विदेह मैथिली नाट्य उत्सव 'Videha Maithili Drama Festival'- the encyclopaedia of Maithili Stage and Drama/ VIDEHA PARALLEL MAITHILI THEATRE
Saturday, November 10, 2012
गौरीनाथक मैथिली उपन्यास "दाग" केर पहिल अध्याय "ब्रह्म-शक्ति"क मंचन २५ नवम्बर २०१२ केँ
दाग (उपन्यास) : गौरीनाथ
बहुत दिन भेल, एक्कैस वर्ष, मातृभाषाक प्रति अनुरागक एक टा विशेष क्षण मे मैथिली मे लिखबाक लेल उन्मुख भेल रही—1991 मे— एहि एक्कैस वर्ष मे लगभग दू गोट कथा-संग्रह जोगर कथा आ दू गोट वैचारिक (आलोचनात्मक, संस्मरणात्मक आ विवरणात्मक) पुस्तक जोगर लेख यत्र-तत्र प्रकाशित आ छिडि़आयल रहितो ओकरा सभ केँ पुस्तकाकार संग्रहित करबाक साहस एखन धरि नइँ भेल। ई प्राय: अनके कारणेँ, जकर चर्चा बहुत आवश्यक नइँ। मुदा, ई उपन्यास एहि लेल पुस्तकाकार अपने सभक समक्ष प्रस्तुत क’ रहल छी जे एकरा पत्र-पत्रिका द्वारा प्रस्तुत करबाक सुविधा हमरा लेल नइँ छल। मुदा हमरा लग ई विश्वास छल जे मैथिलीक ओ पाठक वर्ग पढ़’ चाहताह जे प्राय: तेरह वर्ष सँ 'अंतिका’ पढ़ैत आयल छथि। मैथिली पत्रकारिताक दीर्घकालीन ओहि इतिहास—जे मैथिली पत्रिका पाठकविहीन आ घाटा मे बहराइत अछि—केँ फूसि साबित करैत जे पाठक वर्ग 'अंतिका’ केँ निरंतर 'घाटारहित’ बनौने रहलाह हुनक स्नेह पर हमरा आइयो विश्वास अछि। निश्चये ओ पाठक वर्ग हमर उपन्यास सेहो कीनिक’ पढ़ताह आ हमर पुरना विश्वास केँ आरो दृढ़ करताह।
—लेखक
Price : 150.00 INR
स्त्री आ शूद्र दुनू केँ हीन आ मर्दनीय मान’वला कुसंस्कृतिक अवसानक कथा जे अपन तथाकथित 'ब्रह्मïशक्ति’क छद्ïम अहंकार मे परिवर्तनक ईजोत देखिए ने पबै यए...जखन देख’ पड़ै छै तँ पाखंडक कील-कवच ओढि़ लै यए, अहुछिया कटै यए, घिनाइ यए आ अंतत: एक टा 'दाग’ मे बदलै यए जे कुसंस्कृतिक स्मृति शेषक संग परिवर्तनक संवाहक, स्त्री आ शूद्रक, संघर्ष-प्रतीक सेहो अछि।
उपन्यास पठनीय अछि, विचारोत्तेजक अछि आ मैथिली मे बेछप।
—कुणाल
गौरीनाथ मैथिलीक चर्चित आ मानल कथाकार छथि। पठनीयता आ रोचकता हिनकर गद्य मे बेस देखाइत अछि। माँजल हाथेँ ओ ई उपन्यास लिखलनि अछि। गौरीनाथ मैथिली साहित्यक आँगुर पर गनाइ वला लेखक मे छथि जे जाति-विमर्श केँ अपन विषय वस्तु बनौलनि। आन भारतीय भाषा मे साहित्यक जे लोकतांत्रिकीकरण भेल, तकर सरि भ’क’ हेबाक मैथिली एखनो प्रतीक्षे क’ रहल अछि। ई उपन्यास मैथिली साहित्यक लोकतांत्रिकीकरण लेल कयल एक टा सार्थक आ सशक्त प्रयास अछि।
