनिक सभ आबि जाइत अछि मुदा माधव अपन पेटमे छूरा भोंकि आत्महत्या कऽ लै छथि। माधवक दुनू शिष्यकेँ राजाक सैनिक मारि दै छथि। तीनू गोटेक गरासँ उल्कामुख ताबीज नारायण निकालैत छथि, आ सभकेँ देखबैत छथि। अन्हार फेरसँ पसरि जाइत अछि।)

(फेर मंचपर प्रकाश होइत अछि। मंच खाली अछि। अनुभवमण्डलक सदस्य मंचपर अबैत छथि जइमे गंगाधर, मनसुख, हरिकर, मितू, कुमरसुता, आनन्दा, ऋषि जटा आ हीरू छथि मुदा जीवे, मेधा, माधव आ माधवक दुनू सहयोगी नै छथि। गंगाधर छड़ी धेने छथि, आ शान्त छथि। सभ बैसि जाइ छथि।)

गंगाधर: विदा लेबाक समए आबि गेल। अनुभवमण्डल सभ जातिकेँ निकट आनलक, जाति खतम केलक, मुदा..

मनसुख: नै गंगाधर, अहाँकेँ किछु नै हएत गंगाधर।

हरिकर: सभ ठीक भऽ रहल अछि गंगाधर, कीर्ति सिंह मारल गेल गंगाधर। आब सभ किछु ठीक भऽ जाएत।

मितू: मुदा संगमे माधव आ माधवक दुनू शिष्य सेहो मरि गेला।

कुमरसुता: कीर्ति सिंहक मृत्यु आवश्यक भऽ गेल छल। मेधा आ जीवेक जघन्य हत्याक आदेश कोनो मनुक्ख नै दऽ सकैए। कीर्ति सिंह किछु एहेन गोटेसँ घेरा गेला जे हुनका मनुक्खसँ जानवर बना देलकन्हि। गंगाधर, किछु नै हएत अहाँकेँ।

गंगाधर: नै कुमरसुता समय तँ सबहक अबिते छैक। हमरा किछु आशंका अछि, अनुभव-मण्डलक विषयमे।

आनन्दा: गंगाधर, ई अनुभव-मण्डल ओहिना चलैत रहत जेना अहाँ चाहै छी।

गंगाधर: हमरा किछु डर अछि।

ऋषि जटा: कोन डर गंगाधर?

हीरू: कोन डर गंगाधर? अनुभव-मण्डलमे तँ सभ जातिक प्रवेश अछि, स्त्रीक प्रति कोनो भेदभाव नै कएल जाइ छै।

गंगाधर: (हाँफैत बजै छथि) आइ छै हीरू। ई काल्हियो रहए ऋषि जटा, से हम चाहै छी। मुदा यएह टा डर अछि जे बदला भावक ई आगि अनुभवमण्डलकेँ एकटा उल्कामुखी जाति नै बना दै ऋषि जटा। यएह एकटा डर…(खोंखी करऽ लागै छथि) यएह एकटा डर जे ओइल सधेबा लेल जे आक्रमण अनुभव-मण्डलपर हेतै तइसँ अनुभव-मण्डल अपनाकेँ एकटा घेरामे ने घेरि लिअए, आ ऐमे सभ जातिक प्रवेशपर रोक नै लागि जाए। हमरा गेलाक बाद से नै हुअए कुमरसुता... मुदा बदलाग आगिमे से भऽ जे जाए सएहटा डर..

(खोंखी करऽ लागै छथि, कुमरसुता हुनकर माथकेँ कोरामे लऽ लै छथि। आस्ते-आस्ते गंगाधर प्राणत्याग करैत छथि। अन्हार पसरऽ लगैए आ नेपथ्यसँ अबाज अबैए..
डर लगैए हे डेराओन लगैए
तोर अंगना, भयाओन लगैए
हे अजगर के खम्‍हा पर धामि‍न के बरेड़ि‍या
गहुमन क कोरो फुफकार मारैए,
डर लगैए हे डेराओन लगैए
तोर अंगना, भयाओन लगैए
कड़ेत के बत्ती पर सांखड़ के बन्‍हनमा
बि‍ढ़नी के खोता घनघन करैए।
डर लगैए हे डेराओन लगैए
तोर अंगना, भयाओन लगैए
सुगबा के पाढ़ि‍ पर ढोरबा के ढोलनमा
पनि‍या के जीभ हनहन करैए
डर लगैए हे डेराओन लगैए
तोर अंगना, भयाओन लगैए
बि‍छुआ के कुण्‍डल सनसन करैए।)

-समाप्त-

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