'दाग’ अनेक अंतद्वंद्व सबहक बीच सँ टपैत अछि विश्वसनीयता, रोचकता आ लेखकीय ईमानदारीक तीन टा तानल तार पर एक टा समधानल नट जकाँ। एत’ सामंतवाद आ ब्राह्मणवादक मिझेबा सँ पहिनेक दीप सनहक तेज भ’ जायब देखाइत अछि। धुरखुर नोचैत नपुंसक तामस आ वायवीय जाति दंभ अछि। नवतुरियाक आर्थिक कारणेँ जाति कट्टरताक तेजब सेहो। दलित विमर्श अछि, ओकर पड़ताल सेहो। दलितक ब्राह्मणीकरण नहि भ’ जाय, तकरो चिंता अछि। दलित विमर्शक मनुष्यतावाद आ स्त्रीवादक नजरिञे पड़ताल सेहो।
आकार मे बेसी पैघ नहियो रहैत एहि मे क्लासिक सब सनहक विस्तार अछि अनेक रोचक पात्रक गाथाक बखान संग। आजुक मैथिल गाम जेना जीवंतता सँ एहि उपन्यासक पात्र बनि केँ सोझाँ अबैत अछि, से अनायासे फणीश्वरनाथ रेणु केँ मन पाडि़ दैत अछि। गामक नवजुबक सबहक दल यात्रीक नवतुरियाक योग्य वंशज अछि।
जँ आजुक मिथिला, ओकर दशा-दिशा आ संगहि ओत’ होइत सामाजिक परिवर्तन रूपी अमृत मंथनक खाँटी बखान चाही, तँ 'दाग’ केँ पढ़ू।
एहि रोचक आ अत्यंत पठनीय उपन्यासक व्यापक पाठक समाज द्वारा समुचित स्वागत हैत आ गाम-देहात सँ ल’क’ नगर परोपट्टा मे एहि पर चर्चा हैत, एहेन हमरा पूर्ण विश्वास अछि।
—विद्यानन्द झा
स्त्री आ दलित एहि दुनू विमर्श केँ एक संग समेट’वला उपन्यास हमरा जनतब मे मैथिली मे नहि लिखल गेल अछि। ई उपन्यास एहि रिक्ति केँ भरैत भविष्यक लेखन लेल प्रस्थान-विन्दु सेहो तैयार करैत अछि।
'दाग’ अपन कैनवास मे यात्रीक 'नवतुरिया’ आ ललितक 'पृथ्वीपुत्र’क संवेदना केँ सेहो विस्तार प्रदान करैत अछि। ताहि अर्थ मे ई मैथिली उपन्यास परंपराक एक टा महत्त्वपूर्ण कड़ी साबित हैत। 'नवतुरिया’क 'बम-पार्टी’क विकास-यात्रा केँ 'गतिशील युवा मंच’ मे देखल जा सकैत अछि। जाति, धर्म, लिंग आदि सीमाक अतिक्रमण करैत मनुष्य ओ मनुष्यताक पक्ष मे लेखकीय प्रतिबद्धताक प्रमाण थिक सुभद्रा सनक पात्रक निर्माण जे अपन दृष्टि सँ जातीय-विमर्श सँ आगाँक बाट खोजैत अछि, 'पहिने मनुष्य बचतै तखन ने प्रेम!’
अभिनव कथ्य आ शिल्पक संग मिथिलाक नव बयार केँ थाह’वला उपन्यास थिक 'दाग’।
—श्रीधरम
उसार-पुसार
ई उपन्यास हम लगभग दस वर्ष पहिने लिखब शुरू कयने रही। 2003 मे। एक्कैसम शताब्दीक नव गाम मे तखन धरि जे किछु थोड़ेक सामाजिकता बचल छल, एहि बीच सेहो खत्म जकाँ भ’ गेल। खगल केँ के देखै यए, हारी-बीमारी धरि मे तकैवला नइँ! अहाँक नीक जरूर दोसर केँ अनसोहाँत लगै छै। लोभ-लिप्साक पहाड़ समस्त सम्बन्ध आ हार्दिकता केँ धंधा आ नफा-नुकसान सँ जोडि़ देलक अछि।...गाम सँ बाहर रह’वला भाइ-भातिज केँ बेदखल करबाक यत्न बढ़ल अछि। खेती-किसानीक जगह व्यापार आ बाहरी पाइ पर जोर। सुखितगर होइते लोक शहर जकाँ आत्मकेन्द्रित भ’ रहल अछि आकि नव तरहक दबंग बनि रहल अछि, नंगटै पर उतरि रहल अछि। संगहि की ई कम दुखद जे जाति-धर्म, पाँजि-प्रतिष्ठा सनक मामिला मे एखनो; थोड़े कम सही; उग्र कोटिक सामाजिक एकता, आडम्बर आ शुद्धता देखाइते अछि?...
सवर्ण समाज दलित-अछूतक कन्या पर अदौ सँ मोहित होइत रहल आ एम्हर आबि विवाह आदिक सेहो अनेक घटना सोझाँ आयल। मुदा दलित युवकक संग गामक सिरमौर पंडितजीक कन्याक भागि जायब, घर बसायब आ ओकर स्वावलंबी हैब पागधारी लोकनि केँ नइँ अरघैत छनि तँ एकरा की कहबै?
खेतिहर समाज लेल खेती-किसानी सँ बढि़ ताग आ पाग कहिया धरि रहत से नइँ कहि सकब!...
ओना मिथिला-मैथिल-मैथिलीक मामिला मे 'पूबा-डूबा’क हस्तक्षेप पश्चिमक श्रेष्ठता-ग्रंथि केँ कहियो स्वीकार्य नइँ रहल—खासक’ शुद्धतावादी लोकनि आ पोंगा पंडित लोकनि केँ!...
निश्चये ओहेन व्यक्ति केँ मैथिल समाजक ई पाठ बेजाय लगतनि जे मनुक्ख आ मनुक्ख मे भेद करै छथि, एक केँ श्रेष्ठ आ दोसर केँ हीन बुझैत छथि!...
सिमराही-प्रतापगंज-ललितग्राम-फारबिसगंज बीचक आ कात-करोटक 'पूबा-डूबा’ गाम-घरक किछु शब्द (ककनी, कुरकुटिया, ढौहरी, दोदब आदि), किछु ध्वनि, भिन्न-भिन्न तरहक उच्चारण आ वर्तनीक विविधता कोसी-पश्चिमक किछु पाठक केँ अपरिचित भनहि लगनि, आँकड़ जकाँ प्राय: नइँ लगबाक चाहियनि किएक तँ कोसी पर नव बनल पुल चालू भ’ गेल अछि...जाति मे भागनि आकि अजाति मे, बेटी-बहिन घर-घर सँ भागबे करतनि...ताग आ पाग धयले रहि जयतनि!...नव-नव बाट आ पुल आकर्षक होइत छै! से जनै अछि छान-पगहा तोड़बा लेल आकुल-व्याकुल नव तुरक मैथिल कन्या! हँ, पंडिजी बुझैतो तकरा स्वीकार’ नइँ चाहैत छथि।
उपन्यासक अन्तिम पाँति पूरा क’ हम विश्रामक मुद्रा मे रही...कि पंडीजी, माने पंडित भवनाथ मिश्र, आबि गेलाह। पुछलियनि—पंडित कका, अंकुरक प्रश्नक उत्तर के देत? कहू, ओकर कोन अपराध?... पंडित कका किछु ने बजलाह, बौक बनि गेलाह!...मुदा हुनका आँखि मे अनेक तरहक मिश्रित क्रोध छलनि! ओ पहिने जकाँ दुर्वासा नइँ भ’ पाबि रहल छलाह, मुदा भाव छलनि—खचड़ै करै छह! हमरा नाँगट क’क’ राखि देलह आ आबो पुछै छह...जाह, तोरा कहियो चैन सँ नइँ रहि हेतह!...
अंकुरक छाती पर जे दाग अछि, तेहन-तेहन अनेक दाग सँ एहि लेखकक गत्र-गत्र दागबाक आकांक्षी पंडित समाज आ विज्ञ आलोचक लोकनि लग निश्चये अंकुरक सवालक कोनो उत्तर नइँ हेतनि। सुभद्राक तामस आ ओकर नजरिक दापक दाग सेहो हुनका लोकनिक आत्मा पर साइत नहिए बुझाइत हेतनि!... मुदा सुधी पाठक, दलित समाज सँ आगाँ आबि रहल नवयुवक लोकनि आ स्त्रीगण लोकनिक नव पीढ़ी जरूर एकर उत्तर तकबाक प्रयास करत, से हमरा विश्वास अछि।
—गौरीनाथ
01 सितम्बर, 2012
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